उद्गम मेरा हिमालय है,
अविरल मैं बहता जाता,
कहीं बीच भंवर में फंसता,
कभी किनारों से टकराता....
पञ्च प्रयागों से गुजरता,
आस्तिकों के पाप हूँ धोता,
शुभ पर्व महापर्वों पर मुझे में,
नहाकर यात्री खुश है होता....
उनके तन मन का मैल,
मुझ में है मिल जाता,
अपने पथ पर अग्रसर मैं,
बहता जाता बहता जाता....
आस्था के क्रूर प्रहारों को,
सहते सहते अपने पथ पर,
मिल जाता हूँ सागर में,
मिलन की चाह में समाकर....
फिर मेघदूत मुझे सागर से,
उठाकर हैं लाते,
गरज गरजकर अम्बर से,
धरती पर हैं बरसाते....
लौट आता हूँ आलय अपने,
मिलने फिर हिमालय को,
बहता हूँ युगों युगों से,
मैं "नदी का पानी" बनकर,
जीवनदायिनी गंगा में......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षति, ब्लॉग पर प्रकाशित
16.4.13
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