गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Wednesday, August 20, 2014
चौक मा निछन......
चौक मा निछन गोरु भैंसा,
आज होयुं पैंसा पैंसा......
घ्यु की माणी बेची बेची,
जू छोरा पढैन,
ज्वान ह्वैक ऊ बिचारा,
परदेश जुग्ता ह्रवैन....
ब्वे बाब बिचारा,
बाटु हेरदु रैन,
लग्यां रैन सास,
मन मरि आस मरि,
र्स्वगवासी ह्रवैन,....
-कवि जिज्ञासु की कलम से 20.6.14
आज होयुं पैंसा पैंसा......
घ्यु की माणी बेची बेची,
जू छोरा पढैन,
ज्वान ह्वैक ऊ बिचारा,
परदेश जुग्ता ह्रवैन....
ब्वे बाब बिचारा,
बाटु हेरदु रैन,
लग्यां रैन सास,
मन मरि आस मरि,
र्स्वगवासी ह्रवैन,....
-कवि जिज्ञासु की कलम से 20.6.14
- Gulab Singh Though this is a reality yet unavoidable as "pahar" is not able to provide full time employment to its rising population especially to youths
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