देखा हे प्यारा भै बन्धु,
हमारा मुल्क प्यारा पहाड़,
कामदेव कू पुत्र बसंत,
जख छन प्यारी डांडी-काँठी,
खुदेड़ ऋतु बसंत मा,
सब जगा आज छयुं छ.
बुराँश बणाँग लगौण लग्युं,
फ्योंलि तैं सतौण लग्युं,
मेरु रूप त्वैसी सी न्यारू,
शिवशंकर भोला तैं प्यारू,
ऊँचा डाँडौं घणा बणु मा,
मुल-मुल हैंसण लग्युं छ.
ऋतु बसंत जब-जब औन्दि,
सब्बि उत्तराखंड्यौं तैं,
जन्मभूमि रैबार छ देन्दी,
मैमु आवा ऋतु बसंत मा,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
कुतग्याळि सी लगौन्दी.
हैंसणा होला फ्योंलि,बुराँश,
गौं का न्योड़ु फुल्याँ लयाड़ा,
अनुभूति व्यक्त कन्न लग्युं,
कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा,
किलैकि मेरा कवि मन मा,
खुदेड़ ऋतु बसंत छयुं छ,
मन पँछी अजग्याल मेरु,
प्यारा उत्तराखंड गयुं छ.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 24.2.2011
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Friday, February 25, 2011
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