पंखुड़ी फैली फूल
खिल्दु,
सबका मन कू प्यारु,
गौं का मनखि भला
लग्दा,
बिगळेक ह्वे जान्दा
न्यारु......
जन फूल की पंखुड़ी फैलिक,
फिर एक नि ह्वोन्दि,
बिग्ळ्यां गौं का
मनखौं की,
गति या हि
बतौन्दि.....
ह्वोणि खाणी का
खातिर,
हम जख भी रन्दा छौं,
संस्कृति अपणि भलि
लग्दि,
मन मा बस्दु प्यारु
गौं....
गौं मुल्क प्यारु
लग्दु,
ह्वे सकु त आवा जावा,
कै भी बाना अयुं
चैन्दु,
गौं तैं पीठ न
लगावा.....
गौं मा जब जब
ह्वोन्दु छ,
जब क्वी शुभ काज,
मौका मिल्दु मिन्न
कू,
कठ्ठा ह्वोन्दु
समाज......
दिशा ध्याणि भी मैत
औन्दि,
ऊंका मन मा रन्दु
ऊलार,
गौं मा कौथिग सी लगि
जान्दु,
ह्वे जान्दु खुशी कू
त्यौहार.....
राजि रौला सब्बि
गंवाड़्या,
अपड़ा गौं औला जौला,
पुराणौं की सुंदर
संस्कृति,
मन सी अग्नै
बढ़ौला......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा “जिज्ञासू”, 18/7/2017, नौसा बागी, चंद्रवदनी, टिहरी
गढ़वाळ। प्रवास: नई दिल्ली
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