जिन्दगी मा,
एक हादसा ह्वै,
कवि सम्मलेन मा,
एक कवि मित्रजिन,
गढवाळि कविता सुणाई,
सुणौन्दि बग्त ऊँ सनै,
कविता की पात्र,
जीवन संगिनी की याद आई.
ससुराड़ी बिटि,
जब मेरी बारात पैटी ,
मैं पालिंग मा बैठ्युं थौ,
वा डोला मा बैठिक,
क्या बोन्न वे दिन,
जोर-जोर करिक लराई,
मैकु वीं फर वे दिन,
दया बिल्कुल नि आई.
कविता पाठ जब,
थोड़ा अग्वाड़ि बढि,
बल वा वे दिन बिटि,
सदानि हैंसणी छ,
जिन्दगी भर मैकु,
सेळु का लप्पा की तरौं,
मेरु बर्गबान करिक,
दिन रात बटणी छ.
सुपिनु थौ मेरु,
ब्यो का बाद,
सदानि सुखि रौलु,
भग्यानि का हाथ की,
नखरी भलि खौलु,
पर आज यनु लगणु छ,
हादसा ह्वै,
वे दिन "मैं दगड़ि",
आज भोगणु छौं.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ११.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, February 17, 2011
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