अयुं होलु हमारा मुल्क,
बौळ्या बणिक,
छयुं होलु डाँडी-काँठ्यौं मा,
होलि ब्वै बाटु हेन्नि,
कब आलु नौनु मेरु,
खेल कौथिग आला,
फ्योंलि, बुरांश का फूल,
वैका मयाळु मन तैं,
मुल-मुल हैंसिक रिझाला.
बौळ्या बसंत की बयार,
हेरि-हेरिक मन मा,
पैदा होन्दु छ,
मुल्क का मनख्यौं का,
मयाळु मन मा ऊलार.
पय्याँ-आरू होला फूल्याँ,
पाख्यौं मा होलि हैंसणि,
फ्योंलि मुल-मुल,
डाँडी-काँठ्यौं की होलि,
मुंड मा पैरीं,
ह्यूं अर हर्याळि,
होलि ब्वै बैठीं छज्जा मा,
हमारी प्यारी डिंडाळि,
खुदेड़ ऋतु "बसंत" मा
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १६.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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