गाँव की उम्मीदों का खून,
अब शहर में जीते-जीते,
अपने दर्द भरे दिल में,
बेदर्द होकर बह रहा है.
शहर की चिमनियों से,
निकलता काला धुवाँ,
किसी को रोजगार देकर,
उड़ रहा अनंत आकाश को,
जिसमें छुपा होगा दर्द,
पहाड़ से पलायन कर आए,
किसी पर्वतजन का भी.
चंचल मन आज मुझे,
बड़ा बेरूखा हो गया तू'
धिक्कार कर कह रहा है,
लौट जा अब भी,
क्या रखा है यहाँ?
कितने ही आए,
पहाड़ से पलायन करके,
तेरी तरह इस शहर में,
पलायन का दर्द,
दिल में ढ़ोते-ढ़ोते,
स्वर्ग को चले गए,
लेकिन! लौट नहीं पाए,
गाँव है कि आस में,
आज भी इन्तजार में हैं.
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द "या"
महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून...
कवि: विपिन पंवार "निशान" जी द्वारा फेसबुक प्रस्तुत इन पंक्तियों
पर मेरी अनुभूति... "गाँव की आस" कविता के रूप में.....१२.११.२०१०
(यंग उत्तराखंड, मेरे ब्लॉग पोस्ट पर प्रकाशित)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, November 12, 2010
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उत्तराखंड के गांधी स्व इन्द्रमणि जी की जीवनी मैंने हिमालय गौरव पर पढ़ी। अपने गाँव अखोड़ी से बडोनी जी नौ दिन पै...
चारो और प्रदुषण ही परदुषण
ReplyDeleteफिर भी जी रहे है इस शहर मे
सवर्ग समान पहाड से पलायन
हम कर जाते है..
और रह रहे है ईस प्रदुषण भरे शहर मे
पर क्या करे,, मजबूरी..