Thursday, January 27, 2011

"सोच्युं"

सच नि होन्दु,
फिर भि सोच्दु छ इंसान,
पर अपणा मन की,
करदु छ भगवान.

एक दिन मैन सोचि,
भोळ छुट्टी का दिन,
२२.१.२०१० शनिवार कू,
आराम करलु मैं,
पर सुबेर ६.२० फर,
नौना कू फोन आई,
"पापा किसी ट्रक ने,
मूलचंद के सामने,
मुझे टक्कर मार दी है",
आप जथगा जल्दी हो,
झट-पट आवा,
यथगा सुणिक मेरु,
ह्वैगि मोळ माटु,
आँखौं मा ह्वै अँधेरू,
नि सूझि कुछ बाटु.

कुल देवतों की कृपा सी,
नौना का गौणा फर,
सिर्फ लगि भारी चोट,
अनर्थ होण सी बचि,
माँ चन्द्रबदनी की कृपा सी,
मेरा मित्रों, आपकी दुआ लगि,
देवभूमि उत्तराखंड की,
प्यारी जन्मभूमि की,
कर्दौं मन सी वंदना.

मेरा कविमन तैं,
सुख दुःख यथगा ही मिलु,
जथगा मैं सहन करि सकौं,
हे बद्रीविशाल,
सोच्युं आपकु प्रभु,
सदा सच हो,
पर अनर्थ न हो,
मेरु आपसी छ सवाल.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २६.१.२०११)

Tuesday, January 18, 2011

"मंग्तु"

"बेटा मंग्तु अब मैं एक सुख्याँ डाळा का सामान छौं. मैं आज छौं भोळ कू क्वी पता निछ. अब घौर कू सारू बोझ त्वै फर ही छ." पिता दयाल सिंह ने मंग्तु को घर से जाते वक्त समझाया. आज मंग्तु रोजगार की तलाश में देहरादून जा रहा था. गाँव से एक घंटे की दूरी पैदल तय करके उसने जामणीखाल से आठ बजे की बस ऋषिकेश के लिए पकड़ी. मंग्तु बस में खिड़की वाली सीट पर बैठकर बस से पीछे की ओर सरकते गौं, पुंगड़े और पहाडों को एक टक्क निहार रहा था. उसे लग रहा था जैसे पहाड़ पर पेड़ आज उसको बस में बैठा देखने को उतावले हो रहे हों. गाड़ी देवप्रयाग की ओर उतरती घुंग्याट और प्वां-प्वां करती सरपट भागी जा रही थी. मंग्तु के मन में घर से दूर घर परिवार से दूर जाने की उदासी साफ़ झलक रही थी.

मंग्तु कल्पना में डूबा अपनी सीट पर अलसाया हुआ बैठा था. गाड़ी जब देवप्रयाग पहुंची तो ड्राईवर ने गाड़ी रोकी. मंग्तु अलकनन्दा, भागीरथी का संगम और रघुनाथ मंदिर निहारने लगा. वेग से बहती भागीरथी और अलकनन्दा की खामोशी, देवप्रयाग का विहंगम दृश्य सब कुछ देखकर मंग्तु का मन जस का तस था. जबकि इस प्रथम प्रयाग की खूबसूरती देखने यात्री दूर देश प्रदेशों से आते हैं.

गाड़ी फिर घुंग्याट और प्वां-प्वां करती ऋषिकेश की तरफ चढाई चढ़ने लगी. बस में बैठि सवारी झपकी लिए अंदाज में मोड़ों पर इधर उधर हिल रही थी. कंडक्टर ने अपना हिसाब किताब लगाया और ड्राईवर के पास जाकर बीड़ी सुलगाकर ड्राईवर को भी देकर पीनें लगा. मंग्तु उनकी जलती बीड़ी के धुँए की ओर एक टक्क देख रहा था. अचानक! उसकी नजर बस पर लिखे वाक्य "अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" पर पड़ी. वो सोचना लगा, अगर रोजगार अपने घर की तरफ मिल जाता तो आज क्यों दर दर भटकने के लिए घर से दूर जाता.

"अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" भागती बस के परिपेक्ष में लिखा था. बस अगर खड़े खड़े आय कर ले तो उसे सम्पूर्ण उत्तराखंड में बेबस हो क्यों भागना पड़ता. यही मंग्तु भी सोच रहा था. ड्राईवर ने गाड़ी रोकी, स्टेशन था तीन धारा. तीन धारा कुछ वर्षों से प्रसिद्ध हुआ है. पहले आती जाती सभी गाडियां व्यासी ही रूकती थी. व्यासी के छोले प्रसिद्ध थे, जो व्यासी रुके वो व्यासी के छोले न खाए कैसे हो सकता है. तीन धारा जैसे की नाम से पता चलता है वहां पर "छोया ढुंग्यौं का पाणी है". खाना खा लो....खाना खा लो.... गाड़ी बीस मिनट बाद जायेगी. मंग्तु ने तीन धारे का पानी पिया और होटल में चाय के साथ "ब्वै का हाथ की" तेल भीगी रोटी खाई.

ड्राईवर ने बस का हार्न बजाया, सभी यात्री बस में बैठ गए और गाड़ी फिर अपनी मस्तानी चाल में साकनीधार की तरफ घुंग्याट और प्वां-प्वां करती, काला धुआं उगलती अपनी मंजिल ऋषिकेश की ओर चलने लगी. कहीं घुगुती बासती, कोई पक्षी हे कीडू़ बोलता और तोता घाटी में पेडों पर बैठे फुदकते बड़े बड़े लंगूर, बांदर, दूर से दिखती लकीरनुमा गँगा, ये सब कुछ दिख रहा था बस से चलचित्र की तरह. मंग्तु मन में खोया अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता जा रहा था.

बस ऋषिकेश पंहुची मंग्तु ने अपना झोला उठाया और देहरादून की बस में बैठ गया. अब बस से बड़े पहाड़ उत्तर दिशा की तरफ ही नजर आ रहे थे. दून घाटी की तरफ जाती बस से कहीं घने जंगल, टेहरी डाम से खींची विशालकाय ट्रांस्मिसन लाइन, पहाड़ जैसे लोग भी नजर आ रहे थे. लगभग दो बजे मंग्तु देहरादून रिस्पना पुल पर बस से उतर कर धरमपुर अपने गाँव के महिपाल के पास पहुंचा.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
5.6.2009

Monday, January 17, 2011

झगुल्या

देवभूमि उत्तराखंड के एक गाँव में शेर सिंह और उसकी पत्नी बैशाखी हमेशा एक चिंता में खोये रहते थे. शादी हए बहुत साल हो गए पर औलाद की प्राप्ति नहीं हुई. शेर सिंह की माँ धार्मिक विचारों की थी. बेटे की कोई संतान अब तक न होने के कारण बहुत उदास और दुखी रहती थी. कामना करती "हे कुल देवतों दैणा होवा, आज तक मैकु नाती नतणौं कू मुख देखणु नसीब नि ह्वै सकि". उसके साथ की गाँव की महिलाएं "नाती नतणौं" का सुख देख रही थी.

समय बीतता गया, एक दिन शेर की माँ चैता को चन्द्रबदनी मंदिर जाने का मौका मिला. घर से नहा धोकर उसने भगवती माँ चन्द्रबदनी के लिए अग्याल रखी. गाँव की बहुत सी महिलाएं बच्चे और पुरूष माँ चन्द्रबदनी के दर्शनों के लिए जा रहे थे. चैता अपनी लाठी के सहारे ऊकाळ का रास्ता चढ़ने लगी. उसकी आँखों में आज एक चमक थी. मन में सोच रही थी आज मैं भगवती से अपने शेर सिंह के लिए संतान की कामना करूंगी.

चैता जब चन्द्रबदनी परिसर में जब पहुँची तो उसने दोनों हाथ जोड़कर दूर से भगवती को मन ही मन याद किया. अष्टमी होने के कारण मंदिर में बहुत भीड़ थी. चैता किसी तरह आगे बढ़ रही थी. मंदिर के अन्दर पंहुंच कर चैता ने भेंट अर्पित की और माँ से मन्नत मांगी. दर्शन करने के बाद सथियौं के साथ चैता घर के लिए वापस लौटी. चारौं और उसने नजर दौडाई और कहने लगी "आज ऐग्यौं माँ मैं, अब कुजाणि अयेन्दु छ की ना".

बहुत दिन गुजर जाने के बाद चैता को वह ख़ुशी जो वह चाहती थी सुनने को मिली. वह अपनी ब्वारी का खूब ख्याल रखने लगी. बेटा शेर सिंह भी बहुत खुश था. अपनी माँ के चेहरे पर रौनक देखकर वह मन ही मन खुश रहने लगा. चैता ने एक दिन शेर सिंह से कहा, बेटा तू एक मीटर पीला कपड़ा ले आना. शेर सिंह कैसे मन कर सकता था. उसने अपनी माँ से कहा मैं आज ही ला देता हूँ. शेर सिंह जब दुकान से एक मीटर पीला कपड़ा लाया तो चैता ने सुई धागे से एक झगुली सिलना शुरू किया. मन में सोचने लगी अगर बहु का लड़का हुआ तो उसका नाम "झगुल्या" रखूँगी.

चैता ने झगुली सिलकर अपने लकड़ी के संदूक में रखी थी. दिन माह गुजरते वह समय आ गया जिसकी चैता को इंतजारी थी. बहु बैसाखी ने पेट दर्द बताया तो चैता की आँखों में चमक और चिंता के भाव आने लगे. गाँव की दाई रणजोरी को तुंरत बुलाया गया. रणजोरी कहने लगी "दीदी चैता तू चिंता न कर, ब्वारी कू ज्यूजान ठीक तरौं सी छूटी जालु". शेर सिंह तिबारी में बैठा अपना हुक्का गुड़ गुडा रहा था. उसे इंतज़ार थी कब पत्नी का प्रसव हो जाए. वह इन्तजार में ही था, बच्चे के रोने की आवाज आने लगी. रणजोरी ने चैता को बधाई दी और कहा "दीदी तेरी इच्छा पूरी करियाली माँ चन्द्रबदनी न...नाती छ तेरु होयुं" . चैता मन ही मन माँ चन्द्रबदनी का सुमिरन करने लगी और कहने लगी "माँ सुण्यालि त्वैन मेरी पुकार". चैता के मन में बिजली सी दौड़ गई और अपना बुढापा भूलकर प्रफुल्लित होकर इधर उधर जाने लगी.

पंचोला का दिन जब आया तो चैता ने नाती को झगुलि पहनाई और कहा "येकु नौं मैं "झगुल्या" रखणु छौ". हे भगवती राजि खुशि राखि मेरा नाती तैं". चैता की दिन रात खुश रहने लगी. गौं का लोग रौ रिश्तेदार सब्बि चैता तैं बधाई देण का खातिर ऐन. जब "झगुल्या" साल भर हो गया तो चैता ने शेर सिंह को चन्द्रबदनी का पाठ और बड़ा सा चाँदी का छत्र चढाने के लिए कहा. शेर सिंह माँ की की इच्छा के अनुसार चाँदी का छत्र लाया और पाठ करवाकर चन्द्रबदनी माँ के मंदिर यात्रा ले गया. सारे गाँव को उसने दावत दी और औजि को बुलाकर मंडाण लगवाया.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
10.7.2009

Thursday, January 13, 2011

"आँखों से आंसू"

करूणा में निकलते हैं,
जब प्याज काटो,
तब भी निकलते हैं,
लेकिन!
आजकल निकल रहे हैं,
महंगाई के कारण.

महंगा हुआ प्याज,
खाने का अनाज,
घर का चूल्हा कैसे जले?
सोच रही गृहणियाँ आज.

कौन लगाएगा लगाम,
बढ़ रही है महंगाई,
बेदर्द हो गए,
लगाम लगाने वाले,
कर रहे बेरूखाई.

हास्य कवि शर्मा जी,
कह रहे हैं,
प्याज खरीदोगे ही नहीं,
तो कैसे निकलेंगे आंसू.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित(१५.१.२०११)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाश हेतु अनुमति लेना अनिवार्य है)

Tuesday, January 11, 2011

"दिनमानि कू ब्यौ"

बग्त बदलि मन भी,
बदलिगी सब्बि धाणि,
प्यारा पहाड़ मा अब,
दिन-दिन की बारात जाणी,
सोचा हे सब्बि, किलै यनु ह्वै.......

ये जमाना मा ब्योलि कू बुबाजी,
डरदु छ मन मा भारी,
दिनमानी की बारात ल्ह्यावा,
समधि जी, कृपा होलि तुमारी,
किलैकि, अजग्यान का बाराति,
अनुशासनहीन होन्दा छन....

एक जगा गै थै,
ब्याखुनि की बारात,
दरोळा रंगमता पौणौन,
खूब मचाई ऊत्पात,
फिर त क्या थौ,
खूब मचि मारपीट,
चलिन ढुंगा डौळा,
अर कूड़ै की पठाळि,
ब्यौलि का बुबाजिन,
झट्ट उठाई थमाळि,
काटि द्यौलु आज सब्ब्यौं,
बणिगि विकराल,
घराति बरात्यौं का ह्वैन,
भौत बुरा हाल.....

घ्याळु मचि, रोवा पिट्टि,
सब्बि अफुमा बबरैन,
चकड़ीत बराति,
फट्ट फाळ मारी,
कखि दूर भागिगैन,
बुढया खाड्या शरीफ पौणौ की,
लोळि बल फूटिगैन,
हराम ह्वैगि पौणख,
सब्बि भूका रैन,
वे दिन बिटि प्रसिद्ध ह्वै ,
"दिनमानि कू ब्यौ"......

(अपने पहाड़ के श्री परासर गौड़ साहिब जी चिरपरिचित कवि, लेखक एवं फिल्मकार
ने भी एक बारात में मारपीट का अनुभव अपनी रचना में व्यक्त किया है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित(११.९.२००९)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाश हेतु अनुमति लेना अनिवार्य है)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)

Thursday, January 6, 2011

"कब आलु ऊ दिन"

जब तुमारा दगड़ा,
कखि ऊँचि धार ऐंच,
भ्वीं मा बैठिक,
लगौलु छ्वीं बात,
बचपन का बिगळ्याँ,
प्यारा दगड़्यौं की,
अपणा मुल्क का,
रौ रिवाज की,
रीत रसाण की,
जागर अर मंडाण की,
बाँज बुरांश की,
घुघती अर हिल्वांस की,
हिंवाळि डाँडी-काँठ्यौं,
सर-सर बगदि,
अलकनंदा भागीरथी की,
उत्तराखंड हिमालय की,
कुलदेवी मा चन्द्रबदनी,
सुरकंडा माता की.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ७.१.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
www.pahariforum.com

Wednesday, January 5, 2011

"ह्यून्द हमारा मुल्क"

होलि ठेणी लगणि,
हाथ खुट्टौं फर,
पड़्युं होलु ह्युं,
मसूरी,धनोल्टी,सुरकंडा,
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी,
चन्द्रकूट पर्वत,
जख बिटि होलु दिखेणु,
उत्तराखंड हिमालय.

ह्यून्द होलि छयिं,
ह्यून डांडी-काँठी,
चाँदी सी चमकणी,
खतलिंग,चौखम्भा, नंदाघूंटी,
गंगोत्री, पंचाचूली, त्रिशूली,
होलि मैतुड़ा अयिं,
प्यारी दीदी-भुलि.

प्यारा ब्वे बाबु मू,
जू होला कौम्पणा,
ढिक्याण का पेट,
होलि खुद बिसरौणी,
छकिक छ्वीं लगौणी,
होलि बाड़ी अर फाणु,
अपणा हाथुन बणौणि
ऊँ तैं खलौणी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ५.१.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
www.pahariforum.com

Monday, January 3, 2011

"म्यर उत्तराखंड "

प्रवासी उत्तराखंडी,
युवा एवं युवतियों का,
एक सामाजिक, सांस्कृतिक,
शैक्षिक और साहित्यिक मंच,
जिसने वार्षिकोत्सव-२०१० पर,
किया सम्मान,
लोक गायक गुमानी दा,
और चन्द्र सिंह राही जी का,
वो क्षण! मार्मिक था,
जब ९८ वर्ष के गुमानी दा,
मंच पर मौजूद थे.

राही जी का सन्देश था,
अपने बच्चों को,
गढ़वाली और कुमाऊनी भाषा,
ज्ञान जरूर कराएं,
जुड़े रहें पहाड़ की संस्कृति से,
आधुनिकता भी आपनाएँ,
लेकिन! घुन्ता-घुना-घुन,
जैसे विकृत पहाड़ी गीत,
गायककार बिल्कुल न गाएँ.

स्मारिका "बुरांश" का विमोचन,
"म्यर उत्तराखंड " का,
एक अनोखा प्रयास,
जीवित रहेगी संस्कृति,
हम कवि, लेखकों की,
जिसमें होती है आस.

मंच के अध्यक्ष,
प्रिय मोहन दा "ठेट पहाड़ी",
और सभी युवा एवं युवतियों का,
पहाड़ की संस्कृति के लिए,
भागीरथ प्रयास,
बढ़ते रहो अपने पथ पर,
सफल हो लक्ष्य प्राप्ति में,
कवि "जिज्ञासु" को आप में,
दिखती है अनोखी आस.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
("म्यर उत्तराखंड " वार्षिकोत्सव-२०१०,१-जनवरी-२०११,श्री सत्यसाईं इंटरनेशनल सेंटर (ऑडिटोरियम) लोधी रोड,नई दिल्ली )

मलेेथा की कूल