मैदान से डरता है,
नदियों के द्वारा,
बहुमूल्य गाद भेजकर
मैदान का सृजन,
करता है,
अपने आँचल से,
निकलने वाली नदियों से,
मैदान को सींचता है....
मैदान से जुदा होकर,
पहाड़ उत्तराखण्ड बना,
फिर भी डरता है,
अपना ही मैदानी भाग,
उसका भाग्य,
आज भी निर्धारित करता है....
जैसे पहाड़ को राजधानी,
जरूरी सतत्त विकास,
पलायन पर रोक,
प्राकृतिक संसाधनों का,
समायोजित लाभ,
खेत खलिहान में समृधि,
क्योँ नहीं मिला?
पहाड़ को आज भी.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: ३.२.२०१२
www.pahariforum.net
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, February 3, 2012
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स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी, आपन कनु करि कमाल, उत्तराखण्ड आन्दोलन की, प्रज्वलित करि मशाल. जन्म २४ दिसम्बर, १९२५, टिहरी, जखोली, अखोड़ी ग्राम, उत्...
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उत्तराखंड के गांधी स्व इन्द्रमणि जी की जीवनी मैंने हिमालय गौरव पर पढ़ी। अपने गाँव अखोड़ी से बडोनी जी नौ दिन पै...
बेहतरीन जयाड़ा जी. यह कविता बहुत पसंद आयी. कविता में ऊर्जा है, आग है. बहुत कुछ कह जाती है.
ReplyDeleteभाई आनंद बिल्थरे जी की एक पुरानी कविता याद आ गयी.
पहाड़-
अपाहिज की तरह
हमेशा बैशाखी का मोहताज
और मैदान
मक्कारी में सदा
ऊंचे पायदानों पर
गाडी पर मोटर पर
पहाड़ के कन्धों पर !