Monday, February 2, 2015

छट्ट छुटिगि...

माछा की तरौं,
हे भुलों सब्‍बि धाणि,
पहाड़ छूटि, मुल्‍क छुटि,
छुटिगि बथौं पाणी....

माळु का पात मा,
भात खान्‍दा था,
धाण काज कू,
पुंगड़ौं जान्‍दा था,
मेल जोल कू जमानु थौ,
होन्‍दि थै मिलि जुलिक धाण,
गौं मुल्‍क का हाल देखि,
ऊदासी मन मा अाज छै जान्‍दि,
उदौळि औन्‍दि खुदेन्‍दु पराण....

बाळु बचपन जैं धरती मा खत्‍युं,
फ्यौंलि बुरांस जख औन्‍दा जान्‍दा,
हैंस्‍दा जख प्‍यारा डांडा कांठा,
वीं धरती सी दूर ह्वैक,
छट्ट छुटिगि सब्‍बि धाणि,
याद जब जब आज औन्‍दि,
तरसेन्‍दु छ पापी पराणी,
जुगराजि रै तू मुल्‍क मेरा,
देव्‍तौं कू देश छैं तू,
हमारा मन की आस भी....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
3.2.2015, दोपहर 12.30,
अपणि कलम सी एक अहसास
सर्वाधिकार सुरक्षित

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