अतीत मा,
जब लगदि थै बणाँग,
जख घनघोर जंगळ,
उत्तराखण्ड का डांडौं मा,
तब भटेन्दा था,
गौं का मनखी,
किलैकि ऊबरि पर्वतजन,
भौत प्यार करदा था,
जंगळ, बण बूट सी,
एक भावनात्मक,
रिश्ता का कारण,
आज भी पर्वतजन,
सहयोग करदा छन,
आज जंगळ जळ्दा छन,
थोड़ा बद्लिगी पर्वतजन,
जंगळ छन सरकारी,
फिर क्या जिम्मेदारी,
चौकीदार छन पतरोळ,
जनु भी करला,
छाळ छछोळ,
पर जरूरत आज भि छ,
"चला लो आग बुझौण".
रचनाकार-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: १३.४.२०१२
http://www.facebook.com/media/set/?set=a.1401902093076.2058820.1398031521&type=1
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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भौत ही भली रचना। आज लुगोँ तेँ आज लगदु की युँ बण सरकारी छन पर युँ बण हमारा ही काम आण्दा।
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