Friday, May 31, 2013

माया नि लगौणि.......

मैंन क्‍या बोलि थैा त्‍वैकु,
सुण हे ब्‍याळि,
नि लगौणु दिल मैंमा,
सुण हे लठ्याळि,.......

रंग रुप कै फर सदानि नि रंदु,
एक दिन मनखि माटु हवै जांदु,
माया कू मुंडारु द्वी चार दिन कू,
सोचि समझिक माया लगौणि,
या दुनियां छ रीता भांडा जनि,
बिंगलि हे तू यनु छ बतौणि......

दुनिया तू देख लठयाळि,
यीं तैं देखि देखि ज्‍यू नि भरेन्‍दु,
माया कू मुंडारु बुरु,
यांका बिना नि रयेन्‍दु......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
29.5.13

तेरु पहाड़.....


ऊदास दाज्‍यू,
चलि जा तू वैका पास,
त्‍वैमा देखण लग्‍युं छ ऊ,
ज्‍व छ वेका मन की आस......

नि दुखौणु दिल दाज्‍यू वैकु,
मन वैकु जन पहाड़,
घौर तेरु वैकी पीठ मा,
बांज बुरांस का जख झाड़......

मन वैकु कतै नि बदलि,
बदल्‍यां छन तेरा मिजाज,
तेरु पहाड़ ऊदास दाज्‍यू,
घैल भी होयुं छ आज....

मेरा मन मा पीड़ा दाज्‍यू,
उजड़दु जाणु पहाड़ हमारु,
जख भी छौं हम दाज्‍यू,
पराण सी प्‍यारु हमारु....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
28.5.13

तेरु गौं......

तेरी आस मा तेरु,
गौ छ टपराणु,
बिन बौल्‍यां मन सी,
त्‍वैकु छ भटयाणु,
कनु निर्दयी छैं तू,
अपणा गौं नि जाणु,
देख तेरु गौं त्‍वैकु,
कनु छ भटयाणु,
अब त चलि जा तू,
अपणा प्‍यारा गौं,
त्‍वैकु तैं लठयाळा,
सुण हे मेरा सौं.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
31.5.13

मैं हिटदु जाणु छौं.......

खांदु छौं पोटगी भरि,
धीत नि भरेणी छ,
द्वी कतर रोठठी का खातिर,
या जिन्‍दगी दुख देणी छ,
अपणा बैरी होयां छन,
कुजाणि किलै,
मेरी होणी खाणी देखि,
मन ही मन फुक्‍यां छन,
मैन भी सोचि,
फुक्‍ये ल्‍या,
तुमारु क्‍या खाणु छौं,
देणा छन देव्‍ता मैकु,
कर्म अपणु निभाणु छौं,
जिन्‍दगी कू बाटु मेरु,
मैं हिटदु जाणु छौं.......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
30.5.13

Monday, May 27, 2013

"जडों से दूर"


जुदा होकर हम,
पंख लगाकर उड़ चले,
कुछ पाने की चाह में,
आंखे मूंदकर,
उड़ने की गति,
इतनी तीव्र,
दिशा भी भूल गए,
हमारा विकास तो हुआ,
नतीजे सुखद नहीं,
पाया कम,
और खोया ज्यादा।

मन में एक पीड़ा,
ऐसी रहती है,
जो बार बार,
याद दिलाती है,
अपनी जड़ों की,
और मन में,
लौटने की चाह भी,
पैदा करती है।

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, 27.5.13

Monday, May 13, 2013

"स्वर्गवासी माँ"



बहुत याद आती है,
मन मष्तिक में आज,
उभरते हैं वो बीते पल,
जो माँ की निर्मल छाया में,
सुखद हो बिताये थे,
अहसास होता है हर पल,
आज माँ नहीं है,
हो गया हूँ अनाथ,
कामना है मेरी,
माँ  मुझे पुनः मिले,
आपका साया और साथ....

मैं सोता था और आप,
हाथ चक्की घुमाकर,
पीसती थी गेंहू,
क्योंकि मुझे,
स्कूल जाना था,
जहाँ पर आज हूँ मैं,
मेरा स्वर्णिम भविष्य,
बनाना था....
 

आपके उपकार का,
मैं क्या मोल अदा करूँ?
निशब्द हूँ आज,
माँ मेरे पास सब कुछ है,
कमी है एक बात की,
आज आप नहीं हो,
आपकी यादें मेरे पास,
मंडरा रही हैं,
अहसास होता है,
अदृश्य हो आप मुझे,
पुकार रही हो माँ,
मत हो उदास,
मैं तेरे पास  ही हूँ,
हर पल सर्वदा....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 
13.5.2013

मलेेथा की कूल