Thursday, January 29, 2015

बुरांस खिल्‍युं....

डांड्यौं मा,
बणांग लगौणु छ,
तुम भी हैंसा मेरी तरौं,
बात बतौणु छ.....

बुरांस की बात बिंगि,
मन खुश होणु छ,
सच छ जिंदगी कू यू,
ऊलार औणु छ.....

किलै औन्‍दु होलु बुरांस,
हमारा मुल्‍क मा,
कुतग्‍याळि सी लगै जान्‍दु,
हमारा मन मा......

आलु मौळ्यार जाला भग्‍यान,
प्‍यारा पहाड़ मा,
हेरला अपणि आंख्‍यौंन,
बुरांस खिल्‍युं छ......

पाख्‍यौं मा हैंस्‍दि फ्यौंलि भी,
मैत अयिं छ,
तै बौळ्या बुरांस हेरिक,
रंगमत होयिं छ.....

फूल्‍युं फूल बुरांस कू,
पहाड़ की पछाण छ,
ज्‍यु मा यनु औणु छ,
बुरांस हेरण जाण छ.....

जुगराजि रै बुरांस तू,
हमारा मुल्‍क औन्‍दु रै,
खित्‍त हैंसि हैंसिक,
कुतग्‍याळि लगौन्‍दु रै....

डांडयौं मा खिल्‍युं बुरांस,
बणांग लगौणु छ,
खुश हि रणु जिंदगी मा,
यनु बतौणु छ.......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
30.1.2015, दोपहर 1 बजे
सर्वाधिकार सुरक्षित

मेरा लाल.....


उत्‍तराखण्‍ड की,
धरती बोन्‍नि छ,
ह्वैग्‍यन मेरा कुहाल,
नि लेन्‍दा जल्‍म तुम,
मेरी सजीली गोद मा,
नि होन्‍दा मेरा यना हाल,
निराशेक बणि छ बिकराळ,
बांदर सुगंर कन्‍ना छन राज,
बांजी पुंगड़ि टूट्यां कूड़ा,
यू हि रैग्‍यन अब यख,
बंजेणु छ कुमाऊं गढ़वाळ,
कुछ त सोचा,
हे मेरा लाल.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
रचना स्‍वरचित एवं ब्‍लाग पर प्रकाशित
दिनांक 11.11.14

तेरा गौं कू नौं.....


प्‍यारा दगड़्यौं.....

कुलदेवी माँ चन्‍द्रबदनी की,
अषीम कृपा सी,
आपकी दुआ सी मैं,
30 नवम्‍बर, 2014 कू,
प्रिय नाती का,
दादा बणिग्‍यौं,
जल्‍म लेण का कारण,
बोला त बुढ़या ह्वैग्‍यौं,
जन कि लाेग बोल्‍दा छन,
भारी खुश होयुं छ,
यू मेरु कविमन,
खुशी कू रैबार अपणु,
आप सब्‍यौं तक,
पौंछौणु छौं,
प्‍यारा दगड़्यौं.....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु",
दिनांक: 01.12.2014

मेरा दगड़या श्री जयप्रकाश पंवार प्रकाश जी


नयुं साल 2015


ह्युंद का दिन लग्‍यां छन.....

ह्युंद का दिन लग्‍यां,
हरि बोला जी,
जाडडु भौत होणु छ,
आंखा कंदूड़ खोला जी....
लत्‍ता कपड़ा खूब पैरा,
शरील ढ़कै रखा जी,
चुल्‍ला की आग तापा,
मोटी रजै ओढा जी....
गरम सरम खूब खवा,
थोड़ी थोड़ी पेवा जी,
ढिक्‍याण मुख रखिक,
फंसोरिक सेवा जी....
आलु मौळ्यार जब बौड़ि,
ह्युंद तैं अड़ेथा जी,
हर ऋतु कू अपणु मजा,
भला भाग हमारा जी.....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु",
मेरा कविमन कू कबलाट कविता का रुप मा
दिनांक: 6.1.2015

लग्‍द बग्‍द लग्‍युं छौं.....

मेरा नौना कू ब्‍यो छ,
कखि सौदा पत्‍ता होणु,
न्‍युतेरु तैं न्‍युतु दियेणु,
हबरि मन मा डौर लगणि,
क्‍वी लंगि संगि छूटि न जौ,
वनत मैंन फेसबुक मा,
कार्ड पोस्‍ट करियालि,
जू प्रेमी औण चालु,
हृदय सी स्‍वागत छ....
मेरु ज्‍यु पराण यनु हिछ,
सोचि ब्‍यो पहाड़ प्रेम मा,
अपणा गौं मुल्‍क मा हो,
मेरु गौं, कुल देव्‍ता,
पित्र देव्‍ता,ग्राम देव्‍ता,
मेरा गौं का मनखि,
सैत भारी खुश होला....
पेणी पाणी कू बंदोबस्‍त,
बल दिदा जरुरी होयुं चैंदु,
खराण्‍यां ह्युंद लग्‍युं छ,
तब त ढ़िक्‍याण की भी,
जरुरत कतै निछ दिदा,
सैडि रात मण्‍डाण लगलु,
नाची नाची रात कटलि,
ढ़ोल दमौं मुस्‍क्‍या बाजु,
वेकु बंदोबस्‍त होयुं छ,
अपणि जिंदगी मा मैं,
बैण्‍ड बाजा कू विरोधी छौं,
वैसी प्‍यारु हमारु,
उत्‍तराखण्‍डी ढ़ोल छ....
कवि छौं लिखि दिनि,
मन मा भौंकुछ न सोच्‍यन,
मन की बात पेट मा,
कतै मेरा पचदि नि,
सोचि मैंन लिखि द्यौं,
किलैकि मेरा नौना कू ब्‍यो छ.....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
मेरा कविमन कू कबलाट
7.1.2015

फुरर उड़ि जा हे घुघति....

फुरर उड़ि जा हे घुघति,
प्‍यारी सुवा का पास,
राजि खुशी छौं कि ना,
लगिं होलि सास....
ऊ जमानु अब बितिगी,
मोबाईल मेरा पास,
घुघति मू रैबार नि देन्‍दु,
होयिं छ ऊदास.....
कब्‍बि सुवा ऊदास रंदि थै,
आज घुघति ऊदास,
कू देलु रैबार वीं मू,
आज लगिं रंदि सास.....
दिन सब्‍यौं का, औन्‍दा जान्‍दा,
यीं धरती मा, सच्‍ची छ या बात,
हे कनु जमानु ऐगि अब,
कंदुड़यौं फर छन हात.......
भुला मनोज रावत (बौल्या) द्वारा लिख्‍यां गढ़वाळि गीत पढ़िक मेरा कविमन मा यनु कबलाट पैदा ह्वै।
7.1.15

द्वी दिन की जिंदगी......

सच माणा न माणा,
सच छ दिदौं,
लग्‍दु यनु सच हिछ,
औन्‍दु मनखि जान्‍दु भी,
खौरि का दिन बितौन्‍दु मनखि,
कनि असंद औन्‍दि छ,
या जिंदगी हमारी,
हैंसौन्‍दि रुऔन्‍दि छ.....
हैंसि हैंसि जिंदगी,
अपणि जीवा,
यांहि मा रंगत भारी छ,
सब कुछ हात हमारा दिदौं,
जिंदगी या प्‍यारी हमारी छ.....
तैं बुरांस की जिंदगी देखिक,
सबक हमतैं लिन्‍यु चैन्‍दु,
ऋतु मौळ्यार मा खिल्‍दु बिचारु,
दुख वेका मन मा भी होला,
हैंस्‍दु छ अर हैंसौंन्‍दु......
भला बुरा कू ख्‍याल रखा,
परमपिता कू ध्‍यान करा,
माता पिता गुरु की सेवा,
जौंका आशीर्वाद सी मिल्‍दा,
द्वी दिन की जिंदगी मा हमतैं,
आशीर्वाद रुपी मेवा.....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
मेरी कविता का द्वार आपका स्‍वागत मा ऊगाड़ा छन, कविता मेरी छ, यींकु रंग रुप कू आनंद लेवा, कनि लगि मन की बात लिखा, उत्‍साहवर्धन का खातिर।
रचना स्‍वरचित एवं ब्‍लाग पर प्रकाशित
दिनांक 8.1.15 समय 10 बजि सुबेर

दादा बणिक....


भारी खुश होणु छ,
सुखद अहसास होणु छ,
पोता देखिक मन,
जब जब रोणु छ,
खुग्‍लि फर उठैक,
नाती तैं नचाैणु छौं,
बोल्‍दन बल,
पूत सी सूत प्‍यारु होन्‍दु,
सच मा अहसास होणु छ,
सौभाग्‍य मेरु,
दूसरा नौना कू ब्‍यो,
14-15 जनवरी कू होणु छ,
मैं कामना करदु,
यनु सौभाग्‍य दगड़यौं,
जिंदगी मा अापतैं भी मिलु,
मन बुरांस का फूल की तरौं,
आपकी मौळ्यार रुपी,
जिंदगी मा,
दादा बणिक खिलु......


-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
8.1.2015, दोपहर 1.15

Wednesday, January 28, 2015

घौर ऐ जवा....


कथगै दाना मनखि,
अपणा पहाड़ का,
सेवा निवृत्‍ति का बाद,
महानगरु मा,
बुढ़ेन्‍दा का दिन,
बितौणा छन....

पहाड़ ऊं तैं,
मुसीबत का पहाड़,
लगणा छन,
अपणु मन बिळ्मौणा छन,
पहाड़ ऊंकी जग्‍वाळ मा छन,
हे अब त अवा,
धरती छोडण सी पैलि,
उत्‍तराखण्‍ड की धरती कू,
श्रृंगार त करा,
कूड़ी तुमारी खंड्वार,
पुंगड़ि बांजा पड़ीं छन,
किलै मरी तुमारु मन,
घौर ऐ जवा...
-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
 का कविमन कू कबलाट
सर्वाधिकार सुरक्षित
दिनांक 29.1.2015 11.20 पूर्वाह्न


मलेेथा की कूल