Friday, June 15, 2012

"सोचा! मनखि माटु छ"


ऊकाळ ऊद्यार जनि जिंदगी मा,
मनखि शहर कू रैबासी ह्वैगी,
भूलिगि अतीत आज अपणु,
बनावटी जिंदगी जीण लगि,
छी छी करदु छ माटु देखि,
सोच्दु निछ मैं माटु छौं,
भूलिगी आज सब्बि धाणि,
अपणु मुल्क अर घर गौं,
अहंकार मन मा छ,
सब्बि धाणि होयुं छ पैंसा,
दूध घ्यू चैंदु छकि छक्किक,
पाळ्दु निछ  गोरु भैंसा,
अपणा मन मा सोच्दु,
मैं छौं दुनिया कू बड़ु इंसान,
बिस्वास नि करदु,
क्या सच मा छ भगवान,
जू बिंगदु छ  क्या छ सच,
जीवन भर हिटदु सुबाटु,
वे क्या समझौण बल,
बिंगदु मनखि छ माटु.....
रचियता: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित )

Wednesday, June 13, 2012

"जिंदगी का सुहाना सफ़र"

जिंदगी का सुहाना सफ़र,
हमारा और तुम्हारा,
एक ही है मन में डगर,
हंसी खुसी कट जाये अगर,
एक दिन हमें राही की तरह,
बहुत दूर जाना है.....
Poet: Jagmohan Singh Jayara "Jigyansu"
13.6.2012

Tuesday, June 5, 2012

"पर्यावरण दिवस" (पर्यावरण की पुकार सुनो)


5, जून-2012.........

वर्ष में एक बार,
इंसान को,
याद दिलाने वाला दिन..
पर्यावरण,
जिसकी क्षत्रछाया  में,
जीता है हर प्राणी,
पाता है प्रकृति से,
भोजन,हवा और पानी,
फिर क्योँ करता है,
पर्यावरण को प्रदूषित?
हमारे देश में परम्परा है,
वृक्ष, जल और जमीन की,
पूजा करने की,
फिर क्यों कट गए?
आग में जल गए,
जीवनदायी जंगल,
क्यों प्रदूषित हो गई?
पवित्र गंगा, यमुना,
और अन्य नदियाँ,
क्यों कट गई, बह गई?
पवित्र मिट्टी,
रौद्र रूप धारण कर गई,
धरती हमारी,
कहता है कवि "जिज्ञासु",
पर्यावरण की पुकार सुनो....
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा  "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Monday, June 4, 2012

जागो हे पर्वतजन!

जागो हे पर्वतजन!
उत्तराखंड के जलते जंगल,
देवभूमि में घोर अमंगल,
कवि "जिज्ञासु" को डर है,
कहीं सूख न जाए,
पवित्र नदियों का जल,
बहुत पछतायेगा फिर,
पहाड़ का पर्वतजन,
जंगलों की रक्षा के लिए,
जागो हे पर्वतजन.....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
३.६.२०१२

"थकते नहीं थे पाँव मेरे"

थकते नहीं थे पाँव मेरे,
जब पीठ पर लादकर,
ले जाता था,
बोझ! हर पर्वतजन की तरह,
चन्द्रबदनी मंदिर की,
पूर्व दिशा में,
कटार चोट  की,
तड़तड़ी ऊकाळ को,
धमाधम नापते हुए,
लगता नहीं था,
अभी दूर जाना है,
बचपन की उमंग कहो,
या जवानी का जज्बा...
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
४.५.२०१२ 
मित्र जय प्रकाश पंवार जी की रचना "पहाड़ दर पहाड़" के
सन्दर्भ  में रचित मेरी रचना  

मलेेथा की कूल