बौळ्या बणै देन्दु छ,
जब औन्दि छ बयार,
ऋतु बसंत की,
हैंसदु छ हिमालय देखि,
बाँज का बण का बीच,
ललेंगु मनमोहक ह्वैक,
पैदा होन्दु ऊलार,
हेरि हेरिक मन मा,
हे बुरांश,
तेरु प्यारू रंग रूप.
पहाड़ का मनखी,
याद करदा छन त्वै,
सुखि-दुखि जख भी,
रन्दा छन त्वैसी दूर,
कसक पैदा होन्दि छ,
सब्यौं का मन मा,
किलैकि तू,
पहाड़ की पछाण छैं,
पहाड़ कू पराण छैं,
भोलेनाथ तैं प्यारू,
आंछरी भी हेरदि होलि त्वै,
प्यारा गढ़वाळ अर कुमाऊँ,
हमारा मुल्क कू,
रंगीलु "बुरांश" छैं.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: १३.२.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/board,3.0.html
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Thursday, February 24, 2011
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