सच नि होन्दु,
फिर भि सोच्दु छ इंसान,
पर अपणा मन की,
करदु छ भगवान.
एक दिन मैन सोचि,
भोळ छुट्टी का दिन,
२२.१.२०१० शनिवार कू,
आराम करलु मैं,
पर सुबेर ६.२० फर,
नौना कू फोन आई,
"पापा किसी ट्रक ने,
मूलचंद के सामने,
मुझे टक्कर मार दी है",
आप जथगा जल्दी हो,
झट-पट आवा,
यथगा सुणिक मेरु,
ह्वैगि मोळ माटु,
आँखौं मा ह्वै अँधेरू,
नि सूझि कुछ बाटु.
कुल देवतों की कृपा सी,
नौना का गौणा फर,
सिर्फ लगि भारी चोट,
अनर्थ होण सी बचि,
माँ चन्द्रबदनी की कृपा सी,
मेरा मित्रों, आपकी दुआ लगि,
देवभूमि उत्तराखंड की,
प्यारी जन्मभूमि की,
कर्दौं मन सी वंदना.
मेरा कविमन तैं,
सुख दुःख यथगा ही मिलु,
जथगा मैं सहन करि सकौं,
हे बद्रीविशाल,
सोच्युं आपकु प्रभु,
सदा सच हो,
पर अनर्थ न हो,
मेरु आपसी छ सवाल.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २६.१.२०११)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, January 27, 2011
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