"बेटा मंग्तु अब मैं एक सुख्याँ डाळा का सामान छौं. मैं आज छौं भोळ कू क्वी पता निछ. अब घौर कू सारू बोझ त्वै फर ही छ." पिता दयाल सिंह ने मंग्तु को घर से जाते वक्त समझाया. आज मंग्तु रोजगार की तलाश में देहरादून जा रहा था. गाँव से एक घंटे की दूरी पैदल तय करके उसने जामणीखाल से आठ बजे की बस ऋषिकेश के लिए पकड़ी. मंग्तु बस में खिड़की वाली सीट पर बैठकर बस से पीछे की ओर सरकते गौं, पुंगड़े और पहाडों को एक टक्क निहार रहा था. उसे लग रहा था जैसे पहाड़ पर पेड़ आज उसको बस में बैठा देखने को उतावले हो रहे हों. गाड़ी देवप्रयाग की ओर उतरती घुंग्याट और प्वां-प्वां करती सरपट भागी जा रही थी. मंग्तु के मन में घर से दूर घर परिवार से दूर जाने की उदासी साफ़ झलक रही थी.
मंग्तु कल्पना में डूबा अपनी सीट पर अलसाया हुआ बैठा था. गाड़ी जब देवप्रयाग पहुंची तो ड्राईवर ने गाड़ी रोकी. मंग्तु अलकनन्दा, भागीरथी का संगम और रघुनाथ मंदिर निहारने लगा. वेग से बहती भागीरथी और अलकनन्दा की खामोशी, देवप्रयाग का विहंगम दृश्य सब कुछ देखकर मंग्तु का मन जस का तस था. जबकि इस प्रथम प्रयाग की खूबसूरती देखने यात्री दूर देश प्रदेशों से आते हैं.
गाड़ी फिर घुंग्याट और प्वां-प्वां करती ऋषिकेश की तरफ चढाई चढ़ने लगी. बस में बैठि सवारी झपकी लिए अंदाज में मोड़ों पर इधर उधर हिल रही थी. कंडक्टर ने अपना हिसाब किताब लगाया और ड्राईवर के पास जाकर बीड़ी सुलगाकर ड्राईवर को भी देकर पीनें लगा. मंग्तु उनकी जलती बीड़ी के धुँए की ओर एक टक्क देख रहा था. अचानक! उसकी नजर बस पर लिखे वाक्य "अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" पर पड़ी. वो सोचना लगा, अगर रोजगार अपने घर की तरफ मिल जाता तो आज क्यों दर दर भटकने के लिए घर से दूर जाता.
"अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" भागती बस के परिपेक्ष में लिखा था. बस अगर खड़े खड़े आय कर ले तो उसे सम्पूर्ण उत्तराखंड में बेबस हो क्यों भागना पड़ता. यही मंग्तु भी सोच रहा था. ड्राईवर ने गाड़ी रोकी, स्टेशन था तीन धारा. तीन धारा कुछ वर्षों से प्रसिद्ध हुआ है. पहले आती जाती सभी गाडियां व्यासी ही रूकती थी. व्यासी के छोले प्रसिद्ध थे, जो व्यासी रुके वो व्यासी के छोले न खाए कैसे हो सकता है. तीन धारा जैसे की नाम से पता चलता है वहां पर "छोया ढुंग्यौं का पाणी है". खाना खा लो....खाना खा लो.... गाड़ी बीस मिनट बाद जायेगी. मंग्तु ने तीन धारे का पानी पिया और होटल में चाय के साथ "ब्वै का हाथ की" तेल भीगी रोटी खाई.
ड्राईवर ने बस का हार्न बजाया, सभी यात्री बस में बैठ गए और गाड़ी फिर अपनी मस्तानी चाल में साकनीधार की तरफ घुंग्याट और प्वां-प्वां करती, काला धुआं उगलती अपनी मंजिल ऋषिकेश की ओर चलने लगी. कहीं घुगुती बासती, कोई पक्षी हे कीडू़ बोलता और तोता घाटी में पेडों पर बैठे फुदकते बड़े बड़े लंगूर, बांदर, दूर से दिखती लकीरनुमा गँगा, ये सब कुछ दिख रहा था बस से चलचित्र की तरह. मंग्तु मन में खोया अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता जा रहा था.
बस ऋषिकेश पंहुची मंग्तु ने अपना झोला उठाया और देहरादून की बस में बैठ गया. अब बस से बड़े पहाड़ उत्तर दिशा की तरफ ही नजर आ रहे थे. दून घाटी की तरफ जाती बस से कहीं घने जंगल, टेहरी डाम से खींची विशालकाय ट्रांस्मिसन लाइन, पहाड़ जैसे लोग भी नजर आ रहे थे. लगभग दो बजे मंग्तु देहरादून रिस्पना पुल पर बस से उतर कर धरमपुर अपने गाँव के महिपाल के पास पहुंचा.
सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
5.6.2009
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, January 18, 2011
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