करूणा में निकलते हैं,
जब प्याज काटो,
तब भी निकलते हैं,
लेकिन!
आजकल निकल रहे हैं,
महंगाई के कारण.
महंगा हुआ प्याज,
खाने का अनाज,
घर का चूल्हा कैसे जले?
सोच रही गृहणियाँ आज.
कौन लगाएगा लगाम,
बढ़ रही है महंगाई,
बेदर्द हो गए,
लगाम लगाने वाले,
कर रहे बेरूखाई.
हास्य कवि शर्मा जी,
कह रहे हैं,
प्याज खरीदोगे ही नहीं,
तो कैसे निकलेंगे आंसू.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित(१५.१.२०११)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाश हेतु अनुमति लेना अनिवार्य है)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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