(मेरी हिंदी में लिखी "देवभूमि तेरा दर्द" कविता का प्रिय पाठकों के लिए गढ़वाली अनुवाद)
तिस्वाळा छन गौं का धारा,
धौळी छन पर तिस्वाळा लोग,
कनुकै बुझली पर्वतजन की तीस?
देखा कनु छ संयोग.
प्राकृतिक संसाधन भौत छन,
मनमोहक प्रकृति कू सृंगार,
पलायन करिक चलिगिन पर्वतजन,
जख मिलि ऊँ तैं रोजगार.
रंग बिरंगा फूल खिल्दा
जंगळु मा पोथला करदा किब्लाट,
वीरानी छाणी छ गौं मा,
अब नि होन्दु मनख्यौं कू खिगचाट.
जंगळ जू मंगलमय छन,
बणांग सी भस्म होन्दा हर साल,
कथगा बण का जीव मरी जाँदा,
आज छ देखा एक सवाल.
पुंगड़ा पाटळा बंजेण लग्यां छन,
कैन लगौण अब ऊँ फर हौळ,
हळ्या अब खोजिक नि मिल्दा,
मन मा छ अब एक ही झौळ.
पशुधन आज पहाड़ कू,
होण लग्युं छ आज दुर्लभ,
छाँछ, नौण खोजिक नि मिल्दी,
घर्या घ्यू नि मिल्दु अब.
ढोल दमौं खामोश छन,
ढोली किलै बजौ वे आज,
परिवार कू पेट कनुकै पाळु,
त्रिस्कार कनु पर्वतीय समाज.
धौळी बाँध बणैक बाँध्याल्यन,
गाय माता आज दियालिन खोल,
देवभूमि की परंपरा निछ,
हे मनख्यौं कनु कर्याली मोळ.
हे पर्वतजन अब चिंतन करा,
राज्य अपणु अपणि छ सरकार ,
"देवभूमि तेरू दर्द" बढदु ही जाणु
सुपिना सबका नि ह्वेन साकार.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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