रोजगार की तलाश मा,
बद्री-केदार यात्रा,
धेल्ला पैसा का खातिर,
डंडी-कंडी बोकण गैन,
बल्द भैंसौं का बैपार मा,
माळ नागपुर भी गैन,
पर पहाड़ छोड़िक,
उबरि कतै नि गैन....
नौकरी कन्न गैन,
अंग्रेजु का राज मा,
देश की फौज मा,
विश्व युद्ध मा,
आज़ाद हिंद फौज मा,
जिंदगी का अंतिम दिन,
पहाड़ मा बितैन,
प्रकृति का दगड़ा,
मौज मा रैन......
लाहौर तक भी गैन,
देश विभाजन सी पैलि,
दिल्ली, देरादूण, मसूरी गैन,
रोजगार का खातिर,
पर गौं बौड़़िक,
औन्दा जान्दा रैन....
जब शिक्षित ह्वैक,
देश विदेश तक गैन,
तौन रूप्या खूब कमैन,
शहर की संस्कृति मा,
क्या बोन्न? यना रम्यन,
घौर बौड़ा कम हि ह्वैन,
देखा देखि पहाड़ छोड़िक,
दिल्ली, देरादूण,
कुजाणि कख कख,
प्यारा गौं पहाड़ सी दूर,
बाल बच्चौं समेत,
पलायन कू पाप करिक,
सदानि कू बसिग्यन,
"मेरा गौं का बैख".
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(रचना: स्वरचित एवं प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित )
दिनांक: १५.३.२०१२
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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