Thursday, January 31, 2013

"नसीब"



मेरा यही है हंसोगे आप,
मेरी तरह कई इंसान जीते हैं,
तुम्हे क्या मतलब,
हमारी जिंदगी से,
हम अपने अंदाज में,
जिंदगी जीते हैं,
नहीं ख्वाइस हमें कोई,
जुगाड़ करके जिंदगी,
इस तरह जीते हैं,
दर्द दिख रहा होगा,
आपको हमारी जिंदगी में,
"नसीब" के सहारे जीते हैं
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
31.1.2013 सर्वाधिकार सुरक्षित 
 

Wednesday, January 30, 2013

"जानना चाहोगे"


किसने किया मेरा ये हाल,
कैसे हुआ मैं कंकाल,
धरती पर था मैं एक इंसान,
करता था मतदान,
बनती थी उनकी सरकार,
पेट मेरा भरा नहीं,
मजदूरी करता था,
स्वयं मैं मरा नहीं,
मुझे मार दिया उन्होने,
अपने पेट की आग,
बुझाने के लिए,
मंहगाई बढ़ा बढ़ा कर,
क्या करूँ,
आज हूँ मैं एक कंकाल..

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
30.1.2013
 

Tuesday, January 29, 2013

"धन सिंह"


धापड़ी खाण लग्युं थौ,
वैकु क्वी  भट्याण लग्युं थौ,
औ हे झटपट, भुला हे धन सिंह,
आज हम्न जाण भौत दूर,
चन्द्रबदनी मंदिर  का न्योड़ु,
मोल्ठा, कैलोगी, भराड़ी धार,
जख बल काफ़ळ पक्याँ हपार...
जब पौंछ्यन ऊ बांज का बण मा,
देख्यन ऊन पक्याँ  काफ़ळ,
चढ्यन धमा धम ऊ डाळौं मा,
पैलि खैन काफ़ळ लाल रसीला,
काचा पाका ठोबरी फर,
फेर खैन भ्वीं मा लोण राळिक,
अचाणचक्क! लखि बखि बण मा, 
दूर कखि रिक्क खिंक्याई,
घौर भागिन फाळ मारिक...
धन सिंह की ज्युकड़ी तब बल,
जोर जोर सी धक्द्याई,
कुल देव्तौं की वैकु याद आई,
ऊँचि धार ऐंच बैठि  थौक खाई....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्लाग पर प्रकाशित,
३०.१.२०१३  

"कखन खाण भुला त्वैन"



नखरी भलि ब्वै का हात की,
भेजिं वे पहाड़ बिटि,
तरसेणु सी रैलि तू,
बचपन मा चाखिं खयिं,
अपणा मुल्क घर गौँ मा,
याद आज भी औन्दि होलि,
पैणु पात, स्वाला, पकोड़ा,
चूड़ा, बुखणा, आरसा, रोटाना,
पिंगलु कंक्र्यालु घरया घ्यू,
कोदु, झंगोरू, कौणी, कंडाळी,
चुक्युं आज सब्बि धाणि,
ब्वै बुबा छन स्वर्गवासी,
त्वैन भी पहाड़ छोड़यालि,
त्वैकु आज टरकणि,
"कखन खाण भुला त्वैन"......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्लॉग पर प्रकाशित
29.12013

Saturday, January 26, 2013

"पहाड़"


पर्वतजन को ही नहीं,
सबको प्यारे लगते हैं,
जंगलों का हरा आवरण ओढ़े,
दूध जैसी बहती जल धाराएँ,
घाटियौं में बहते निर्मल नीर की,
नदियों  की मालाएँ,
पर्वत शिखरों पर सफेद,
टोपीनुमा ऊँची चोटियाँ,
सुन्दरता इतनी पहाड़ की,
जहाँ विचरण करते हैं, 
देवी, देवता और परियाँ,
जिसकी जन्मभूमि पहाड़ हो,
सौभाग्य है उसका,
कवि "जिज्ञासु" की अनुभूति है,
जन्मभूमि पहाड़ के प्रति,
बागी-नौसा गाँव जहाँ, 
कुलदेवी चन्द्रबदनी मंदिर के पास......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित  अवं प्रकाशित 
27.1.2013 

Wednesday, January 23, 2013

"मित्रता का इजहार कैसा"

पीठ पीछे हथियार छुपाकर,


मुँह में राम राम,

बगल में छुरी जैसा,

फिर भी अगर,

शांति के लिए संवाद,

पहल बुरी नहीं है,

ऐसा नहीं होना चाहिए,

कहीं पे निगाहें,

कहीं पे निशाना,

तू डाल डाल,

मैं पात पात

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
15.1.13

"भै बन्धो"


आज मैं जाण लग्युं,

रौंत्याळी अखोड़ी,

सच बोला त,

दर्द भरी दिल्ली छोड़ी,

द्वी चार दिन मा,

जरूर बौड़िक औलु,

नौकरी का बाना,

जन्मभूमि गढ़वाल छोड़ी..... 

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"

16.1.2013

"पसरा हुआ पथ"

प्रकृति के रंग रूप,
सर्वत्र फैली हुई धूप,
सतरंगी इंद्र धनुष,
छटा बिखेरता धरा पर,
निहारता है इंसान जब,
हर्षित हो उठता है मन,
किधर जा रहा है पथ,
न जाने किस शहर की ओर,
धरती पर हो रही है भोर,
पसरा हुआ है पथ,
न जाने किसकी इंतज़ार में,
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
22.1.2013

"बहुमूल्य बूँद बूँद जल"


जल बिन जीवन,

कैसे सकता है चल,

बहुमूल्य हैं बूँद बूँद,

भविष्य के लिए,

अभी बचाओ जल,

नहीं तो दर्द भरा,

होगा हमारा कल,

बिन जल घोर अमंगल,

इंसान के लिए,

अति आवश्यक है,

जल और जंगल,

बहुमूल्य बूँद बूँद जल......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"

23.1.13

"आपका ख़त"


हमारे पास भी आय़ा,

हमारे लिए नहीं था फिर भी,

फेसबुक हमारे पास लाया,

पढ़कर पता लगा,

आपकी कुशल क्षेम का,

कामना है,

ये ख़त आपके उन तक,

जरूर पहुंचा होगा,

जबाब का इन्तजार,

हो सके तो जरूर करना 

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"

"बिखर रहा बचपन"


तन मन मेरा नन्हा,
बिखर रहा बचपन माटी में,
मुझे पता नहीं है,
निश्चिंत हो माटी के संग,
खेल रहा हूँ,
ऐसा है बचपन मेरा,
बीतने पर नहीं लौटेगा,
मुझे पता नहीं है,
मैं तो मस्त हो माटी में,
एक अलख जगा रहा हूँ,
बीता होगा बचपन आपका,
माँ और माटी के संग,
याद दिला रहा हूँ।
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
24.1.2013


 

Monday, January 14, 2013

"मैं पवित्र गंगा"



आपकी नजर में भी,
फिर क्यों,
मैली करते हो मुझे?
जबकि मै मैली हो गई,
आपके तन के मैल,
और पापों को धोते धोते,
किसने कहा आपको,
मुझे अपवित्र करो,
क्या चाहते हो आप,
कि मैं ऐसा कहूँ,
करूणा करते करते,
मुझे अपवित्र मत करो,
मैं अगर रूठ गई,
कुपित होकर चली गई,
फिर एक भागीरथ को,
जन्म लेना होगा,
मुझे फिर धरती पर,
लाने के लिए,
मेरा विलुप्त होना,
अभिशाप होगा,
धरती पर मानव,
और प्रकृति के लिए,
ऐसा न हो,
मेरी पवित्रता का,
सम्मान करो,
"मैं पवित्र गंगा" हूँ
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
 सर्वाधिकार सुरक्षित ब्लॉग पर प्रकाशित,
14.1.2013 

"कविमन कू दर्द"

कविता का रूप मा,
प्रगट करदु छ कवि,
अपणि कलम सी,
आखर लिखिक,
कोरा कागज फर,
अनुभूति का रूप मा....
जन्मभूमि छोडण कू दर्द,
कर्मभूमि मा,
प्रवास भुगतण  कू दर्द,
भाषा की दुर्गति कू दर्द,
विलुप्त होन्दि संस्कृति कू दर्द,
जन्मभूमि पहाड़ फर,
पैदा होन्दि प्राकृतिक,
बेदर्द आफत कू दर्द,
बिना बात पहाड़ की,
शान मा खलल पैदा करदा,
लोभी मनख्यौं का,
मचैयाँ उत्पात कू दर्द,
हिमालय का चून्दा,
तरबर आँसू कू दर्द,
गंगा यमुना का,
बगण का बाटा मा,
खलल पैदा होण कू दर्द,
प्रदूषण का कारण,
प्रकृति मा पैदा होंदा,
विकार कू दर्द,
उजड़दा बजेंदा घर गौं की,
दुर्गति कू दर्द,
टूट्दा रिश्तों की डोर,
बिखरदु समाज,
आधुनिकता कू आडम्बर,
संवेदनहीनता कू दर्द,
बेटी एक बोझ छ,
मनख्यौं का मन मा,
पैदा होन्दि गलत बात,
जू एक दर्द छ,
कविता का रूप मा,
"कविमन कू दर्द"....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
 सर्वाधिकार सुरक्षित ब्लॉग पर प्रकाशित,
14.1.2013 

Friday, January 11, 2013

"पीठ मा पहाड़ मुण्ड मा पहाड़"



देखि होलु तुम्न वे प्यारा पहाड़,
माँ बैणयौं कू उठैयुं हंसी ख़ुशी मन सी,
पहाड़ का बाटौं फुंड ऊद्यारी ऊकाळी,
पीठ मा पहाड़ मुण्ड मा पहाड़....

हँसी ख़ुशी मन सी करदु रन्दि छन,
ज्व छ उंकी धाण-ज्व छ उंकी धाण,
सोच्दि भी मन मा प्यारा पहाड़ छोड़ी,
बिराणा मुल्क हे क्यौकु हम्न जाण,
जनु भी मिललु यख लग्युं ज्यू पराण,
देखि होलु तुम्न वे प्यारा पहाड़,
माँ बैणयौं कू उठैयुं हंसी ख़ुशी मन सी,
पीठ मा पहाड़ मुण्ड मा पहाड़...

छोया ढुंगयौं कू पाणी पेन्दी,
हेरदि प्यारी हिंवाळी कांठी,
हैंस्दी रन्दि छन वे प्यारा मुल्क,
अफुमा सुख दुःख तैं बाँटी,
देखि होलु तुम्न वे प्यारा पहाड़,
माँ बैणयौं कू उठैयुं हंसी ख़ुशी मन सी,
पीठ मा पहाड़ मुण्ड मा पहाड़...

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
11.1.2013


"ये कलजुग मा"




जू चोरिक खालु, बल मौज मनालु,
लुकारी मवासी धार लगालु,
नितर भूकन प्राण चलि जाला,
मेहनत की खावा, चाहे फ़ोकटये कलजुग की,
जू बल चोरिक खाला,
ऊँ तें लोग इज्जतदार बताला,
चाहे मन बेमन सी,
यना इज्जतदार मनख्यौं की,
जमात अगनै बढदु जालि,
सैत हि क्वी कमी आलि,
ये कलजुग मा
कै हुश्यार मनखि,
अक्ल कू प्रयोग करिक,
दिन रात दुगणा,
फ़ोकट मा पैंसा कमौणा,
खूब खाणा हजम होणा,
ऊंकी बातु मा फंसिक,
सारी पृथि पिथ्याँ मनखि,
कुजाणि क्या क्या होणा,
अपणि संस्कृति धार लगौणा,
ये कलजुग मा
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
8.1.2013      


मलेेथा की कूल