जनु सोचण्या होल्या तुम,
क्या बतौण?
या बग्त की बात छ,
भलु बुरू हे चुचौं,
हमारा तुमारा हाथ छ....
दुनियां का दिनु देखिक,
मैं यनु होयुं छौं,
पैलि भारी भलु थौ,
हे! सच मा तुमारा सौं....
यीं दुनियां मा,
देखा, गोरा मनखी,
बल मन का काळा,
लोभ लालच अति भारी,
बण्यां छन धन जग्वाळा,
तौं जनु होण पड़दु,
नितर, जिंदगी जीणु हराम,
करि नि सकदा क्वी काम,
क्या कन्न हे श्रीराम,
कारण यु हिछ,
"यथगा भलु नि छौं मैं"......
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २८.२.२०१२
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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