वक्त की पुकार है, पर्वतजन लाचार है,
सूख रहे हैं जल श्रोत, जल जाते हैं जंगल,
पर्वतजन और जंगल का, रिश्ता टूट गया,
ऐसा क्यों हुआ? सोचो! जो है घोर अमंगल....
बाघ झपट रहे हैं इंसानों पर, क्यों खूंखार है?
सूअर, बन्दरों का उत्पात, क्या बात है?
प्रदूषित हो रहा है पहाड़, पर्यटकों का उत्पात है,
क्यों उजड़ रहे घर गाँव? दुर्भाग्य की बात है,
पहल अब करनी ही होगी, बग्त की बात है....
गाँव गाँव पर्वतजन से, मन की बात जानना,
गाँव कैसे हों आबाद? उनके क्या जज्बात हैं,
प्रश्न है आखिर पहाड़, उजड़ते गाँवों की दशा,
बंजर होती कृषि भूमि, उखड़ा पर्तजन का मन,
एक हल ढूँढना ही होगा, हमारे आपके हाथ है....
पर्वतजन ठगा ठगा है, उसका पहाड़,
न जाने क्यों, उजड़ता ही जा रहा है,
गाँव उजड़े बहुत, आबाद भी न रह सके,
पहाड़ धर्य खोकर क्यों उत्पात मचा रहा है,
पहाड़ की परियोजनाएँ, किस काम की,
जिनसे विस्थापन पलायन ही होना है,
कौन करेगा आबाद, निराश पहाड़ को,
संकट में पर्वतजन, आज यही तो रोना है....
कैसे सृंगार हो पहाड़ का?
विरासत भी कायम रहे,
मन में एक भाव जगे, सबका है पहाड़,
हिमालय के आंसू निकलेंगे, सूखेंगी नदियाँ,
पहाड़ की रेख देख करने वाला पर्वतजन,
खुशहाल न होकर, अगर निराश रहे,
कुछ तो निराकरण होना ही चाहिए,
कवि "जिज्ञासु" का कविमन यही कहे,
"गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ".....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित, 12.4.2013
"गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ" पदयात्रा अभियान के लिए रचित
http://www.facebook.com/SaveHimalayaMovememt
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