Wednesday, February 24, 2016

“उत्तराखंडी ढाबा”

उत्तराखंडी ढाबा”

सड़क किनारा देखि मैंन,
एक उत्तराखंडी ढाबा,
खाणौ खाणु वख मू बैठि,
एक विदेशी बाबा।

बोन्न लग्युं वू क्या मिलेगी,
कोदे की करारी रोट्टी,
देशी घी साथ में देना,
खूब बनाना मोटी।

ढाबा मालिक धन सिंह बोडान,
वे बाबा कु बोली,
अपने पहाड़ का शुद्ध घी है,
झट्ट पट डब्बा खोली।

बहुत ताकतवर होता है,
उत्तराखंड का कोदा,
तभी तो होता है,
उत्तराखंडी योद्धा।

वुड यु लाइक सर,
झंगोरा और झोळी,
एस प्लीज टेस्ट मी,
विदेशी बाबान बोली।

बड़ा प्रेम सी बाबान,
झंगोरू झोळी खाई,
हाव मच टेस्ट फुल,
वेन यनु बताई।

कल्पना मा देख्णु छौं मैं,
धन सिंह बोडा कू ढाबा,
कनु भग्यान वख मू बैठ्युं,
एक विदेशी बाबा।

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिज्ञाासू
१७.७.२००८ को रचित 

“मेरा प्यारा गाँव”

“मेरा प्यारा गाँव”

जब चला था इस शहर को, 
डगमगा रहे थे पावं,
उस दिन निराश हो रहा था,
मेरा प्यारा गाँव.

मैंने कहा मत हो निराश,
में लौट कर आऊंगा,
काम करूंगा कुछ में ऐसे,
तेरा मान बढाऊंगा.

निभा न सका में अपना वादा,
उलझता गया भंवर में,
मन कहता है लौट चलें अब,
क्या रखा इस शहर में.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू 
रचना: पुरष्कृत एवम प्रकाशित 
16.7.2008  

“मोळु दीदा कु ब्यो”

“मोळु दीदा कु ब्यो”

मोळु दीदा कु ब्यो छ आज,
ब्वै वेकी राग्र्याणि,
नौना नहोंण कु वक्त ह्वैगी,
बेटी ब्वारी ल्य्होंणी पांणी.

ओजणी शुभ मांगल लगाणी,
ओउजी बजौणा ढोल,
खोजा खोजि मचिं छ गौं मा, 
मोळु ह्वैगी गोळ.

ढैपुरा बैठी मोळु बिचारू,
स्वाळा पकोड़ा खाणु,
बोल्या बणिक बुबाजी वैकु,
मोळु मोळु भटयाणु.

बुबजी की बाच सुणिक मोळु,
सरक भ्वीं मा आई,
ब्योला बणैदि बामण दादा,
वैन यनु बताई.

ब्योला बणिक मोळु दीदान,
जब भात खाई,
पांणी का लोठ्या फर वैका,
दगड़यौन दारू मिलाई.

नशा मा मोळु बोन्न लग्युं छ,
आज केकु ब्यौ छ,
हाथ मा पकोड़ी पकड़ीक बोन्नु,
देखा हे दगड़यौ स्यो छ.

जगमोहन सिंह जयादा, जिग्यांसू 
११.७.२००८ को रचित 

“घत्त”

“घत्त”

धुर्पला कु द्वार टूटी,
भ्वीं मा पड़ी भत्त,
मरदु मरदु बचिगीयों मैं,
यनु आई घत्त,
यनु आई घत्त,यनु आई घत्त…..

मुख फ़रौ कू खाणों छोड़ी,
लोग ऐन झट्ट,
कनुकै बचें हे चुचा तू,
कनु आई घत्त,
कनु आई घत्त, कनु आई घत्त…..

मैन बताई अज्जों भी छ,
देव भूमि मा सत्त,
उन्की कृपा सी बचिग्यों मैं,
यनु आई घत्त,
यनु आई घत्त, यनु आई घत्त…

सच बोन्नी छें हे लठयाळा,
अज्जों भी छ सत्त,
भूलिग्यों हम धर्म कर्म,
कन्न लग्यां छौं खत्,
कन्न लग्यां छौं खत्, कन्न लग्यां छौं खत्….

भला बुरा भी ऐन मैमु,
ज्युकड़ी उन्की धक्क,
हे लठयाळा बचिगें तू,
जनु भी आई घत्त,
जनु भी आई घत्त,जनु भी आई घत्त….

टुटयाँ धुर्पला देखिक,
मेरा आँखा ह्वेन फट्ट,
कुल देवतों कू ख्याल मैकू,
तब आई झट्ट,
तब आई झट्ट,तब आई झट्ट….

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
७.९.२००७ को रचित
 

टिंचरी माई.....

टिंचरी माई
उत्तराखंड की, 
पहाड़ जैसी,
ठगुली देवी उर्फ़ दीपा,
जिसे जीवन भर,
उसकी जिंदगी ने ठगा.

दो वर्ष की उम्र में पिता को,
पाँच वर्ष की उम्र में माता को,
उन्नीस वर्ष की उम्र में,
पति और पुत्र को खोकर,
अंत में बनी इछागिरी माई,
नौ महीने चंडी घाट हरिद्वार में रही,
लेकिन उन्हें,
वहां की जिंदगी,
रास न आई.

पौडी में नशा विरोध करके,
टिंचरी की दुकान को,
चंडी रूप धारण करके,
आग लगाई,
उसके बाद उन्हें लोग कहने लगे,
“टिंचरी माई”

जगमोहन सिंह जायाड़ा, जिग्यांसू
१५.१२.२००८ को रचित

गौरा देवी.......

गौरा देवी.......
उत्तराखंड, जिल्ला चमोली,
रैणी है एक गांव,
“चिपको” का यहाँ जन्म हुआ,
धन्य है यह गांव.

माह जनवरी १९७४ की,
है ये बात,
साइमन कंपनी से २,४५१ पेड़ों को,
कटवा रहा था जंगलात.

रैणी महिला मंगलदल अध्यक्षा,
स्व॰ गौरा देवी ने,
साथियों के साथ मिलकर,
वृक्षों से चिपक कर,
यहाँ के जंगल को बचाया,
नहीं कटेगा वन हमारा,
“ये हमारे मायका हैं”,
वन ठेकेदार को भगाया.

वो जानती थी, तभी तो,
वृक्षों को बचाया,
प्रकृति का करो सरंक्षण,
“चिपको आन्दोलन” के�माध्यम से,
दुनियां को बताया.

कर्मठ हिमालय की बेटी,
स्वर्ग में हैं आज,
प्रकृति तथा पर्यावरण सरंक्षण करके,
कैसा कर गई काज.

जगमोहन सिंह जायाड़ा, जिग्यांसु
१९.१२.२००८ को रचित

“पहाड़”

 “पहाड़”
पहाड़ की पगडंडियों को,
निहारती मेरी कल्पना,
उतर आयी कविता बनकर,
मेरे सामने और बन गई,
कालजयी कविता,
प्यारे पहाड़ों पर.
समझते हैं लोग,
पहाड़ों को कठोर,
लेकिन पहाड़ों को पहचानों,
बहती हैं उनके दिल से दरिया,
जिनसे मिलकर बनती हैं,
जीवनदायिनी नदियाँ.
पहाड़ की पीठ पर,
बैठकर अहसास करो,
बहती हवा का,
झोंके के रूप में,
मंद मंद कभी तेज,
जो दे जाती है,
ठंडक हर किसी को.
निहारो चहुँ ओर,
हरियाली ही हरियाली,
कहीं हँसता हुआ हिमालय,
सतरंगी आसमान,
झूमते देवदार और चीड़,
दूर दिखती सुंदर नदियाँ.
सुनो प्रकृति का संगीत,
पक्षियों का कोलाहल,
देवालयों में बजती घंटियाँ,
घसेरियों के गीत,
और शैल संगीत.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२२.१२.२००८ 

“सदा सुहागन-देहरादून “

“सदा सुहागन-देहरादून “
नेता अफसरु की प्यारी,
प्रिय नगरी देहरादून,
पहाड़ पलायन की पिड़ान,
होण लग्युं छ सून.
चाणा छन सदा “सुहागन”,
राजधानी देरादोण,
कर्ता यी छन धर्ता यी छन,
गैरसैण कनु होण.
राज्य निर्माता आज अथक छन,
मन मा होयुं घंगतोळ,
मंत्री अफसर फेन्न लग्यां छन,
उम्मीदु  फर जोळ.
कलयुग की या रीत छ,
काका खांदा मोती,
करदा छन अपणा मन की,
ज्व इच्छा इनकी होती.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२१.१२.२००८ 

“नेता जी”

“नेता जी”
नेता जी बहुत बूढे थे,
उम्र थी अस्सी साल,
सत्ता का सुख भोग रहे,
चेहरा अब तक लाल.
चुनाव आते वादे करते,
कर दूँगा मैं पूर्ण विकास,
लोक लुभावन भाषण सुनकर,
जनता करती उनको पास.
अस्सी बसंत देख चुके,
नेता जी की मौज,
हर वक़त उनको घेरे रहती,
प्रिय चमचों की फौज.
यमलोक में एक दिन,
कह रहे थे यमराज,
बूढा नेता कौन है,
मुझे बताओ आज.
यमदूतों ने यमराज को,
डरते हुए बताया,
लेने गए थे नेता जी को,
पर कुछ समझ नहीं आया.
नेता जी की पत्नी हैं,
सच्ची धार्मिक पतिवर्ता नारी,
कैसे लायें नेता जी को,
हिम्मत न हुई हमारी.
भैंसे पर बैठ गरजे यमराज,
तुंरत आए नरलोक,
नेता खेल अब खत्म तुम्हारा,
चलो तुंरत यमलोक.
नेता जी बेबस थे,
आखों में आए आंसू,
चमचे रोये जोर से,
खुश हुआ “जिग्यांसु”    
  
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२१.१२.२००८ 

“देहरादून-मसूरी ”

“देहरादून-मसूरी ”
मन ही मन मुस्कराती मसूरी,
जो पहाड़ों की रानी है,
दूर से देखता देहरादून,
कहता तू रूप की रानी है.
पास पास हैं लेकिन फ़िर भी,
आपस में नहीं मिल पाते,
देखते हैं एक दूजे को,
सिर्फ़ नयन हैं मिल जाते.
सच्चा प्यार है दोनों में,
मिल नहीं सकते मजबूरी,
चाहत दोनों के मन में है,
इच्छा कैसे हो पूरी.
देहरादून का दिल दिवाना,
मनचली है तू मसूरी,
कहता है कवि “जिग्यांसू”
इच्छा इनकी हो पूरी.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२९.१२.२००८ 

“पाटी, माटु अर् कमेड़ु”

“पाटी, माटु अर् कमेड़ु” 
गुरुजीन अक्षर ज्ञान का खातिर,
पाटी मा पैलि माटु बिछाई,
बड़ा प्यार सी आंगळि पकड़ी,
अ आ इ ई लिख्न्णु सिखाई.
काळी पाटी मा कलम कमेड़ान, 
बराखड़ी लिख्न्णु सिखाई,
लिख्दु लिख्दु प्यारी पाटी मा,
अपणी किताब पढ़णु आई.
मास्टर जी किलै सिखौणा था,
यांकु बचपन मा निथौ ज्ञान,
आज समझ मा औण लग्युं छ,
कनुकै चुकौं गुरु जी कु अहसान.
पाटी, माटु अर् कमेड़ा कू,
आई.टी. युग मा छुटिगी साथ,
कम्पूटर का की बोर्ड फर,
अब त सदानी रंदु छ हाथ.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२7.१२.२००८ 

“बांदरु कू होंणु वास ”

“बांदरु कू होंणु वास ”
उत्तराखंड का बजेंदा गौं मा,
बल बांदरू कू ह्वैगि राज,
धुर्पळौं मा धमध्याणा छन,
कन्यौण लग्यां छन  खाज.
सैल सगोड़ी लगुलि मुग्लि,
कन्न लग्यां सफाचटट,
डाळयौं मा फाळी मान्न लग्यां छन,
यथैं वथैं फटा-फट्ट.
यनु बतौन्दा बांदर छन बल,
हनुमान जी की फौज,
देवभूमि उत्तराखंड मा,
मनौण लग्यां छन मौज.
मूल निवासी उत्तराखंड का,
जाणा छन प्रवास,
खंडवार होन्दि कूड़ी पुंगड़यौं मा,
बांदरू कू होंणु वास.     
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२1.१२.२००८ 

“अतीत और आज “

“अतीत और आज “
अतीत में,
ऐसा था मेरा गाँव,
जहाँ सड़क नहीं,
स्वास्थ्य सुविधा नहीं,
बिजली नहीं,
स्कूल नहीं,
कोई विकास नहीं,
रोजगार नहीं.
लेकिन आज,
मेरे गाँव में,
बिजली, पानी,
सड़क, संचार, स्कूल,
रोजगार गारंटी योजना,
सब कुछ है,
लेकिन इनके आने तक,
अधिकतर शिक्षित ग्रामवासी,
पलायन कर चुके,
बेहतर भविष्य की तलाश में,
महानगरों को ओर,
सदा के लिए.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
6.1.2009 

“पाश्चात्य प्रेम में”

 “पाश्चात्य प्रेम में”
पत्थर बनते जा रहे हैं हम,
जहाँ एक दूजे के लिए,
सार्थकता है समय की,
लेकिन,
सार्थक नहीं रहे रिश्ते,
और भावनाएं,
पाश्चात्य संस्कृति के,
अनुसरण के कारण.
पाश्चात्य संस्कृति है ही ऐसी,
जिसका स्वाभाव है,
अकेला चलो,
कुछ न कहो,
वक्त नहीं,
भौतिक सुख भोगो,
संवेदनहीन बनो,
अगर ये सच नहीं,
तो ढूँढो और देखो,
वर्तमान में,
अतीत से कितनी दूर,
चल चुके हम,
अपनी संस्कृति को छोड़कर.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
9.1.2009 

“नदी”

“नदी”
एक दिन बहुत निराश थी,
क्योंकि,
उसकी घाटी में बसे लोग,
उस दिन जा रहे थे,
अपना सब कुछ समेट कर,
पर नदी को नहीं पता,
क्यों जा रहे हैं?
बिना बताये अज्ञातवास को,
सदा के लिए,
आँखों में आंसू लिए.
वह निराश नदी है,
भागीरथी,
जिसने देखा,
और अंत में डुबो दिया,
पुरानी टेहरी को,
मानव निर्मित बाँध में,
कैद होकर.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
13.1.2009 

“चतुर कुत्ता”

 “चतुर कुत्ता”
एक दिन एक कुत्ता जंगल में,
रास्ता भटक गया,
शेर को अपनी ओर आते देख,
डर के कारण अटक गया.
शेर की ओर पीठ करके,
सूखी हड्डियाँ चूसने लगा,
शेर को खाने का मजा,
कुछ और ही है,
चाल चलते हए कहने लगा.
आज तो एक दावत,
और हो जायेगी,
कुत्ता जोर से डकारा,
शेर ने समझा,
कुत्ता शेर भक्षी है, 
भागा, डर का मारा.
पेड़ पर बैठे बन्दर ने,
जब यह सब कुछ देखा,
सोचा, शेर से सारा सच कहूँगा,
साथ ही हो जायेगी दोस्ती,
शेर से सुरक्षित रहूँगा.
बन्दर ने शेर को,
कुत्ते की हकीक़त बताई,
तब जोर से दहाड़ा शेर,
बोला, बैठ मेरी पीठ पर भाई.
शेर को अपनी ओर आता देख,
कुत्ता उसकी ओर,
पीठ करके कहने लगा,
बन्दर को भेजे एक घंटा हो गया,
साला एक शेर फ़ांस कर नहीं ला सका,
न जाने कहाँ सो गया.
शेर ने जब सुना तो,
गुस्से में बन्दर को,
नीचे गिराकर मार डाला,
चतुर कुत्ता कितना चालाक,
जान बचाकर भाग गया,
और बन्दर को मरवा डाला.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
14.1.2009  

“ढूँढती हैं”

“ढूँढती हैं”
नजरें मेरी आज भी,
बचपन के बिछुड़े दोस्तों को,
जो बिछुड़ने के बाद,
आज तक नहीं मिले.
यादें उनकी आज भी,
न जाने क्यों सताती हैं,
बचपन बीता उनके साथ,
आज भी याद आती है.
उलझे होंगे सभी,
इस मायवी संसार में,
खुशी ढूँढ रहे होंगे,
आज अपने परिवार में.
यादें उनकी जीवन भर,
उभरती ही रहेंगी,
नजरें मेरी उनको,
सदा ढूँढती रहेंगी.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
15.1.2009 

“काली रात का कहर”

 “काली रात का कहर”
कहर ढा गया,
नींद की सुनहरी गोद में,
बेखबर सोये लोगों पर,
होने वाली भोर से पहले,
20 अक्टूबर,1991  की रात को,
आया प्रलयकारी भूकम्प,
जिसका केन्द्र था,
उत्तराखंड राज्य का,
उत्तरकाशी जिल्ले का,
जामक गाँव.
उस भयानक रात के बाद,
शुरू हुई एक नई सुबह,
लेकिन दिख रहा था,
मौत का मंजर,
करुणा, विलाप और क्रंदन,
दहाड़ मार कर रोते लोग,
खँडहर हुए घरों में,
दबे और दम तोड़ते लोग.
मदद के लिए उठे हाथ,
जिन्होंने देखी और निकाली,
दबी हुई लाशें,
पिचकी हुई लाशें,
कतरा-कतरा हुई लाशें,
बेमौत मरे लोगों की.
शमशान घाटों पर,
शुरू हुआ सैलाब,
सामुहिक जलती लाशों का,
जो उनकी थी,
जो आयी थी अपने मायका,
जो आए थे छुट्टी पर,
जो थे बचपन की दहलीज पर,
जो थे जवानी के जज्बे में,
जो थे आखरी पड़ाव पर,
जिन्हें था अपनी जन्म-भूमि से,
बेहद प्यार,
लेकिन उनकी चिता से,
उठते धुँए के गुब्बार में,
मिले उनके सपनें,
ओझल हो रहे थे,
उस काली रात के,
कहर के कारण.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
16.1.2009  

“कवि”

 “कवि”
कविताओं के प्रेम में,
“कवि” हुआ कंगाल,
सोचा नहीं अपने लिए,
जीवन रहा तंग हाल.
कई कवियों की जीवनी,
पढ़कर हुआ मलाल,
रचनाओं को रचते हुए,
बने न माला मॉल.
श्रोताओं ने सदा सुनी,
कवियों की कविताएँ,
कौन कवि रहा माला मॉल,
जरा हमें बताएं.
कलयुग के इस दौर में,
यथार्थ का है ये हाल,
सच्चा होता है कवि मन,
पर रहता है कंगाल.
सावधान! हे कवि मित्रों,
लिखना ऐसी कविताएँ,
माला मॉल चाहे न हों,
यथार्थ को ही बताएं.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
23.1.2009 

“गरीबी”

 “गरीबी”
एक वर्ग की पहचान है,
जिसे धनाढ्य वर्ग,
अपने लिए प्रयोग करता है,
लेकिन, आगे नहीं बढ़ने देता,
अपना वजूद कायम रखने के लिए.
गरीबों की गरीबी को,
बेचा जाता है,
अमीर बनने के लिए,
और गरीब गरीब रहता है,
अपना अस्तित्व,
बचाने की जंग में.
गरीब को कल्पना में,
करोड़पति बनाने का नाटक,
दिखाया जाता है,
करोड़ों कमाने के लिए,
साथ में सम्मान भी,
परन्तु, गरीब को नहीं पता,
उसकी गरीबी बेची जा  रही है.
रचनाकार:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
27.1.2009 

“ऋतु बंसंत”

“ऋतु बंसंत”

ऋतु बसंत बौड़िक एगि,
मैनि लगिं छ चैत की,
पाख्यौं मां फ्योंली,
मुल मुल हैंसणी,
खुद लगिं छ मैत की……..

दण मण आंसू,
आंख्यौं मां औणा,
खुदेड़ मैनि चैत की,
निर्मैत्या नौनी अफुमा रोंणी,
खुद लगिं छ मैत की……..

प्यारी घुघती घुराण लगिं,
याद औणि छ मैत की,
आरू घिंगारू अब फूलिगिन,
उलारया मैंनी चैत की……..

कौथगेर मैनु बैशाख आलु,
जाली भग्यानी मैत,
बंणु मां बुरांस,
बंणाग लगाणा,
मैनि लगिं छ चैत…….

डांडी कांठ्यौं मां,
अयुं मौळ्यार,
डाळ्यौं मां खिल्यां फूल,
पापी बसंत,
न दुखौ मैकु,
त्वैन जाण छ न भूल…….

स्वरचित:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२९.१.2009
     

“शादी”

 “शादी”
याद करा वे वक्त तैं,
जबरी ह्वै थै शादी,
ब्योलि मन मां खुश होंणी थै,
शुरू ह्वै थै बरबादी…..
पंडितजिन वे दिन जब,
बेदी मां करवै था फेरा,
बुरा दिन वे दिन बीटी,
शुरू ह्वैगे था मेरा…….
छकि-छकिक रोंणी थै ब्योलि,
लाल डोला मां बैठि,
ढोल दमौं था बजण लग्यां,
बारात जब वापिस पैटि……
घराती बाराती खुश होयां था,
खाणि पेणि खैक,
ब्वै का मन भारी खुशी थै,
नौना कु ब्वारी ल्हेक………
कुछ दिन मां ब्वैन बोलि,
कनु लड़िक बिगड़ी मेरु ब्वारी ल्हेकी,
बस मां अब हमारा निछ,
अब मति भि मरिगी तैकी……..
कुट्मदारी भौं कबरी मै फर,
अब जब किल्ल किल्कौंदी,
क्या बतौण हे मेरा दग्ड़यौं,
ब्यो का दिन की याद भि औन्दि…..
अब सुण्दु छौं मैं सब्यों की,
कंदुड़ बंद करी बौग मारिक,
हाड्ग्यों कु बणयुं सेळु,
अब थकि हारिक……….
जू मैं यनु जाणदु भुलौं,
ब्यौ करिक यना हाल होण,
नि करदु ब्यौ कतै ना,
कपालि पकड़ीक  भी रोण…… 
स्वरचित:
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसु
२९.१.2009
     

“घिन्डुड़ी”

“घिन्डुड़ी”

फुर उड़िजा, घिन्डुड़ी प्यारी,
डाळ्यौं मा वार पार,
प्यारी ब्वै मू,  लिह्जा लठ्याळि,
तू मेरु रैबार……..

मेरी ख़ुद मां, होंणी होलि,
मांजी मेरी उदास,
यनु बतैदे, मैं राजि खुशी छौं,
औलु तेरा पास…..       
फुर उड़िजा, घिन्डुड़ी प्यारी……..

भूलि भुलों की ख़ुद लगीं छ,
औणि छ ऊन्कि याद,
प्यारी ब्वै मां, यनु बतैदे,
औलु बिखोती का बाद.
फुर उड़िजा, घिन्डुड़ी प्यारी…….

प्यारी ब्वै मां, बोलि घिन्डुड़ी,
उदास नि होंणु,
सैसर मां राजि खुशी छौं,
अफुमा नि रोंणु.
फुर उड़िजा, घिन्डुड़ी प्यारी…….

चन्द्रबदनी जू, दैन्णु होलि,
लग्युं छौं मैं सास,
कोथिग आला, बैसाख मैना,
औलु तेरा पास.
फुर उड़िजा, घिन्डुड़ी प्यारी…….

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
4.2.२००९ को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

पहाड़ पर बचपन......

पहाड़ पर बचपन......

अब तो यादों में बस गया है,
पहाड़ पर बिताया, प्यारा बचपन,
सोचणु छौं, कनुकै बतौँ,
आज, अतीत मां ख्वैक,
कनु थौ अपणु बचपन.

दादी, खाणौं खलौन्दि वक्त,
बोल्दि थै,
एक टेंड खाणौं कू नि खत्यन,
नितर तुमारा आंख फूटला,
रुसाड़ा का भीतर,
चूल्ला तक जाण की,
इजाजत कतै नि थै,
संस्कार माणा,
या अनुशासन समझा.

स्कूल दूर थौ,
अर् ऊकाळि कू बाटु,
बगल मां पाटी,
हाथ मां बोद्ग्या,
जै फर घोळिक रखदा था,
कमेड़ा की माटी.

चैत का मैना ल्ह्योंदा था,
अर् देळ्यौं मां चढ़ौन्दा था,
सुबेर काळी राति,
पिंगळा फ्यौंलि का फूल,
कौदे की कर करी रोठ्ठी खैक,
फ़िर जांदा था स्कूल.

अपणा सगोड़ा की, 
मांगिक या चोरिक,
छकि छकिक खांदा था,
काखड़ी, मुंगरी, आम, आरू,
बण फुंड हिंसर, किन्गोड़, करौंदु,
खैणा, तिमला, घिंगारू.

कौथिग जांदा था,
बैसाख का उलार्या मैना,
झीलु सुलार अर् कुरता पैरिक,
देखदा था खुदेड़,
अफुमां रोन्दि,
बेटी-ब्वारी, चाची, बोडी,
कै जोड़ी ढोल-दमौं,
बगछट ह्वैक नाचदा बैख,
गोळ घूम्दी चर्खी,
चूड़ी, झुमकी,माळा की दुकान,
हाथु मां चूड़ी पैरदी,
बेटी-ब्वारी, चाची, बोडी,
ज्वान शर्मान्दि नौनि हेरदा लोग,
जैन्कि मांगण की बात चनि छ,
स्वाळि,पकोड़ी,खांदा लोग,
आलु पकोड़ी, जलेबी की दुकान,
अहा! कथ्गा खुश होन्दा था,
बचपन मां हेरि-हेरिक.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
10.2.2009  को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

“माधो सिंह “काळो” भंडारी”

 “माधो सिंह “काळो” भंडारी”
आमू का बागवान मलेथा, लसण प्याज की क्यारी,
कूल बणैक अमर ह्वैगि, वीर माधो सिंह भंडारी.
बुबाजी भड़ सोंणबाण “काळू” भंडारी, ब्वै थै देवी भाग्यवान,
कथ्गा प्यारु तेरु मलेथा, माधो जख केळौं का बगवान.
दगड़्या थौ चम्पु हुड्क्या, देवी जनि उदिना थै कुटमदारी,
नौनु प्यारु गजे सिंह, जू छेंडा मूं कूल का खातिर मारी.
बांजा पुंगड़ौं अन्न निहोन्दु, पेण कु निथौ बल पाणी,
उदिना बोदि माधो जी कू, मेरा मलेथा ल्य्हवा पाणी.
दिनभर निर्पाणि का पुंगड़ौं,  करदा छौं हम धाण,
भात खाण की टरकणी छन, मेरी बात लेवा माण.
मलेथा की  तीस बुझौलु, ल्ह्योलु अपणा मलेथा मां पाणी,
निहोंणु ऊदास प्यारी ऊदिना, दूर होलि हमारा गौं की गाणी. 
चंद्रभागा गाड बिटि कूल बणायी, कोरी मलेथा मूं छेंडू,
पाणी छेंडा पार नि पौंछि,  माधो सिंह चिंता मां नि सेंदु.
भगवती राजराजेश्वरी रात मां, माधो सिंह का सुपिना आई,
कूल कू पाणी पार ह्वै जालु, मन्खि की बलि देण का बाद बताई.
मलेथा की कूल का खातिर, माधो सिंह न करि गजे सिंह कू बलिदान,
गजे सिंह का दुःख मां रोन्दि बिब्लान्दि, ब्वै ऊदिना ह्वैगि बोळ्या का समान.
ऊदिना न तै दिन दुःख मां ख्वैक, दिनि थौ बल मलेथा मां श्राप,
ये वंश मां क्वी भड़ अब पैदा नि ह्वान, गजे सिंह मारि कनु करि पाप.
जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
11.2.2009  को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

“बीमार बौडा”

बौडा बीमार ह्वैक दिल्ली अयुं छ.
अपणी बुढ्ड़ी का दगड़ा फ़ोन फर बात कन् कू वैकु अंदाज.  यू ही सांस्कृतिक अंदाज छ बात कन् कू हमारा उत्तराखण्ड का दाना मन्ख्यों कू.  अगली पीड़ी उत्तराखंडी कम हि इंग्लिश मां ही बात कल्लि. 
“बीमार बौडा”
हलो मैलि,  हलो मैलि, कखैं मैलि तू जयीं,
अर् पता छ मैं पता, त्वैतैं काम प्यारू छ,
मैं फर निछ तेरु लोभ लान्लच,
ऐलि भैन्सु दूध देण छ लग्युं,
दुया द्वी छकि छक्किक दूध प्यान,
अर् भैन्सु बेचण मैलि,
नितर मैं यख बीटी बात कार्दौं,
ठीक छ, नि बेचण भैन्सु.
 
अब नि बच्दौं मैं, झंडा लगिगी मैं फर,
अब पक्की बात छ….
त्वै द्वी पैसो साग्वार निछ, अब देखि तू,
तेरी कनि दुर्गति होलि.
अर् वैकु बोलि, घोड़ा का खुटौं फर नाळी ठोके दे,
बाराती मां घोड़ा लीक जरूर जै,
नितर मैन गाळी खांणन….
लुकाँ, टक्क लगैक सुणिक,
यू संकलन छ दानी बात कू,
लिख्युं छ,
भुलौं मेरु अपणा हाथ कू,
एक दाना बुढया कू,
बात कन् कू अंदाज.

जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
11.2.2009  को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७

ब्वोडि गै मकरैणी का मेळा.....

“बोडी बैठि बस मा”  मेरि एक यनि रचना छ जू मकरैणी का मेळा पर आधारित छ.  अतीत मा उत्तराखंड का लोग पंचमी, मकरैणी का मेला देवप्रयाग, ढ़ुंडप्रयाग,श्रीनगर, व्यासचट्टी , नहेण जांदा था.  गौं गौं बिटि लोग पैदल चलिक या बस सी मेळा जांदा था.  यूं मेळौं फर उत्तराखंड का कवियों का सुंदर पारंपरिक गीत भी लिख्याँ छन. भुलौं मैकु आज याद औन्दि यूं मेळौं की, पर क्या कन्न बौळ्या  बन्णिक लिखणु छौं मन का उमाल.  

ब्वोडि  गै मकरैणी का मेळा, वींन खैन जलेबि केळा,
घुम्दु घुम्दु ख्याल आई, वीन दग्ड़्यौं तैं बताई....

चला अब घौर जौला, देर ह्वेगि क्या बतौला,
सब्बि डगड़्या बस मूं गैन्, सीट निथै खड़ू ह्वेन.....

ब्वोडिन नज़र दौड़ाई, सीट एक खाली पाई,
क्वी नि बैठ्युं यीं मा क्योकु, सैत खाली रखिं मैकु.....

ब्वोडि वख मूं बैठि ग्याई, एक घेरी जलेबी खाई,
तबर्रयौं डरेबर दिदा आई, सीट म्येरी वेन बताई....

ब्वोडि ब्वोन्नि हाथ जोड़दु, तेरु रिवाज आज तोड़दु,
मेरी सुण तू पिछनै बैठ, मैं दगड़ि सुदि नी ऐंठ.....

डरेबर ब्वोन्नु क्या बतौण, मैंन हि या बस चलौण,
हाथ जोड़दु बोल्युं माण, ब्वोडि त्वेन घौर नि जाण......

तबर्यौं नौनु  एक भट्याई, ब्वोडि यख मूं बैठ बताई,
ब्वोडि भीड़ मा भभसेणी, मन ही मन मा गाली देणी....

ब्वोडि बैठि खिड़की फर,  निन्द ऐगि वीं तैं सर्र,
ब्वोडि देखि डगड़्या हैंसणि, ब्वोडि कन्नि खर खर....

बस गौं जथैं जाणी, सब्बि अफुमा छ्वीं लगाणी,
सुपिना मा द्येखा ब्वोडि, एक घेरी जलेबी खाणी....

दगड़्यौंन ब्वोडि घल्काई, खड़ु उठ यनु बताई,
घौर हमारू अब ऐगि, एक फलांग सिर्प रैगि......

घौर हम्तैं जागणा छन, सड़की फुंड भागना छन,
अगल्या साल फिर जौला, चूड़ी, मछली,फोंदणी ल्हौला.....



जगमोहन सिंह जयाडा जिज्ञासू
२७-६-२००६ को रचित


मलेेथा की कूल