“पाश्चात्य प्रेम में”
पत्थर बनते जा रहे हैं हम,
जहाँ एक दूजे के लिए,
सार्थकता है समय की,
लेकिन,
सार्थक नहीं रहे रिश्ते,
और भावनाएं,
पाश्चात्य संस्कृति के,
अनुसरण के कारण.
जहाँ एक दूजे के लिए,
सार्थकता है समय की,
लेकिन,
सार्थक नहीं रहे रिश्ते,
और भावनाएं,
पाश्चात्य संस्कृति के,
अनुसरण के कारण.
पाश्चात्य संस्कृति है ही ऐसी,
जिसका स्वाभाव है,
अकेला चलो,
कुछ न कहो,
वक्त नहीं,
भौतिक सुख भोगो,
संवेदनहीन बनो,
अगर ये सच नहीं,
तो ढूँढो और देखो,
वर्तमान में,
अतीत से कितनी दूर,
चल चुके हम,
अपनी संस्कृति को छोड़कर.
जिसका स्वाभाव है,
अकेला चलो,
कुछ न कहो,
वक्त नहीं,
भौतिक सुख भोगो,
संवेदनहीन बनो,
अगर ये सच नहीं,
तो ढूँढो और देखो,
वर्तमान में,
अतीत से कितनी दूर,
चल चुके हम,
अपनी संस्कृति को छोड़कर.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
9.1.2009
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
9.1.2009
No comments:
Post a Comment