पहाड़ में भी रहता था,
प्रवास में भी रहता हूँ,
सुबह से शाम तक,
नौकरी की आड़ में,
उलझा उलझा रहता हूँ,
उलझनों के झाड़ में,
मिल जाये मुझे इतना,
जीवन मेरा सुधर जाए,
रहता हूँ ताड़ में,
सोचता हूँ,
प्रवास से खाली हाथ,
क्या बुढ़ापा लेकर जाऊंगा,
अपने प्यारे पहाड़ में,
कहता है पहाड़ मुझे,
कब तक रहेगा,
हे ! कवि "जिज्ञासु" तू,
मुझ से दूर दूर,
नहीं निहारेगा सौंदर्य मेरा,
लिखता ही रहेगा,
कविताएँ मुझ पर,
और उलझा ही रहेगा,
रोटी के जुगाड़ में...
22.5.12
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