जब तुमारा दगड़ा,
कखि ऊँचि धार ऐंच,
भ्वीं मा बैठिक,
लगौलु छ्वीं बात,
बचपन का बिगळ्याँ,
प्यारा दगड़्यौं की,
अपणा मुल्क का,
रौ रिवाज की,
रीत रसाण की,
जागर अर मंडाण की,
बाँज बुरांश की,
घुघती अर हिल्वांस की,
हिंवाळि डाँडी-काँठ्यौं,
सर-सर बगदि,
अलकनंदा भागीरथी की,
उत्तराखंड हिमालय की,
कुलदेवी मा चन्द्रबदनी,
सुरकंडा माता की.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ७.१.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, January 6, 2011
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