हमारा मयाळु मन मा,
कळकळि सी पैदा करदि,
तब चून्दा छन आंसू,
आँखौं बिटि तप-तप....
पैलि पिड़ा,
खत्म होन्दि संस्कृति,
लुप्त होन्दि बोली-भाषा..
दूसरी पिड़ा,
बजेंदा घर,गौं अर पुंगड़़ा,
द्वार मोरू फर लग्यां ताळा..
तीसरी पिड़ा,
जथगा जल्दी हो,
पहाड़ त्याग्दा पहाड़ी,
कुजाणि केकी तलाश मा?
चौथी पिड़ा,
रौंत्याळि डांडी कांठी छोड़ि,
हे पहाड़ त्वे त्यागि,
बिस्वा,नाळी जमीन का खातिर,
देरादूण फुंड डबखदा पहाड़ी..
पांचवीं पिड़ा,
देळी मा निराश बैठ्याँ,
ब्वे-बाब जग्वाळ मा,
कब आलु हमारू नौनु,
बाल बच्चौं समेत,
हमारा स्वर्ग जाण सी पैलि,
अंतिम दर्शन का खातिर,
हमारा पास,
ज्व छ आखिरी आस....
"पहाड़ तेरी पिड़ा"
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु",
गढ़वाळि कवि का मन मा,
कळकळि अर पिड़ा,
पैदा करदि छ,
जुग राजि रै तू,
तेरा सच्चा दगड़्या,
बुरांश अर फ्योंलि हि छन...
रचना: "दस्तक" के पलायन विशेषांक के लिए रचित एवं प्रेषित....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २२.३.२०१२
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
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