भाषा रुपी डाळि का दगड़्यौं,
पुराणा पात झड़ि जाला,
फललि फूललि भाषा हमारी,
पात नयां चार चांद लगाला.......
पित्रुन रचि होलि भाषा हमारी,
गढ़वाळि, कुमाऊंनी, जौनसारी,
नयीं पीढ़ी तैं बोलणु सिखावा,
लिखण मा क्या छ लाचारी......
जब तक लिख्ला बोलला हम,
तब तक हि छौं उत्तराखण्डी,
ध्यान रखा बिना भाषा कू,
मनखि जनु थौ शिखन्डी......
भाषा हमारी कथ्गा प्यारी,
कलम ऊठैक श्रृंगार करा,
मन सी सोचा हे लठ्याळौं,
जतन करि रसधार भरा.......
जल्म हमारु यीं धरती मा,
भाषा रुपी डाळि का,
श्रृंगार का खातिर होयुं छ,
भाषा अपणि त्यागि मनखि,
बिमुख ह्वै किलै खोयुं छ........
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