Wednesday, April 24, 2013

"गौं बसावा -हिमालय बचावा"


हिमालय का आंसू पोंजा,
अर लगावा डाळी,
सृंगार होलु पहाड़ कू,
फैललि फेर हरियाळी......

किलै बंजेणा घर गौं?
पर्वतजन का मन की बात,
सुणा ऊंका धोरा जावा,
कनु विकास चैंदु ऊंतैं,
दर्द क्या छ ऊंकू आज,
बिंगा अर बिंगावा.....

आज पाणी हरचणु छ,
द्योरू कम बरखणु छ,
हर साल पहाड़ फर,
आफत भौत औणि छन,
डरयुं आज पर्वतजन....

डाळी, पाणी पहाड़ का,
सच मा सोचा,
हे ज्यू पराण छन,
बग्त आज धै लगाणु,
जू भी कन्न, हम्नै कन्न,
"गौं बसावा -हिमालय बचावा"....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
"गाँव बसाओ, हिमालय बचाओ" आन्दोलन को समर्पित मेरी ये रचना.
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, E-mail: jjayara@yahoo.com
Ph.09654972366, 25.4.2013
http://www.facebook.com/events/287925621341233/298102613656867/?notif_t=plan_mall_activity

Tuesday, April 16, 2013

"पानी बनो"


शर्म से नहीं,
सुन्दर कर्म से,
पलायन कर चुके,
पर्वतजन से एक प्रश्न?
देखो, पानी पहाड़ से,
अपनी यात्रा शुरू करता है,
आपकी तरह,
और नदियों में बहता हुआ,
आस्तिकों के,
तन मन का मैल,
धोता हुआ,
और अंत में,
मिल जाता है,
अथाह सागर से,
फिर लौटता है,
बादल बनकर,
बरसता है पहाड़ पर....


पर्वतजन शहर से लौटकर,
पहाड़ को आते जाते,
जन्मभूमि का सृंगार कर,
चार चाँद लगाते,
पानी की तरह पहाड़ से,
हमें भी प्यार है,
अहसास कराते......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित, ब्लॉग पर प्रकाशित,
17.4.2013







"नदी का पानी"


उद्गम मेरा हिमालय है,
अविरल मैं बहता जाता,
कहीं बीच भंवर में फंसता,
कभी किनारों से टकराता....

पञ्च प्रयागों से गुजरता,
आस्तिकों के पाप हूँ धोता,
शुभ पर्व महापर्वों पर मुझे में,
नहाकर यात्री खुश है होता....

उनके तन मन का मैल,
मुझ में है मिल जाता,
अपने पथ पर अग्रसर मैं,
बहता जाता बहता जाता....

आस्था के क्रूर प्रहारों को,
सहते सहते अपने पथ पर,
मिल जाता हूँ सागर में,
मिलन की चाह में समाकर....

फिर मेघदूत मुझे सागर से,
उठाकर हैं लाते,
गरज गरजकर अम्बर से,
धरती पर हैं बरसाते....


लौट आता हूँ आलय अपने,
मिलने फिर हिमालय को,
बहता हूँ युगों युगों से,
मैं "नदी का पानी" बनकर,
जीवनदायिनी गंगा में......


-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षति, ब्लॉग पर प्रकाशित

16.4.13














Monday, April 15, 2013

"थमाळी"

जैंकु रूप देखिक यनु लगदु,
काटदि होलि या,
लगोठ्या बाखरौं की धौण,
कै मनखि का हाथु सी,
काल बणिक......
 
लगोठ्या बाखरा,
जू कैकु कुछ नि बिगाड़दा,
घास पात ही खान्दा,
मनखि स्वाद का खातिर,
रड़कै देन्दा उंकी धौण,
लोखर की थमाळीन.....

कै मनखि जब,
गुस्सा मा थमाळी,
कै फर माप्यौन्दा,
द्वी चार भै बंध,
कठ्ठा ह्वैक समझौंदा,
पर उबरि न,
जब लगोठ्या बाखरौं की......
धौण थमाळीन रड़कौन्दा,
कछमोळी, रस्सी, भात,
शिकार खाण कू,
मन मा भारी खुश होन्दा,
क्या बोन्न "थमाळी"?
तेरी माया अपार छ,
लगोठ्या बाखरौं की,
धौण की तू दुश्मन.......
 
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित,
ब्लॉग फर प्रकाशित
तस्वीर श्री करण सिंह कथायाट, पिथौरागढ़  

Friday, April 12, 2013

"गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ"




वक्त की पुकार है, पर्वतजन लाचार है,
सूख रहे हैं जल श्रोत, जल जाते हैं जंगल,
पर्वतजन और जंगल का, रिश्ता टूट गया,
ऐसा क्यों हुआ? सोचो! जो है घोर अमंगल....


बाघ झपट रहे हैं इंसानों पर, क्यों खूंखार है?
सूअर, बन्दरों का उत्पात, क्या बात है?
प्रदूषित हो रहा है पहाड़, पर्यटकों का उत्पात है,
क्यों उजड़ रहे घर गाँव? दुर्भाग्य की बात है,
पहल अब करनी ही होगी, बग्त की बात है....


गाँव गाँव पर्वतजन से, मन की बात जानना,
गाँव कैसे हों आबाद? उनके क्या जज्बात हैं,
प्रश्न है आखिर पहाड़, उजड़ते गाँवों की दशा,
बंजर होती कृषि भूमि, उखड़ा पर्तजन का मन,
एक हल ढूँढना ही होगा, हमारे आपके हाथ है....


पर्वतजन ठगा ठगा है, उसका पहाड़,
न जाने क्यों, उजड़ता ही जा रहा है,
गाँव उजड़े बहुत, आबाद भी न रह सके,
पहाड़ धर्य खोकर क्यों उत्पात मचा रहा है,

पहाड़ की परियोजनाएँ, किस काम की,
जिनसे विस्थापन पलायन ही होना है,
कौन करेगा आबाद, निराश पहाड़ को,
संकट में पर्वतजन, आज यही तो रोना है....



कैसे सृंगार हो पहाड़ का?
विरासत भी कायम रहे,
मन में एक भाव जगे, सबका है पहाड़,
हिमालय के आंसू निकलेंगे, सूखेंगी नदियाँ,
पहाड़ की रेख देख करने वाला पर्वतजन,
खुशहाल न होकर, अगर निराश रहे,
कुछ तो निराकरण होना ही चाहिए,
कवि "जिज्ञासु" का कविमन यही कहे,
"गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ".....


-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित, 12.4.2013
"गाँव बसाओ-हिमालय बचाओ" पदयात्रा अभियान के लिए रचित
http://www.facebook.com/SaveHimalayaMovememt

Wednesday, April 10, 2013

"फौजी बीरू भैजी कू पहाड़"


लिखि पड़िक भैजी,
पौंछिगे कालौं का डांडा,
फौज मा भर्ती होण,
मन मा वैका देश प्रेम,
मैन देश की रक्षा कन्न,
दुश्मन सी देश बचौण.....


भर्ती ह्वैक भैजी,
रंगरूट बणिक सीखण लग्युं,
कनुकैक दुश्मन भगौण,
अपणि रक्षा का खातिर,
दुश्मन का ठिकाणा फर,
लुकिक कनुकै गोळी चलौण......

देश की सेवा करदु,
अपणा मुल्क औन्दु जांदु,
जब बितिग्यन भौत साल,
फौज सी रिटायरमेंट ह्वैक,
रौण लगि देरादूण,
उत्तराखंड गढ़वाळ........


भौत साल बाद वैका,
मन मा गौं भ्रमण की,
एक इच्छा जागी,
मैं अपणा गौं जाणु,
यनु बतैक घर परिवार तैं,
यकुलि भौंरू बणिक भागी......


अपणा गौं मा पौंछिक,
पैलि गै फौजी भैजी,
जख थौ मंदिर अर मंडाण,
हाथ जोड़ी देवी देव्तौं कू,
मन मा वैका ऊमाळ आई,
कनि थै पैलि रीत रसाण......


फिर घूमि गौं बाखी मा,
वैकु बचपन का दगड़यौं की,
जौं दगड़ि हैंसी खेली खाई,
सुनसान टुट्याँ घर देखिक,
बदल्युं मिजाज गौं कू हेरी,
बित्याँ दिनु की भौत याद आई......


गौं का एक सुनसान घर मू,
वैकु एक बुढ्या नजर आई,
जैकु वैन जोर सी धै लगाई,
पर बुढ्या न सुणदु न देख्दु,
न्योड़ु पौंछि जब ऊ बुढ्या का,
मैं बीरू फौजी छौं बताई......


बीरू फौजी की बाच सुणिक,
बुढ्या दण मण रोण लगि,
न पूछ, हे! बेटा,
यु गौं अब समसाण ह्वैगि,
कैकि लगि होलि नजर,
देव्ता रूठिन या पित्र,
यख मनखि कम ही रैगि,
मैं दिन गैण्नु छौं जिंदगी का,
यूँ आंख्यौ का सामणी,
मोळ अर माटु ह्वैगि........


तेरी तरौं औन्दा छन,
परदेश बस्याँ गौं का लोग,
मेरु मन सब्यौं मू,
छकि छकिक रवैगि,
जा बेटा! ये गौं खातिर,
सदानि का खातिर,
घोर अंधेरु ह्वैगि......


फौजी बीरू भैजी कू पहाड़,
गौं भी आज उत्न बित्न ह्वैगि,
देखि दुर्दशा वैकु मन भि रवैगि,
या बग्त की बात या असगार,
मन मरिक वैकु ऊदास ह्वैगि.....


-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित, 10.4.2013
प्रिय मित्र मनीष मेहता जी की इच्छानुसार रचित, लोकरंग पर प्रकाशित
इक फौंजी बरसो बाद अपने पहाड़ लौटता है, देखता है कि जो पहाड़ वो छोड़ के गया था वो कही खो गया है, उससे अपनी बचपन और जवानी की सभी यादें आती है, क्या क्या था कहाँ चला गया, उदास होक पुरे गाँव में भ्रमण करता है, इक चौखट पे इक बुडा मिलता है नान आँख देख सकता है न सुन सकता है, जब उसको वो अपना परिचय देता है और पूछता है कहाँ गए सब लोग तो बुडा रो पड़ता है बस आँखों से आँसू छलक पड़ते है !
www.blog.lokrang.org

Tuesday, April 9, 2013

"पहाड़ कू बुरांश"


ऊँचा डांडौं ऐंच,
शिवजी कू कैलाश देखि,
भारी खुश होणु,
अयुं छौं मुल्क तुमारा,
खित खित हैंसिक,
तुमतैं छ बुलौणु...


शिवजी कू प्यारू,
देवतौं का देश मा,
औन्दु हर साल,
फयोंलि कू भैजि,
पहाड़ की पछाण,
बौळया स्यू बुरांश...


डांडौं की आँछरी,
बुरांश कू रंग देखि,
वैका रंग मा खोईं,
बुरांश बिचारू,
आँछरियौं तैं हेरि,
शर्मान्दु भारी...


जैन देखि होलु,
डांडौं ऐंच खिल्युं,
शर्म्यालु बुरांश,
ऋतु बसंत मा वैकु,
वैकि याद आली,
बुलालि हिल्वांस....


कवि लोगु का मन मा,
कुतग्यालि लगौंदु,
डांडौं कू रंगीलु बुरांश,
कवि "जिज्ञासु" की इच्छा,
ज्यू भरिक देखौं,
जब तक छ सांस...

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ऋतु बसंत-2013 9.4.13
लोकरंग ब्लॉग के लिए रचित एवं प्रकाशित

Monday, April 8, 2013

"हे चुचा ! त्वैन खै नि जाणि"




सदानि तू यनु हि रयैं,
एक मौका मिलि थौ त्वैकु,
भै बंधु की कृपा सी,
जौंकु त्वैन लगोठ्या बाखरा,
छुद्या करिक खलैन,
दारू का गैलण अर बोतळ,
अपणा हाथुन पिलैन,
यीं आस मा,
प्रधान बणिक मैं अपणु,
अपणि ग्राम सभा कू,
लोगु की नजर मा विकास,
ब्लाक का पैंसा सी करलु.....


त्वैकु माया मिलि न राम,
फैदा उठैग्यन चक्कड़ीत,
परसेंट खाण वाला,
अर तेरा सल्वै दगड़या,
अपणि गेड़ी कू खर्च करयुं भी,
क्या हसूल करि होलु त्वैन?
तेरी इमानदारी बतौणि छ,
" हे चुचा ! त्वैन खै नि जाणि"....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित, ब्लॉग पर प्रकाशित,
8.4.13

Sunday, April 7, 2013

"हला छोरा"

ऊंड बजौ तैं बाँसुळ,
देख ऊलारया मैनु लग्युं छ,
हमारा मुल्क मौळयार छयुं छ,
कुछ दिन मा कौथिग आला,
चल हे दगड़या!माल्डा का मेला,
गौं  का बाटा फुंड हिट्दु,
हमारा गौं का कौथगेर,
धै लगाला अर भट्याला....

आज मेरु मन अल्सेयुं छ,
कुजाणि क्यौकु ऊदास होयुं छ,
मन मा सेळी सी पड़लि तब,
दादु मेरी ज्युकड़ी ऊलारया छ,
मैं पहाड़ कू पोथलु,
बुरांश कू रसिया,
हिल्वांसि मन छ मेरु,
ऊंड बजौ तैं बाँसुळ,
मेरु ज्यु पराण खुदेयुं छ....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षति
7.4.13







 

Saturday, April 6, 2013

"लगोठ्या कख भागी"

असन्द बितिं छ ब्याळी बिटि,
बोडा बबड़ाट कन्नु छ,
हे बेटौं वे खोजिक ल्ह्यावा,
ज्यू पराण छ मेरु,
नितर मैन मरि जाण,
वैका बिना झट्ट पट्ट,
सच छौं बोन्नु तुमारा सौं.....

मरदि बग्त तुमारा दादाजिन,
दिनि थौ मैकु ऊ लगोठ्या,
यनु बोलिक जेठ्वाळी छ या,
सैंति समालिक़ रखि,
तेरि दादी तैं दैजा मिलिं,
तीलु बाखरी की निसाणि छ,
पर आज कनु अभाग आई,
"लगोठ्या कख भागी",
खोजा दौं हे! लाठ्यालौं.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित 6.4.2013

स्वप्न में.....



जनता की इच्छा से मैं,
उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बन गया,
कैसे हुआ ये? माथा मेरा ठन गया,
मैं नहीं बनना चाहता प्रिय जनता,
मैंने जनता को बताई लाचारी,
विकास हो उत्तराखंड का,
आपकी तरह ही है इच्छा हमारी...

मेरी अनिच्छा भांपकर,
कुछ कवि मित्र मेरे पास आए,
नतमष्तक हो समझाने लगे,
मौका हाथ से मत गंवाओ,
मौका मिला है जिंदगी में,
खाओ और कमाओ,
कवि सम्मलेन करवाओ....

रात खुल चुकी थी,
स्वप्न टूटा आँखे खुली,
सामने दीवार घड़ी नजर आई,
जय हो बद्रीविशाल जी,
मन से मैंने पुकार लगाई....

-कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा  "जिज्ञासु" 6.3.13
सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, April 5, 2013

"चलो, तुम्हें अपनी कलम से"


बिना देखे पहाड़ दिखाता हूँ,
उत्तराखंड के टिहरी जनपद,
देवप्रयाग विकास खंड में,
2756 मीटर की ऊँचाई पर,
चन्द्रबदनी एक सिद्धपीठ,
जहाँ आते हैं भक्त,
माँ भगवती के दर्शन के लिए,
जहाँ से दिखता है,
खूबसूरत उत्तराखंड हिमालय,
नई टिहरी, नई पौड़ी, खिर्शु,
दशरथांचल पर्वत,
उत्तर में खैंट पर्वत,
जहाँ अहसास होता है,
जैसे खड़ा हूँ खिले,
कमल के फूल के बीच में....


चन्द्रबदनी मंदिर में,
पहले भैंसे और बकरे की,
बलि देते थे लोग,
स्व स्वामी मन्मथन जी,
और स्थानीय जनता के,
भागीरथी प्रयास से,
1969 में ये प्रथा बंद हो गई,
सदा सदा के लिए....


देवी दर्शन के लिए,
चैत्र मास की अष्टमी को,
अगर आप चन्द्रबदनी जायेंगे,
खिले हुए लाल सुर्ख,
मनमोहक बुरांश के फूल,
आपका मन हर्षायेंगे,
मनोकामना भी पूर्ण होगी,
चन्द्रबदनी एक सिद्ध पीठ है....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाशित,
दिनांक: 5.4.2013



Thursday, April 4, 2013

"यादें बचपन की"


मन लगाकर पढता था,
पहाड़ की पठाळी से,
ढके हुए पारंपरिक घर की,
खूंटेलि में बैठकर,
जोनि के उजाले में,
तब पहाड़ में,
मिट्टी के तेल का दिया,
जलाते थे लोग,
बदचलन बिजली तब,
गाँव तक नहीं पंहुंची थी....


पिता जी पास ही बैठ,
हुक्का गुड़ गुड़ाते थे,
और छ्वीं लगाते थे,
रणु चाचा के साथ,
जब तमाखु ख़त्म हो जाता,
कहते थे पिता जी,
एक चिल्म और भर दे बेटा,
पढाई की तल्लीनता त्याग,
भरता था चिल्म,
रखता था अंगारे उस पर,
माँ कहती थी,
सारे अंगारे ले गया,
रोटी कैसे सेकूंगी.....

सामने के गाँव में,
एक दिन बाग आया,
जहाँ जोर जोर से,
भट्या रहे थे लोग,
बकरी ले गया है बाग़,
गाड की तरफ,
तब मैंने बाग़ को सामने,
आँखों से देखा नहीं था...

एक दिन गाँव के,
लोगों के साथ,
गया था लकड़ी के लिए,
हयुन्द के दिन थे,
अचानक पड़ने लगी बर्फ,
ठण्ड के मारे बुरा हाल,
गाँव की एक चाची,
सुझाव दे रही थी,
ठेणी से बचने के लिए,
पाँव में पेसाब करो....

भूतों की कहानी,
सुनता था सोते बग्त,
दादी जी से,
डर भी लगता था,
गाँव के एक बूढ़े ने,
रात में अपनी भैंस समझकर,
पकड़ ली थी पूँछ,
एक दैंत की,
जो घूमता था गाँव के,
चारों ओर और चला जाता,
गाँव के जंगल में.....


गाँव में बीता बचपन,
याद दिलाता है अतीत की,
शहर में कौन सोचता है,
"यादें बचपन की",
उभरती हैं मन में आज भी,
ये कवि "जिज्ञासु" की आदत समझो,
या एक प्रवासी पहाड़ी का मन....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षति
लोकरंग, दस्तक, पहाड़ी फोरम, मेरा पहाड़ फोरम, उत्तराखंडी लेखन प्रतिभा,
जयाड़ा बंधु एवं ब्लॉग पर प्रकशित
4.4.13

Tuesday, April 2, 2013

"एक दिन यनु भी आलु"

जिंदगी मा जेब भरदु भरदु,
एक दिन यनु आई,
सक्या समर्थ नि रै देह मा,
प्राण पोथ्लु सी ऊड़ि ग्याई,
कठ्ठा ह्वैन भला बुरा सब,
ऊन अर्थी हमारी सजाई,
कविताओं कू कायल मेरी,
एक प्यारू दगड़या आई,
सब्यौं कू बोलि वैन,
जरा कवि कू किस्सा टटोल़ा,
किस्सा फर कुछ नि मिलि,
होण लगि रौला धौला,
कैन बोलि क्या मिन्न थौ,
वैकु कविताओं कू लोभ थौ भारी,
पैंसा टक्का का फेर मा नि रै,
बस या हि थै वैकी लाचारी,
भलु भौत रै वैकी कविताओं सी,
लग्दि थै मन मा कुतग्याळी भारी,
आज चलिगी यीं धरती सी,
स्वर्ग मिल्यन हे बद्रीविशाल जी वैकु
आपसी सी अर्ज छ हमारी....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
3.4.2013

Monday, April 1, 2013

"मेरी लाचारी"



कख गैन मनखि,
घर बार त्यागि,
घर गौं हमारू टपराणु,
देळी मा बैठ्युं मंगतु बिचारू,
कख गैन दिदा आज ऊ दिन,
ऊदौळी ऊठणि मन मा वैका,
ऊदास ह्वैक बताणु...

मेरु भैजि परदेशी ह्वैगि,
घर गौं अब नि औन्दु,
मैकु भैजि की याद औन्दि,
मन अति ऊदास होंदु....

ब्वै बाब मेरा स्वर्गवासी,
भैजि फर हि थौ भारी सारू,
कखि मिललु बतैन वैकु,
दिदा तुम मेरी लाचारी...

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
रचना सर्वाधिकार सुरक्षित ब्लॉग पर प्रकाशित,
1.4.2013 दूरभाष: 9654972366















मलेेथा की कूल