Thursday, March 31, 2011

"लूटनी है लंका"

धोनी के धुरंदरों ने,
वर्ड कप-२०११ जीतकर,
करना है धूम धड़ाका,
बजाना है डंका,
ऐसी है आस,
हर हिन्दुस्तानी के,
मन मस्तिष्क में.

जरूर जीतेंगे,
मंजिल पास है,
क्या करवट लेगा,
समय चक्र उस दिन,
फैसला शायद,
प्रभु के हाथ है.

लेकिन! इरादे उनके भी,
कम नहीं होंगे,
हिंदुस्तान की धरती पर,
हिंदुस्तान को हराना,
परचम लहराना,
कह रहे होंगे वो,
अगर "लूटनी है लंका"?
हमसे भिड़कर लूटो.
(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ३१.३.११)

Monday, March 14, 2011

"दूर देश कू दर्द"

ग्यारह मार्च द्वी हजार ग्यारह,
जै दिन,
ऊगदा सूरज का देश,
जापान मा,
भूकंप अर सुनामिन,
तबाह! करि सब्बि धाणी,
मनख्यौं का मन मा,
भौत दुःख अर दर्द पैदा ह्वै,
अपणा देश भारत मा,
खास करिक उत्तराखण्ड मा,
किलैकि, वख छन हमारा,
भौत सारा प्यारा उत्तराखंडी,
जू रोजगार करदा छन,
दूर देश जापान मा,
अर भौत प्यार करदा छन,
अपणा जन्म स्थान,
पराणु सी प्यारा उत्तराखण्ड तैं.

लगिं थै टक्क सब्यौं की,
लंगि संग्यौं की,
कै हाल मा होला,
प्यारा प्रवासी उत्तराखंडी,
जौंका कारण,
"दूर देश का दर्द" सी,
हमारू भिछ रिश्ता,
किलैकि, मिनी जापान,
घनसाली, टिहरी का नजिक छ,
बल हमारा उत्तराखण्ड मा.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
"सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित"
दिनांक: १२.३.२०११
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

Wednesday, March 9, 2011

"उत्तराखण्ड की लोक भाषा"

जै मनखि सनै निछ,
अपणि बोली भाषा कू ज्ञान,
बोली भाषा फर अभिमान,
सच मा ढुंगा का सामान,
अपणि बोली भाषा बिना,
क्या छ मनखि की पछाण?

कथगा प्यारी छन,
उत्तराखण्ड की लोक भाषा,
जुग-जुग तक फलु फूल्वन,
हर उत्तराखंडी की अभिलाषा.

प्रकृति, शैल-शिखर सी ओत प्रोत,
होन्दा छन उत्तराखंडी लोक गीत,
मन-भावन लगदा अपणि भाषा का,
जमीन सी जुड़याँ प्यारा गढ़वाळी,
कुमाऊनी, भोटिया, जौनसारी गीत.

भाषा का माध्यम सी होन्दु छ,
साहित्य अर संस्कृति कू सृंगार,
दिखेन्दि छ झलक अतीत की,
जुछ आज अनमोल उपहार.

अतीत सी कवि अर लेखक,
देवभूमि उत्तराखण्ड का,
कन्ना छन लोक भाषाओं कू,
अपणि रचनाओं मा सम्मान,
जागा! हे उत्तराखंडी भै बन्धो,
लोक भाषा छन हमारी धरोहर,
समाज अर संस्कृति की पछाण.

दर्द दिल मा भाषा का प्रति,
आज छ समय की पुकार,
प्रवासी उत्तराखंडी गौर करा,
हाथ तुमारा प्रचार अर प्रसार.

लोक भाषा फललि फूललि,
प्रसार कू संकल्प होलु साकार,
सार्थक होलु समाज कू प्रयास,
जरूर रंग ल्ह्यालु भविष्य मा,
अस्तित्व कायम रलु,
कवि "जिज्ञासु" की यछ आस.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.३.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
(श्री दीपक बेंजवाल जी ग्राम: बैंजी, चमोली का अनुरोध फर "दस्तक" पत्रिका का लोक भाषा विशेषांक का खातिर रचित)
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.120.html

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