Saturday, February 2, 2013

"उत्तराखंड के गांधी स्व इन्द्रमणि जी के गाँव अखोड़ी की यात्रा"


                           उत्तराखंड के गांधी स्व इन्द्रमणि जी की जीवनी मैंने हिमालय गौरव पर पढ़ी। अपने गाँव अखोड़ी से बडोनी जी नौ दिन पैदल चलकर  नैनीताल गए थे।   मेरे गृह नगर के पास रौडधार में उन्होने शिक्षा ग्रहण की थी।   जानकारी प्राप्त होने के बाद मेरे मन में अखोड़ी भ्रमण की भारी जिज्ञासा थी।  मेरी जिज्ञासा तब और भी बढ़ गई जब मेरा संपर्क अखोड़ी  के दिल्ली प्रवासी  भाई भगवान  सिंह रावत जी से हुआ।  रावत जी ने मुझे बडोनी जी और उनके गाँव अखोड़ी पर गढ़वाली कविता लिखने को कहा।  मैंने उनकी इच्छानुसार दो कवितायेँ लिख़ी  जो अखोड़ी पर बनाये उनके ब्लाग पर हैं।    फेसबुक के माध्यम से दोस्ती के दौर को लगभग पांच साल हुए होंगे, रावत जी ने मेरा इ मेल माँगा और मेल के माध्यम से पुत्री की शादी पर मुझे निमंत्रण दिया।   मेरे मन में एक उमंग पैदा हुई इससे सुन्दर मौका अखोड़ी जाने का क्या हो सकता है।  16 जनवरी को आनंद विहार से  घनसाली की बस में बैठकर रात्रि 9.30 बजे मैंने प्रस्थान किया। 17 जनवरी को  सुबह 7.30 पर मैं घनसाली से पहले पडागली में अपने बहनोई श्री मालचंद रमोला जी से मिलने के लिए उतर गया। लगभग दो घंटा रूकने  के बाद मैंने पडागली से घनसाली की बस पकड़ी।

                         घनसाली पहुँचने पर मुझे 11 बजे अखोड़ी को जाने वाली बस मिल गई।   आधा घंटे इंतज़ार के बाद बस ने अखोड़ी के लिए प्रस्थान किया।  घनसाली तो मुझे खास रौंत्याला नहीं लगा, लेकिन बस जैसे जैसे आगे बढ़ी, कहीं भ़ेल और खाई नजर आ रही थी। मेरे चन्द्रबदनी पट्टी(खास पट्टी ) मुल्क जैसा रौंत्याला इलाका नहीं था।  पाख गाँव के पास पहुँचने पर जरा रौनक सी लगी।सुबह से बरसात होने के असार थे  पाख के पास पहुँचने पर बूंदाबांदी शुरू हो चुकी थी।  अखोड़ी से पहले कोहरा लग चुका  था और इलाका पथरीला था।  मुंडया भैरव मंदिर के बाद अखोड़ी का मनमोहक सौंदर्य हलके कोहरे में छुपा हुआ था और बरखा होने लगी थी ।  ढुमका बाजार पर बस से उतरने के बाद मैं एक लड़का जो मेरे साथ सीट पर घनसाली से बैठा और घुत्तु से आया  था, उसके साथ भगवान्  सिंह रावत जी के घर की तरफ चल दिया।  कल्पना थी बडोनी जी का गाँव है तो रास्ते भी सुन्दर होंगे, पर अपेक्षा के विपरीत संकरे पथ पर चढ़ता हुआ मैं एक विशाल बांज के पेड़ के पास नागराजा मंदिर के पास पहुँचा।  मैंने ग्राम देवता को मन ही मन प्रणाम किया और बरखा में भीगता हुआ, मेरे अखोड़ी  आने से इंद्र देवता प्रसन्न है अहसास करता हुआ रावत जी के घर पर पहुँचा।  शादी की तयारी में व्यस्त ग्रामवासी और परिजन रंग बिरंगे परिधान पहने, चहल पहल करते हुए लग रहे थे।    भगवान्  भाई से गले मिलकर मेरी पहली मुलाकत उनके गाँव में हुई, जो मेरा सौभाग्य था।  रावत जी ने मेरा परिचय एक गढ़वाली कवि के रूप में करवाया और मेरा खास ख्याल रखने को  कहा।  भुला जय सिंह रावत मित्र रावत जी के निर्देश के अनुसार  मेरा खास ख्याल रख रहे थे।  रावत जी के मामा जी श्री मेहरा जी के साथ मैं बैठा रहा और परिचय हुआ।

                      7.30 बजे रात्रि में बारात का आगमन हुआ लेकिन बरखा ने रंग में काफी भंग कर दिया था। जयमाला की रस्म जारी थी, रावत जी की इच्छा पर मैंने भी वर बधु  के साथ रावत जी सहित अपनी तस्वीर खिंचवाई। सेवा निवृत प्रधानचार्य श्री महावीर सिंह  बडोनी जी से मेरी मुलाकात हुई।  बडोनी जी ने मुझे बताया अखोड़ी के स्कूल में प्रधानचार्य रहने  के दौरान मैंने अपने गाँव के बच्चों को अनुशासन की परिधि में रहकर शिक्षा ग्रहण करने का प्रयास किया।     बहुत ख़ुशी होती हैं मुझे अपने पढाये बच्चों की प्रगति पर।   मुलाकत के  दौरान मैंने भी अपने कवि हृदय से कुछ कवितायेँ सुनाकर बडोनी जी को पहाड़ के यथार्थ का अहसास और हंसाने का प्रयास किया।  रात्रि में बिजली कड़कने लगी थी, बरखा और हल्का हिमपात भी हुआ।  जय भुला मुझे धन सिंह रावत जी के घर ले गए जहाँ मैंने रात्रि विश्राम किया।  


                      अठारह जनवरी-2013 सुबह नींद से जागने के बाद मैं बाहर आया तो देखा फुटलिंग,  ऐंच्वा, विश्वनाथ मंदिर की तरफ हिमपात हुआ था जो मनोहारी लग रहा था।  चाय पीने के बाद मैं और जय सिंह रावत मंगल सिंह नेगी जी के घर की तरफ गए।  नेगी जी की माता जी देहरादून से गाँव आई हुई थी।  नेगी जी का बहुत बड़ा घर जिसके दरवाजे नेगी जी की माता जी ने शायद महीनों बाद खोले होंगे,  विकास का प्रतीक, पहाड़ का नहीं एक परिवार का और पलायन का प्रभाव।  ठण्ड बहुत थी बोडी ने फ़टाफ़ट चाय बनाई और हमने आग तापी और चाय का आनंद लिया।  बोडी जी के चौक में बड़े बड़े पीले लिम्बू लगे हुए थे, अपने हाथों से पांच छ लिम्बू तोड़कर बोडी जी ने मुझे दिल्ली ले जाने के लिए दिए।थोड़ी देर बाद बोडी जी ने दीवार पर टंगी स्वर्गीय बोडा जी की तस्वीर के साथ अपनी तस्वीर खिंचवाई। ताल मैदान की तरफ की, गाँव की, दूर इलाकों की तस्वीरें लेते हुए हम भगवान् सिंह रावत जी के घर पहुंचे, जहाँ मेहमानों और बरात्यों की चहल पहल थी।  सभी लोग कामकाज में व्यस्त थे, नाश्ते की व्यस्था और अन्य काम काजों में।  धन सिंह रावत जी का अपना अनोखा अंदाज मुझे बहुत अच्छा लगा, जो भोजन सम्बन्धी व्यवस्था का विशेष ख्याल रख रहे थे।  रावत बंधुओं के साथ मेरा परिचय हो रहा था, जिनके चहेरे मेरे मन में बसे हुए हैं लेकिन नाम याद नहीं, उन्होने मुझे काफी सम्मान दिया और मेरा ख्याल रखा।  भगवान रावत जी व्यस्त थे पर बीच बीच में मेरी खुश खबर ले रहे थे।   जय रावत को उन्होनें मेरा खास ख्याल रखने का निर्देश दिया था और रावत जी निर्देश के अनुसार विशेष ख्याल रख रहे थे।   गाय दान हो रहा था उधर दुल्हन की डोली सजाने में कुछ लोग व्यस्त थे।  मैंने भी बहुत दिनों बाद डोली को सजाते देखा और अपने कैमरे में तस्वीर कैद की।

                   बरखा और हल्के  हिमपात से ठण्ड बढ़ चुकी थी, मेहमानों की भोजन व्यवस्था की जा रही थी।   भोजन के बाद लगभग तीन बजे डोली विदाई हेतु ओजि ढोल बजाने लगे।  एक करूणामय वातावरण था, दुल्हन को डोली में बिठाया गया और बरात प्रस्थान हुई।   कवि ह्रदय कोमल होता है मेरे मन में  करूणामय भाव था।  बेटी की अपने घर से विदाई का वातावरण माता पिता के लिए भावुक छण होता है।  बरात बौल्या की धार, नरसिंह मंदिर, हीरा सिंह जी के घट्ट से सड़क तक पहुँची जहाँ बरात की गाड़ियाँ खड़ी थी।   बारात ने प्रस्थान किया और हम राजिंदर सिंह रावत जी के घर दुमका बाजार होते हुए वापिस लौट गए।   बरखा हिमपात होने लगा था, रात्रि को भोजन के बाद जल्दी ही सो गए।

                 अठ्ठारह जनवरी को मैं अखोड़ी घूमना चाहता था और उन्नीस जनवरी को दिल्ली वापिस जाने का मेरा विचार था।   पर प्रकृति के आगे इंसान बेबस होता है उस दिन हिमपात और बरखा के कारण रंग में भंग हो गया।  उन्नीस सुबह को जागकर मैं कमरे से बाहर तो देखा  तो देखा भड्डू और लोहे की कढ़ाई में बर्फ जमा हुआ था, याने सर्वत्र बर्फ ही बर्फ। अखोड़ी के ताल से लेकर  हुलाणा खाल तक बर्फ से ढका हुआ दिख रहा था। मैंने भी मौके को हाथ से नहीं जाने दिया और इधर उधर जाकर तस्वीरें लेने लगा।  रावत बधुओं के बीच में एक सुखद अहसास हो रहा था।  

                 

               19 जनवरी सुबह  भगवान सिंह भाई, उनके ससुर, साडडू भाई और मैं गाँव से जखोली की तरफ पैदल चल दिए।   उनके साडडू भाई को टोला डागर अपने  गाँव जाना था, लेकिन सड़क पर पहुँचने पर कोई वाहन घनसाली जाने के लिए नहीं मिला।  हम सड़क पर पैदल ताल की तरफ चलने लगे और मुंडया भैरव मंदिर के पास पहुँच गए।  रावत जी की ससुराल कोटि जाख के निकट है और मुंडया भैरव मंदिर से नीचे एक रास्ता वहां तक जाता है।  रावत जी के साडडू भाई ने तय किया की अब अपनी ससुराल ही चले जाता हूँ। रावत जी और उनके ससुर  रास्ता बताने थोडा नीचे तक गए और मैं भैरव मंदिर पर ही रुक गया।  भैरव मंदिर से दूर बर्फ से ढका खैंट पर्वत, कुण्ड का डांडा बहुत ही सुन्दर लग रहा था।   घनसाली की तरफ घाटियों में कुयेड़ी छाई हुई थी। मैंने वहां से बर्फीली चोटियों की तरफ कैमरा घुमाकर कैमरे में खूबसूरत दृश्यों को कैद किया।   थोड़ी देर में भगवान सिंह भाई और उनके ससुर जी वापस आ गए और ऊपर ताल के मैदान की तरफ बढ़ने लगे।   भारत संचार निगम के टावर के पास पहुँच कर हमने अलग अलग अंदाज में तस्वीरें ली और वापस रावत जी के घर की तरफ लौट गए  और दोपहर का भोजन  किया। 



                19 जनवरी को दोपहर में  बलबीर सिंह रावत जी, धन सिंह रावत जी मुझे भ्रमण हेतु साथ ले गए।  बौल्या के सौड़ पर रामलीला मंच, बौल्या देवता का मंदिर और एक आपदा कोष से निर्मित टिन का रैन बसेरा सा था,जिसके बारे में मैंने बलबीर भाई से पूछा और उन्होने मुझे जानकारी प्रदान की।   कुछ आगे जाने पर पटवारी चौकी एक हस्पताल था।   चौकी में पटवारी श्री गिरीश भट्ट जी से बलबीर भाई ने मेरा परिचय करवाया।  भट्ट जी मेरी पट्टी चन्द्रबदनी में रूम धार के मूल निवासी हैं।  उनसे परिचय हुआ और अपने मुल्क से दूर अपने मुल्क के एक मनखि से मिलकर सुखद अहसास हुआ।  भट्ट जी हमारे साथ हो चले और आगे हम नरसिंह मंदिर के पास रुके।   वहां पर किसी सज्जन द्वारा नरसिंह देवता की पूजा का आयोजन क्या जा रहा था।  काफी लोग वहां पर समूह में मौजद थे, मैंने भी नरसिंह देवता को प्रणाम  किया और आगे गाँव की तरफ चल दिया।  अखोड़ी गाँव के रास्तों को देखकर बहुत निराशा हुई क्योंकि अखोड़ी तो उत्तराखंड के गांधी स्वर्गीय बडोनी जी का गाँव है।  उत्तराखण्ड की सरकार ने कम से कम उनके गाँव का विकास तो किया होता।  गाँव के रास्ते बनाने के लिए तो ब्लाक पर योजना होती हैं। खैर संभल कर चलने में ही होश्यारी थी हम एक दिन के आगन्तुक जो ठहरे और कविमन से गाँव के रास्तों का हाल बता दिया।  थोड़ी दूर जाने के बाद बलबीर भाई ने मुझे उत्तराखंड के गांधी जी का पैत्रिक घर इशारे से बताया।   घर तो दूर से बंद ही दिख रहा था, लेकिन मकान की छत की बनावट पूरे गाँव से हटकर अनोखे अंदाज में बनी दिख रही थी।  थोड़ी देर रुकने के बात हम कठैत जी की दुकान पर रुके और वहां पर चाय पी।  मेरे कैमरे की बैटरी ख़त्म हो चुकी थी वहां पर बैटरी चार्ज करने का मौका भी मिल गया। पहले मैं स्वर्गीय हीरा सिंह जी के घट्ट को देख चुका था सो कविमन में घराट को कैमरे मैं कैद करने की मन में तीव्र तम्मन्ना थी।  घट्ट के पास पहुँच कर मैंने सामने और बगल से तस्वीर ली जो रौंत्यालि अखोड़ी पर मैंने पोस्ट की हैं।  घट्ट की भेरण दिख रही थी,सो पास जाकर मैंने पुरातन पहाड़ी प्रोद्योगिकी के नमूने पंडाला और भेरण की तस्वीर ली।  घराट में पानी नहीं था और बगल पर एक सुख गधेरा।  बताते हैं जब बसगाळ लगता है तो यह घराट गधेरे से बहते पानी से यौवन प्राप्त करके ख़ुशी ख़ुशी घूमने लगता है और आता पीसने लगता है।  घराट अखोड़ी गाँव की धरोहर है और स्वर्गीय हीरा सिंह जी द्वारा निर्मित विरासत।   वहां से हम अब गोदा धार बाजार की तरफ बढे और बाजार में पहुँच गए।  बाजार से पहले अखोड़ी का इन्टर कालेज दिखाई दिया जहाँ जाकर मैंने स्वर्गीय बडोनी जी का स्मारक देखा और बडोनी जी की मूर्ति  की तस्वीर ली।  वहां से विश्वनाथ घाटी का दृश्य मनमोहक लग रहा था।  अपनी आँखों से मैंने चहुँ ओर निहारा और साथियों के साथ ढुमका बाजार की तरफ चलने लगा। बातचीत करते हुए हम भगवान् रावत जी के घर पहुँच गए, पता नहीं लगा कब हम पहुँच गए। 

               संध्या के समय रावत जी की पुत्री और मेहमान पहुँच चुके थे।  भाई धन सिंह रावत जी के रेख देखा में भोजन बनाया जा रहा था।  भोजन पानी का दौर ख़त्म हुआ उसके बाद भाई बलबीर सिंह रावत जी ने हारमोनियम मंगवाई और कुछ गीत संगीत का दौर चला।  मेरा सौभाग्य था जो अखोड़ी के लोगों के बीच उनसे गीत संगीत का आनंद लेने का मौका मिला।  मैंने भी अपनी हास्य कविताओं के माध्यम से सभी को हंसाया।   रात्रि के बारह बज चुके थे फिर मैं सो गया, लेकिन सुबह छ बजे विश्वनाथ सेवा से ऋषिकेश तक का सफ़र तय करना था। बेफिक्र तो नहीं सो सका, किसी तरह एक आध नींद  ही पूरी हुई होगी।
 सुबह पांच बजे भुला जय सिंह रावत द्वारा लगाये अलार्म के माध्यम से एक प्रभु का भजन शुरू हुआ और मैं उठकर तयारी में जुट गया। सभी मित्र जाग गए थे और चाय पीने के बाद हम ढुमका बाजार की और पैदल चलने लगे।  अँधेरा होने के कारण हम संभल कर चल रहे थे।  मेरे साथ रेशिकेष  तक रमेश सिंह रावत जी की माता जी, उनकी बहु और नाती को साथ जाना था।   गोदा बाजार की तरफ से बस का आगमन हुआ और हम उसमें बैठ्कर मंजिल की ओर बढ़ने लगे।  सुबह अँधेरा ही था, मैंने अखोड़ी के मुंडया भैरव जी को मन ही मन प्रणाम किया  और कामना की, प्रभु बुलाओगे तो फिर आऊँगा।   ठण्ड बहुत लग रही थी अर बस ऊद्यार की तरफ जा रही थी।  रमेश रावत जी की माता जी से बात होने लगी, बात ही बात मे उन्होने बचपन की बात बताई।  कहने लगी "मेरा मेरु मैत कूड़ी कन्डार गौं छ।  मेरा मैति बडियार गढ़ सी अयाँ कंडारी छन। जब मैं छोट्टी थौ, हमारा घौर रज्जा राणी औन्दा था अर हम रज्जा कू दादा बोल्दा था।   वै जमाना जब रज्जा औन्दा था त सब्बि लोग बाटा साफ़ करदा था"  बौडी की पुराणी बात मा कविमन मन तैं भौत भलि लग्यन।  सात बजे हम घनसाली पहुँच गए और बस थोड़ा देर रुकने के बाद चम्बा की और चल दी।  मैंने टिहरी डाम की झील में जमा अथाह जल राशि को निहार और विचार किया ये पानी किसके लिए जमा है।  बिजली बनेगी पहाड़ के इस पानी से, फिर दोनों भाग जायेंगे पहाड़ की जवानी की तरह किसी शहर की शान के लिए।  कहने का मतलब ऐसा अहसास होने पर मुझे टिहरी की झील पराई सी लगी और पहाड़ अपने, जो मुझे बस में बैठा जाते हुए निहार रहे थे।  कह रहे थे कविमन है तेरा हमसे बिमुख मत होना।  मैंने भी आश्वासन दिया मैं लौटकर आऊँगा आपके पास, जब जब आप बुलाओगे।  बस हिचकोले खाते हुई चंबा, नागणी होते हुए आगराखाल पहुंची।   वहां पर मैंने आधा दर्जन पहाड़ी केले खरीदे जो ठीक तरह से पके हुए नहीं थे।   रमेश रावत जी बहुत जोर कर रही थी, "मेरा तू हमारा घौर चल, रोठी खैक चली जै"। मैंन बोडी जी तैं बताई मैकु अबेर ह्वै जाण वीं दर्द भरी दिल्ली जाण कू।  बौडीजिन बोलि "फेर त जा मेरा"  नटराज चौका पर बोडी जी उतर गई और मैंने दिल्ली की बस पकड़ कर प्रस्थान किया।   मोदी नगर के बाद लगे जाम  से कपाल पर चिंता की रेखाएं उभर रही थी। लगभग आठ बजे मैं आनंद विहार बस अड्डे पहुँच गया।  आनंद विहार से खानपुर की 469 नम्बर की डीलक्स बस में बैठकर मैं खानपुर पहुँचा और रात्रि 10 बजे थका हुआ अपने घर संगम विहार पहुँच गया, लगभग 14 घंटे के सफ़र के बाद।

मित्रों मेरा यात्रा वृतांत कैसा लगा मन की बात अवश्य बताएं ये मेरे कविमन की आस है।



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मलेेथा की कूल