मैं
घुमंत्तू प्रवृति का इंसान हूं । मन में
सदा पहाड़ उत्तराखण्ड भ्रमण की चाह रहती है।
अनुज दर्मियान सिंह जयाड़ा बहुत दिन से मुझे कह रहे थे, भाई गांव आओ और भाई बंधो के
गांव दख्याटगांव चलेगें । मैंने 28
दिसम्बर से 31 दिसम्बर, 2020 तक का आकस्मिक अवकाश लिया और 24
दिसम्बर सांय पांच बजे कार्यालय से अंतराज्यीय बस अड्डा मोरी गेट से बस पकड़ने के
लिए प्रस्थान किया । बस अड्डे पहुंचा तो
वहां किसान आन्दोलन के कारण वीरानी छाई हुई
थी । देहरादून, रिषिकेश की बसें जहां पर लगती हैं
वहां देखा तो देहरादून की बसे लगी हुई थी ।
सामने जहां पहाड़ के लिए सीधी बस सेवा की बसें लगती हैं वहां एक बस लगी हुई
थी। वहां पहुंचने पर देखा तो श्रीनगर
गढ़वाल की एक बस लगी हुई थी । कंडक्टर से
मैंने पूछा, मुझे देवप्रयाग जाना है । कंडक्टर ने कहा बस में बैठ जाईए। दिन में मैंने एक खबर जागरण की वैबसाईट देखी तो
समाचार था तोता घाटी देवप्रयाग का रास्ता खुल चुका है । बस ने आठ बजे सांय रिषिकेश के लिए प्रस्थान
किया और कंडक्टर ने मुझे रिषिकेश तक का टिकट दिया और कहा देवप्रयाग का टिकट बाद
में दूंगा।
बस
अपनी गति से रिषिकेश की तरफ जा रही थी।
मेरे पास देा सहयात्री बैठे थे।
मैंने अपनी आदत के अनुसार उनसे संवाद किया। उन्होंने बताया हमारा गांव मोड़ कंडाई, बचनस्यूं में है और हमें
श्रीनगर जाना है। हम औली भ्रमण पर जा रहे
हैं । मैंने उनसे कहा, औली के बहाने आप अपने उत्तराखण्ड जा रहे हैं । दोनों सहयात्री का नाम
शैलेश भट्ट और संजय भट्ट था। मैंने कहा,
मेरे नाती का नाम भी शैलेश है।
मेरे परम मित्र श्री जयप्रकाश पंवार “प्रकाश” जी ने नाती का नाम पहाड़ सिंह जयाड़ा रखने को कहा था। सोच विचार के बाद मैंने उसका नाम शैलेश सिंह
जयाड़ा रखा है। शैलेश भट्ट जी अपने साथी से चर्चा कर रहे थे साकनीधार में रोडवेज
की बस 7 मई, 2014 को दुर्घटनाग्रस्त हुई थी उसमें मैं भी
था। मैंने तुरंत उनसे उस घटना के बारे में
पूछा तो उन्होंने बताया, बस में 31 सवारी थी, 28 यात्री वहीं पर स्वर्गवासी हो गए और हम तीन यात्री घायल हो गए। तीन महीनें तक ईलाज चला और बाद में देवप्रयाग
थाने से अपना सामान लिया।
हमारी
बस ढ़ाई बजे रात्रि को रिषिकेश पहुंच गई ।
डेढ़ घंटे का इंतजार करने के बाद चार बजे बस ने श्रीनगर के लिए प्रस्थान
किया और कंडक्टर ने मुझे देवप्रयाग का टिकट तोताघाटी खुलने का सत्यापन करने के बाद
दिया। अभी अंधेरा था और पहाड़ पर गांव गांव बिजली की रोशनी नजर आ रही थी। पहाड़ में यात्रा करने का अनुभव अनोखा होता
है। नीचे शांत बहती मां गंगा और संघन वन
के बीच मोड़ो को पार करती हुई बस में यात्रा करने का आनंद ही अलग होता है। साकनीधार पार करने के बाद तीन धारा में पहुंचे
तो सुबह का उजाला हो चुका था। लगभग साढ़े
छ बजे सुबह बस देवप्रयाग पहुंची और डेढ़ घंटे का इंतजार करने के बाद देवप्रयाग से
टिहरी जाने वाली बस मिली।
बस
में हम पांच यात्री थे, बस हिंडोलाखाल की तरफ जा रही थी।
देवप्रयाग तहसील पहुंचने पर कुछ यात्री बस में बैठे। बस मालिक जाखनीधार के पंवार जी थे। एक सरदार जी से चर्चा कर रहे थे यहां पलायन के
कारण यात्री भी नहीं हैं। उत्तराखण्ड में
सिर्फ बत्तीस प्रतिशत लोग रह गए हैं। सरकार
की योजनाएं बजट खर्च करने के लिए हैं पलायन रोकना दूर की बात है। एक घंटे का सफर करने के बाद बस जामनीखाल पहुंची
और मैं सफर के अंतिम मुकाम पर पहुंच गया।
मेरा मोबाईल बंद हो चुका था। अनुज
दर्मियान सिंह ने जामनीखाल में मिलने का वादा किया था। मैं इंतजार कर रहा था अचानक मेरे गांव के देवखा
ने मुझे आवाज दी। पास जाकर देखा तो पहचान
गया। मैंने उनके मोबाईल से अपने पुत्र
मनमोहन सिंह से संपर्क किया और दर्मियान सिंह को सूचित करने को कहा कि मैं
जामनीखाल पहुंच चुका हूं। तुरंत ही
दर्मियान सिंह का फोन आया, भाई साहब आप मेरे पुत्र के साथ
पबेला आ जाओ। हमें भुवनेश्वरी महिला आश्रम
में सिरियल साहब को क्रिसमस के उपलक्ष में हार्दिक शुभकाना देने जाना था। सिरियल साहब अब असमर्थ अवस्था में आ चुके
हैं। उन्होंने सभी को मुलाकात के लिए
बुलाया था।
पबेला पहुंच कर दर्मियान सिंह से मुलाकात हुई
और दिन का भोजन किया। सांय चार बजे हमनें
अंजनीसैण के लिए प्रस्थान किया और परम मित्र चंद्रमोहन थपलियाल जी से मुलाकात
की। हम पहले आश्रम गए और सिरियल साहब से
मिले। कुछ समय रुकने के बाद हम थपलियाल
जी के मशरुम प्लांट पर गए। वहां कुछ समय
रुकने के बाद हम डांडा गांव के ऊपर उनके आवास पर पहुंचे। रास्ता चढ़ाई का था और हम कदम कदम पहाड़ चढ़
रहे थे। हमारे लिए थपलियाल जी ने चाय
बनाई और भोजन की व्यवस्था की। देर रात एक
बजे तक हम संवाद करते रहे। चन्द्रमोहन जी
ने पै की ढुंगी, हमारा गौं मा और मां पर एक मार्मिक गढ़वाली रचना गीत सुनाया। प्रकृति की गोद में उनका आवास है और चारों ओर
बांज बुरांस के पेड़।
सुबह हमनें चाय पी और मशरुम प्लांट के पास सड़क
पर पहुंचे। दर्मियान सिंह के दोनों पुत्र
यशपाल और अभिषेक गांव से पहुंच चुके थे।
लगभग दस बजे हमनें दख्याटगांव,
उत्तरकाशी के लिए प्रस्थान किया।
यात्रा लंबी थी और हम बजार, पहाड़ और घाटियां निहारते
हुए टिहरी बांध की तरफ जा रहे थे। टिहरी
बांध को पार करते हुए अब हम भल्डियाना की तरफ जा रहे थे। भल्डियाना पहुंचने पर दर्मियान सिंह ने भोजन
करने की इच्छा जताई। वहां पर हमने मच्छी
भात खाया और चांठी डोबरा पुल की तरफ प्रस्थान किया। पुल का नजारा मनमोहक था और आनंद की अनुभूति हो
रही थी। हमनें वहां पर कुछ तस्वीरें ली और
चिन्याळिसौड़ की तरफ प्रस्थान किया। बड़े
भाई सकलचंद जी, दख्याटगांव को हमनें चिन्याळिसौड़ पहुंचने की सूचना
दी।
कुछ
देर बात संकलचंद भाई जी का फोन आया और हमें सिलक्यारा में श्री प्रताप सिंह जयाड़ा
जी से मिलने को कहा। धरासू बैंड से अब हम
ब्रह्मखाळ की तरफ जा रहे थे। ब्रह्मखाळ पार करने के बाद हम प्रकटेश्वर महादेव के
पास रुके। वहां पर गोरखाओं की झोपड़ीनुमा
दुकानें थी। कुछ समय रुककर हमनें वहां पर
चाय पी। प्रकटेश्वर महादेव के पट छ माह के
लिए बंद थे। अब हमनें सिलक्यारा की तरफ
प्रस्थान किया। पहाड़ के लोग कहते हैं
यहां रोजगार नहीं है, लेकिन गोरखा लोग यात्रा मार्ग पर खूब आय कर रहे हैं। सिलक्यारा पहुंचनें पर पर हमनें प्रताप सिंह जी
से संपर्क किया। वहां पर होटल जयाड़ा था। हमनें वहां पर होटल की तस्वीर ली। प्रताप
सिंह जी नें हमें सुरंग के पास जाने को कहा।
वहां पर श्री विजयपाल सिंह जयाड़ा जी का मकान था। श्री विजयपाल सिंह जयाड़ा
से हमारी मुलाकता हुई और चाय पी। वे हमें
रात रुकने के लिए कह रहे थे लेकिन हमनें बताया हमें आज रात दख्याटगांव जाना
है।
अब हमनें राड़ी की ओर प्रस्थान किया। सांय
का वक्त हो चुका था और अंधेरा छा रहा था।
बड़कोट की दूरी लगभग पच्चीस किलोमीटर थी।
साढ़े चार किलोमीटर सुरंग बन जाने के बाद रास्ता बड़कोट के लिए बहुत कम हो
जाएगा। राड़ी टाप पहुंचने पर देखा अंधेरा
हो चुका है और अब रास्ता बड़कोट की ओर उतराई का था। बड़कोट के पास सुंरग स्थल दिखाई दिया। दोनों तरफ से सुरंग का निर्माण हो रहा है।
बड़कोट पहुंचने पर हमनें आवश्यक सामान खरीदकर यमुना पुल की तरफ के लिए प्रस्थान
किया। श्री सकलचंद जयाड़ा जी टट्वा में सड़क पर हमारी इंतजार कर रहे थे। पास
पहुंचने पर मैंने भाई साहब को गले लगाया।
पांच साल पहले दख्याटगांव भ्रमण के दौरान मेरी उनसे पहली मुलाकात हुई थी। सकलचंद भाई गाड़ी में हमारे साथ बैठ गए। कुछ समय बाद हम दख्याटगांव के नीचे पहुंच
गए। वहां पर गाड़ी पार्क करने के बाद हम श्री सकलचंद भाई के घर पर
पहुंचे।
15, अप्रैल, 2015 के बाद सकलचंद भाई से मेरी ये दूसरी यादगार मुलाकात थी। सांय का भोजन भाई जी के साथ हुआ और देर रात तक
बातचीत का दौर चला। अपने जयाड़ा बंधु के
आवास पर अपनेपन का अहसास हो रहा था। भाई
जी ने अपना मकान 1975 में बनाया था, जो काफी भव्य है। फाईव स्टार होटल में वो अहसास नहीं हो
सकता। पूरे गांव में पुरातन पारंपरिक घर
हैं और व्यवहार बहुत ही मधुर। शाम को भाई
ने खबर दी, टट्वा में अपने एक भाई स्व. भरत सिंह का
स्वर्गवास हो गया है। हमनें निर्णय किया
हम भी अंतिम यात्रा में शामिल होगें। शाम
को ही सलचंद भाई ने बताया राजगढ़ी से जयवीर सिंह जयाड़ा जी का हमारे लिए निमंत्रण
आया है।
27
दिसम्बर सुबह हमनें नाश्ते से पूर्व टटेश्वर महादेव के दर्शन किया। मंदि बहुत ही भव्य है। पास ही एक मंदिर के अंदर दो मगरों से पानी बह
रहा था। इसके बारे में सकलचंद जी के नाति
ने बताया, बहुत
पहले इस गांव में एक बुढ़िया रहती थी। एक
दिन एक महात्मा जी उनके घर पर पधारे और पानी पिलाने को कहा। घर में पानी नहीं थी, बुढ़िया
ने कहा मैं अभी आपके लिए धारे से पानी लाती हूं।
जल श्रोत बहुत दूर था, बुढ़िया को आने में देर हो
गई। महात्मा जी ने दो जगह पर चिमटा गढ़ाया
और वहां पर दो जलश्रोत बहने लगे। वर्तमान
में दख्याटगांव के लिए ये जलश्रोत वरदान हैं और पीने के लिए जल बहुत मात्रा में उपलब्ध
है। दोनों जलश्रोतों को मंदिरनुमा भवन
बनाकर सुरक्षित कर दिया गया है, जहां कपड़े धोने की बिल्कुल
मनाही है। पास ही रामलीला मंच और भव्य
तिबारि और नीमदरी हैं और पूरे गांव का मेला स्थल और मण्डाण चौक है। जितना संभव हुआ
हमनें तस्वीरे कैमरे में कैद की और सकलचंद भाई के आवास पर लौट आए ।
जब
मैं घर पहुंचा तो जयवीर सिंह भाई राजगढ़ी से पहुंच चुके थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया और गले लगाया। उनसे खूब बातचीत हुई और उन्होंने अपने जीवन का
परिचय दिया। उन्होंने बताया, राजगढ़ी को मैंने भूख
हड़ताल करके सड़क मार्ग से जोड़ा, फिर भूख हड़ताल करके
राजगढ़ी में केन्द्रीय विद्यालय खुलवाया।
अब मेरी इच्छा राजगढ़ी को बड़कोट से रोपवे से जोड़ने की है। मैंने भाई साहब को कहा, आप
राजगढ़ी के वर्तमान में राजा हो। नाश्ता
करने के बाद हमनें टट्वा स्व. भरत सिंह जयाड़ा जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने
के लिए प्रस्थान किया। जब हम टट्वा पहुंचे
तो रीती रिवाज के अनुसार मेरे गांव से अलग अंदाज में तैयारी हो रही थी। लगभग चार सौ आदमी वहां मौजूद थे। मैंने जानकारी ली तो पता लगा, सभी जयाड़ा बंधु और रिश्तेदार हैं।
शवयात्रा शुरु हुई और कुछ दूर जाकर रुक गई।
जिस
स्थान पर शवयात्रा रुकी वहां पर सभी लोग बैठ गए और चार जोड़ी ढ़ोलवादकों(औजी) ने
अलग धुन में बजाकर पैंसारा नृत्य किया। सभी लोग शव पर रुपया घुमाकर एक रुमाल में
रख रहे थे। कुछ देर के बाद शवयात्रा ने
यमुना तट के लिए प्रस्थान किया। यमुना पुल
पार करने के बाद गंगनानी के के पास यमुना तट पर शव यात्रा रुकी। अंतिम क्रिया की
तैयारी चल रही थी। वहीं पर मेरी मुलाकात
श्री उपेन्द्र सिंह जयाड़ा जी व अन्य जयाड़ा बंधुओं से हुई। आपस में परिचय का दौर चला और उपेन्द्र भाई ने
बताया मेरा घर बड़कोट में है और तहसील के पास।
कुछ समय रुकने के बाद सकलचंद भाई जी और जयवीर भाई गाड़ी में हमारे साथ बैठे
और राजगढ़ी के लिए प्रस्थान किया। सांय का
समय हो चुका था, हमें रात को ग्युणेटि जाना था इसलिए चाय पकोड़ी खाकर हमनें जयवीर भाई से
जाने की इजाजत ली। वैसे हमारा दख्याटगांव
में 27-28 दिसम्बर को रुकने का था। हमारे
साथ दर्मियान सिंह भुला के दो बालक यशपाल और अभिषेक जयाड़ा साथ आए थे, उनके छोटे बालक को जल्दी दिल्ली ड्यूटी पर जाना था। दख्याटगांव पहुंचने पर
हमनें बालकों को सकलचंद भाई के आवास से सामान लेने के लिए भेजा और सकलचंद भाई से
विदा होने की आज्ञा ली। कुछ समय बाद बालक
गाड़ी के पास आए और हम बड़कोट बजार के लिए चल दिए।
बड़कोट
बजार पहुंचकर हमनें आवश्यक सामान खरीदा और ग्युणेटि के लिए प्रस्थान किया। अंधेरा हो चुका था और हम राड़ी टौप की तरफ जा
रहे थे। सघन वन के बीच घुमावदार सुनसान
सड़क पर यात्रा करने का अनुभव अनोखा था।
लगभग आठ बजे रात्रि हम ग्युणेटि पहुंचे और गाड़ी गांव के पास खड़ी करके
रमोला जी के अवास पर पहुंचे। रात्रि को बहुत देर तक बातचीत का दौर चला और भोजन
करने के बाद हम सो गए।
28
दिसम्बर, 2020 को
सुबह उठे तो बाहर हिमपात हो रहा था। 16
जनवरी, 2013 को अखोड़ी, हिंदाव में
मैंने 35 साल बाद हिमपात देखा था। ठीक सात
साल बाद फिर हिमपात देखने का सौभाग्य मिला।
मैंने गांव की तस्वीरें कैमरे में कैद की।
दख्याटगांव, छटांगा और ग्युणेटि जयाड़ा वंश की
जानकारी लेने के लिए मैं श्री बहतर सिंह जयाड़ा जी के पास गया। उनसे परिचय हुआ और मैंने वंशावली के बारे में
बात की। उनके पास अपूर्ण वंशावली हस्तलिखित
मिली जो उन्होंने बनाई थी। उन्होंने बताया
स्व. चन्द्र सिंह जयाड़ा ने पूर्ण वंशावली तैयार की थी, उनके
बच्चे देहरादून, चन्द्र नगर में रहते हैं। मैंने बहतर सिंह जी को कहा आप अपने सूत्र से
देहरादून संपर्क करके पूर्ण वंशावली मंगवाकर मुझे भी उपलब्ध कराना और अपने यहां की
पूर्ण वंशावली की प्रति उनको प्रदान की। पूरा
ग्युणेटि गांव हिमपात के कारण सफेद नजर आ रहा था।
रमोला जी के आवास पर लौटकर हमनें भोजन किया और तैयार हुए। लगभग एक बजे हमनें ग्युणेटि का अल्विदा कहा। अभिषेक गाड़ी चला रहा था। सिलक्यारा में हम कुछ देर के लिए रुके और
विजयपाल भाई जी से मुलाकात की। उनकी बहु
की तबियत पीलिया के कारण खराब थी। मैंने
उनको जल्दि से जल्दि श्रीनगर हाईवे पर बगवान गांव में वैद्य को दिखाने को कहा। अब हमनें धरासू बैण्ड की तरफ प्रस्थान
किया। हमारे साथ ही विजयपाल भाई के
सुपुत्र महीपाल सिंह जयाड़ा अपनी गाड़ी से साथ चल रहे थे। धरासू बैण्ड पर हम रुके, महिपाल
जी को उत्तरकाशी जाना था।
धरासू बैण्ड से हमनें प्रस्थान किया और
चिन्यालिसौड़ से पुल पार करके भैंगा पुल की तरफ चल दिए। एक जगह गधेरे में हमें चाय की दुकान मिली। वहां पर हमनें चाय पी और चाय वाले से एक किलो
टिहरी झील की मछली ली। मछली जिंदा थी, चाय वाले ने उन्हें एक टब
में पानी में रखा था। कुछ देर रुकने के
बाद हम आगे बढ़े तो सड़क के मोड़ पर एक गोल अनोखी चट्टान दिखी। वहां रुककर हमनें चट्टान के सामने अपनी
तस्वीरें कैद करवाई। आगे बढ़ने पर हमनें
पुल पार किया और भल्डियाना की तरफ चले गए।
यशपाल और अभिषेक का विचार था हम डोबरा चांठी पुल की लाईट देखकर जाएं। पुल के पास पहुंचने पर पता लगा, लाईट छ बजकर तीस मिनट पर सांय को खुलेगी।
इतना हमारा वहां पर रुकना संभव नहीं था।
मैंने दूर से पुल की विडियो बनाई, प्रताप नगर की तरफ
से चंद्रोदय हो रहा था। खूबसूरत चांद को
मैंने कैमरे में कैद किया। अब हमनें कोटी
कालोनी की तरफ प्रस्थान किया। गाड़ी में
पेट्रोल कम था। कोटी कालोनी से पहले
पेट्रोल पंप से तेल भरवाकर आगे बढ़े।
हमारा विचार टिहरी बांध की दीवार से होकर जाने का था। वहां पहुंचकर पता लगा, छ
बजे के बाद जाने की इजाजत नहीं है। अब
हमें जीरो प्वाईन्ट होकर जाना था।
भगीरथपुरम से होते हुए हमनें जीरा प्वाईन्ट पार किया और टिपरी पहुंचे। टिपरी में थोड़ी देर के लिए रुके और जाखनीधार
के लिए चल पड़े। रात के साढ़े सात बज चुके थे।
खण्डोगी से पहले एक बड़ा सा सुअर हमारी गाड़ी के आगे से गुजरा। सुअरों की वजह से हमारे पहाड़ में लोगों की
खेती संकट में पड़ी हुई है।
अंजनीसैण
पार करने के बाद डांडा गांव के नीचे हम श्री चन्द्रमोहन थपलियाल जी के मशरुम
प्लांट पर रुके। थपलियाल जी अपने घर जा
चुके थे। वहां पर दर्मियान सिंह की स्कूटी
खड़ी थी। यशपाल और अभिषेक स्कूटी स्टार्ट
करके गाड़ी के पीछे चलने लगे। ठंड बहुत थी
और स्कूटी ले जाना मजबूरी। लगभग रात नौ बजे
हम पबेला दर्मियान सिंह के आवास पर पहुंचे और इस तरह यादगार यात्रा की समाप्ति हुई।
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