कविमन मन मा आज किलै,
कुतग्याळि सी लगणि छन,
तेरी याद आज औणि छ,
तेरी गोद मा बित्याँ दिनु की,
मन मा बसिं याद,
आज भौत सतौणि छ.....
हम मनखी ह्वैक त्वैसी दूर,
बुरांश, फ्योंलि का बड़ा भाग छन,
मुल-मुल होला त्वैमु हैंसणा,
ऊदास होन्दु हमारू मयाळु मन.
जिंदगी ज्यू जिबाळ सी,
अयुं होलु त्वैमु बाळु बसंत,
कनु छुटि प्यारू साथ तेरु,
दूर परदेश मा रैबार न रंत.
खुद भी लगदी तेरी सब्यौं,
जू दूर देश त्वैसी छन,
जन्मभूमि छैं प्यारी हमारी,
ऊदास "जिज्ञासु" कू कवि मन.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.२.२०११)
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गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, February 24, 2011
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