Thursday, May 31, 2012

"मेरी माँ"


१४, नवम्बर-२००८ को,
मुझे सांय ५.३० पर,
गाँव से एक चाचा जी का,
फोन आया और बताया,
तेरी माँ को चक्कर आया है,
न जाने मरती है या बचती,
तू तुरंत घर आ....

मैं तुरंत रात की बस से,
श्रीनगर गढ़वाल के लिए,
माँ को देखने चल दिया,
१०८ नम्बर सेवा ने,
श्रीनगर ले जाकर,
मेरी माता जी को,
हस्पताल में भर्ती किया...

मैं श्रीनगर बेस हस्पताल,
माता जी को देखने गया,
बेहोश बेड पर लेटी थी,
माँ को निहारकर मेरा मन,
बहुत व्यथित हो उठा,
उसी दिन एम्बुलेंस से,
माता जी को देहरादून लाया,
आराघर, उनियाल नर्सिंग होम में,
भर्ती करवाया,
लकवे का दौरा पड़ने के कारण,
मेरी माँ की हालत दयनीय थी,
सोचता था, माँ अब नहीं बचेगी,
एक हफ्ते के इलाज़ के बाद,
अपनी प्यारी माँ को,
दिल्ली अपने पास लाया,
सोचता हूँ मेरे लिए,
माँ की सेवा करने का,
दूध का कर्ज चुकाने का,
मौका मिला है,
मेरी माँ आज बिस्तर पर,
असहाय लेटी रहती हैं,
ड्यूटी से जब सायं को,
घर माँ के पास जाता हूँ,
घर में घुसते ही,
आवाज लगता हूँ,
माँ आप कैसी हैं,
उनकी बूढी आवाज सुनकर,
मेरा मन खुश हो जाता है,
हर कोई चाहता है,
मेरी माँ हमेशा जिन्दा रहे,
लेकिन! एक दिन माँ,
सदा-सदा के लिए,
मुझे छोड़कर चली जायेगी,
जैसे स्वर्गवासी पिताजी की याद,
मुझे सताती है,
वैसे ही उनकी याद भी,
मुझे बहुत सताएगी,
अभी तो मेरी आँखों के सामने,
मौजूद है "मेरी माँ"......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१.५.२०१२

Tuesday, May 29, 2012

"कौन सी कविता सुना रहे हो"










कविवर,
कौन सी कविता सुना रहे हो,
क्या सात समुद्र पार,
उत्तराखण्ड की याद दिला रहे हो,
क्या जन्मभूमि के गुण गा रे हो,
कैसा होता है जीवन, 
उत्तराखण्ड निवासियौं/प्रवसियों का,
कविता में झलक दिखा रहे हो,
शायद गढ़वाली कविता सुनाकर,
अपनी भाषा का सृंगार कर रहे हो,
याद रखना! हे कविवर,
भाषा का सम्मान और प्रसार का,
दृढ संकल्प हमारा है,
जन्मभूमि उत्तराखण्ड,
हमें पराण से प्यारा है...
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
कवि मित्र विनोद जेठुड़ी के कविता पाठ पार मेरी कविता. 
३०.५.२०१२ 

Monday, May 28, 2012

"तिस्वाळु छ पहाड़"


गंगा यमुना कू मैत,
जख पाणी हि पाणी,
ज्या ह्वै होलु,
गंगा यमुना का मैत्यौं की,
तीसन गौळि छ  ऊबाणी,
कख हर्चिगी धारा मगरौं कू,
ठण्डु-ठण्डु छोया ढुंग्यौं कू,
निकळ्वाणि पाणी,
कसूर मनख्यौं कू हिछ,
जौन पहाड़ का पाणी की,
कदर करि नि जाणी...

बिन पाणी कू मनखि,
कनुकै सुखि रै सकदु,
भटकदु छ ज्यू पराण,
जब खबर मिल्दि छ,
गौं कू धारू सुखिगी,
पाणी की भारी किल्लत छ,
तब सोचा दौं,
अपणा प्यारा गौं,
गर्मियौं मा कनुकै जाण....

जख पाणी हि पाणी,
वख सुख की गंगा,
कनुकै होलु सुपिनु साकार,
पाणी की कदर करा,
पहाड़ मा डाळी बुटळि रोपा,
पाणी का छोयौं कू,
संरक्षण करा,
या भलि बात निछ,
आज "तिस्वाळु छ पहाड़".....
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड.
(सर्वाधिकार सुरक्षित 28.5.12) 

Friday, May 25, 2012

"गोलू जी महाराज"


चम्पावतगढ़ का कत्युरी रज्जा,
नाम थौ जौंकु झालुराई,
जन्म लिनि जौंका घौर,
गोलू जी आप न्यायकारी,
अयाँ छौं द्वार हे देव तेरा,
आप छन दूधाधारी,
दुःख दर्द दूर करदा,
हे देव आप अवतारी........

पंच देवतौं की बैण कालिंका,
हे गोलू जी माता तुमारी,
बाला गोरिया, गौर भैरव,
हे देव आप अवतारी,
अन्यायी को नाश करदा,
काठ का घोड़ा की सवारी,
दुःख दर्द  दूर करि देवा,
विनती छ देव हमारी,
अयाँ छौं द्वार हे देव तेरा,
आप छन दूधाधारी,
दुःख दर्द दूर करदा,
हे देव आप अवतारी........

तेरु वास हे गोलू देव,
चम्पावत, चितई, घोड़ाखाळ,
भक्तगण तेरी पूजा करदा,
प्यारा कुमाऊँ अर गढवाळ,
सच्चू न्याय हे देव तेरु,
पौन्दा छन लोग तेरा द्वार,
दुःख दर्द दूर होन्दा छन,
मन मा ख़ुशी होन्दी अपार,
अयाँ छौं द्वार हे देव तेरा,
आप छन दूधाधारी,
दुःख दर्द दूर करदा,
हे देव आप अवतारी.....

फल फूल अर नारियल,
चड़ौन्दा  दूध तेरा द्वार,
सच्चा मन सी जू याद करदा,
करदि छैं ऊँकू बेड़ा पार,
दया कू सागर हे देव तू,
भग्तु खातिर चमत्कारी,
अयाँ छौं द्वार हे देव तेरा,
आप छन दूधाधारी,
दुःख दर्द दूर करदा,
हे देव आप अवतारी.....
रचियता: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं  प्रकाशित २४.५.२०१२) 
प्रिय मित्र मनीष मेहता जी के अनुरोध  पर गोलू जी पर रचित मेरा गढ़वाली भजन
लोकरंग फाऊन्डेशन को समर्पित
www.lokrang.org

Wednesday, May 23, 2012

"कुयेड़ी की चादरी ओढि"

"बादलों  की चादर ओढ़े"

मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
मन में मेरे प्यार जगे,
देखता हूँ जब-जब,
अपना प्यारा पहाड़,
छुप जाते हैं कोहरे में,
घर, जंगल और झाड़,
मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
बादलों  की चादर ओढ़े,
अपना प्यारा पहाड़.....

बादल गरजे घड़-घड़,
चमके बिजली चम् चम्,
बरखा हुई पर्वतों पर,
भीग गए पर्वतजन,
घर, जंगल और झाड़,
मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
बादलों  की चादर ओढ़े,
अपना प्यारा पहाड़...

बस्गाळ्या बरखा लाती,
कोहरे को साथ,
छुप जाता है गाँव प्यारा,
कोहरे की ओट में,
तब, ठिठुरते हैं हाथ,
झूमते हैं पेड़ प्यारे,
जंगल और झाड़,
मुझे प्यारा-प्यारा लगे,
बादलों  की चादर ओढ़े,
अपना प्यारा पहाड़...

 "कुयेड़ी की चादरी ओढि"

मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
मन मा मेरा प्यार जग्दु,
देख्दु छौं जब-जब,
अपणु प्यारू पहाड़,
लुकि जान्दा कुयेड़ा मा,
घर, जंगळ अर झाड़,
मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
अपणा प्यारा  पहाड़.....

द्योरू गिगड़ान्दु घड़-घड़,
बिजली चम्कदि चम् चम्,
बरखा ह्वै पहाड़ फर,
भिगिग्यन  मनखी सब्बि,
घर, जंगळ अर झाड़,
मैकु प्यारा-प्यारा लग्दा,
कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
अपणा प्यारा  पहाड़.....

बरखा ल्ह्यौन्दि दगड़ा अपणा,
स्या पापी कुयेड़ी,
जैंका पिछनै छिपि जाँदा,
हमारा प्यारा गौं,
ठँड लग्दि हात खुट्यौं मा,
झुम्दा छन डाळा बुटळा,
जंगळ अर झाड़,
कुयेड़ी की चादरी ओढ्याँ,
अपणा प्यारा  पहाड़.....
(रचियता एवं गढ़वाली रूपान्तरण कर्ता)
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" 
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.५.१२)
लोकरंग फाऊन्डेशन को समर्पित 
www.lokrang.org

Narayan Semwal nice sir g.........................

Manish Mehta वाह बेहतरीन रचना ! पहाड़ को सामने रख दिया आपने

Bhagwan Singh Jayara बहुत सुन्दर भाई साहब ,,,,,



  • Bhishma Kukreti t achkaal hindi pr jor ch
    badhai badhai



  • जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु माननीय कुकरेती जी...जोर त मेरु गढ़वाली फर हिछ पर क्या कन्न, जब क्वी दोस्त हिंदी मा टोपिक लिख्दु त मेरु मन हिंदी कविता लेखन की तरफ चली जान्दु...आपकु हौसला बढौण का खातिर आभार
    25 minutes ago · 

  • Bhishma Kukreti very nice

Tuesday, May 22, 2012

"रोठ्ठी का जुगाड़ मा"


पहाड़ मा भि रंदु थौ,
प्रवास  मा  भि रंदु छौं,
सुबेर बिटि ब्याखना तक,
नौकरी की आड़ मा,
अल्झ्युं अल्झ्युं रंदु छौं,
उलझनु  का झाड़ मा,
मिलि जौ मैकु यथगा,
जीवन मेरु सुधरि जौ,
रंदु छौं ताड़ मा,
सोच्दु छौं,
प्रवास बिटि खाली हात,
क्या बुढापु ल्हीक जौलु,
अपणा प्यारा पाड़ मा,
बोल्दु छ पहाड़ मैकु,
कब तक रैल्यु,
मै सी दूर दूर,
नि देखण त्वेन रंग रूप मेरु,
लिख्दु ही रैल्यु कविता मै फर,
हे ! कवि  "जिज्ञासु" तू,,
अर ऊल्झ्युं ही रैल्यु,
"रोठ्ठी का जुगाड़ मा".....

 "रोटी के जुगाड़ में"

पहाड़  में भी रहता था,
प्रवास में भी रहता हूँ,
सुबह से शाम तक,
नौकरी की आड़ में,
उलझा उलझा रहता हूँ,
उलझनों के झाड़ में,
मिल जाये मुझे इतना,
जीवन मेरा सुधर जाए,
रहता हूँ ताड़ में,
सोचता हूँ,
प्रवास से खाली हाथ,
क्या बुढ़ापा लेकर जाऊंगा,
अपने प्यारे पहाड़ में,
कहता है पहाड़ मुझे,
कब तक रहेगा,
हे ! कवि  "जिज्ञासु" तू,
मुझ से दूर दूर,
नहीं निहारेगा सौंदर्य मेरा,
लिखता ही रहेगा,
कविताएँ मुझ पर,
और उलझा ही रहेगा,
"रोटी के जुगाड़ में"...
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु",
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २२.५.१२) 

  • Madhuri Rawat सच इस रोटी के जुगाड़ में ही तो पड़े हैं यहाँ वहां हम ....काश हमारा पहाड़ हमें रोटी देने में सक्षम होता तो इतना पलायन भी नहीं होता
    15 hours ago · 
  • Bhishma Kukreti Matbal kuchh ni pai ...

  • Naresh Chamoli Roti is required, roti rukhi ho rahi hai, roti rooth jayegi. migration to wo karwa rahi hai. ROTI PAIDA KARNE KI SOCH PAIDA KAREN> CHALO PAHAD.
    19 hours ago · 

  • Deepp Negi Yan PAdhee ke te ron ee jaandu..!! bahut badhiya cha likhu
    12 hours ago · 

  • Harish Jakhwal Kya bat hai sir bahut sahi bat kahi aapne

Monday, May 21, 2012

"शेरदा अनपढ़" जी.. कविवर बौड़िक ऐन..


आखिर!
आप कविवर,
यीं धरती सी दूर,
चलिग्यन, कुजाणि कख,
कालजयी,
कुमाऊनी कविताओं कू,
सृजन करिक,
अनंत की ओर.....

हमारा प्रिय स्वर्गवासी,
जनकवि "गिर्दा" जी तैं,
धरती का हाल बतैन,
ऊँका चाण वाळौं की,                                                                       
विरह मा व्यथित,
मन की बात बतैन,
ह्वै सकु त फिर,
"गिर्दा" जी का दगड़ा,
नयुं शरीर धारण करिक,
उत्तराखंड की धरती मा,
कविवर बौड़िक ऐन..
श्रधांजलि-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
२१.५.२०१२   

"शेरदा अनपढ़" जी..
 कविवर लौटकर आना....

आखिर!
इस धरती से चले गए,
अपने चाहने वालों से दूर,
कालजयी कुमाऊनी कविताओं का,
सृजन करके,
अनंत की ओर,
न जाने कहाँ...
हमारे प्रिय स्वर्गवासी,
जनकवि "गिर्दा" जी को,
धरती के हाल सुनना,
उनके विरह में व्यथित,
चाहने वालों की,
बात भी बताना,
हो सके तो फिर,
"गिर्दा" जी सहित,
नवीन काया धारण करके,
उत्तराखंड की धरती पर,
पुनर्जन्म धारण करके,
कविवर लौटकर आना....
श्रधांजलि-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
२१.५.२०१२ 
Photo:   Source: Pahadiforum.com
कुमाऊनी कवि स्वर्गीय शेर सिंह बिष्ट 'शेरदा अनपढ़' का 20 मई 2012 को हल्द्वानी में निधन हो गया..



Deepak Benjwal Serda ka jaane ka bhut gam hai..............serda ne Pahad ki bawnao, awyktao or smsyao par khub likhaa.....hm Pahad ke is mahan jankavi ko pure Dastak pariwar ki or se shrdhanji wykt krtee hai........

  • Jayprakash Panwar appreciative ....

  • Bhishma Kukreti शेर दा के निधन से आंचलिक भाषाई साहित्य को आघात लगना लाजमी है .शेर दा के
    विचार मैंने वीरेंद्र पंवार जी के व शेर दा के एक इंटरव्यू में जाना. गिर दा,
    शेर दा जैसे भाषा प्रेमियों की जगह भरना कठिन ही है.किन्तु उनके द्वारा उठाये
    गये कामों को आगे बढाना भी हम सबका कर्तव्य बनता है.
    उनके चले जाने पर शोक तो होगा ही किन्तु हमे साथ साथ सौं भी खानी पड़ेगी कि
    भाषाई आन्दोलन को ठंडा नहीं होने देंगे.यही सच्ची श्रधांजलि होगी
    प्रभु उन्हें सद्गति दें!
देव भूमि बद्री-केदार नाथ bhut hee sundar jee naman aap aor kvi var ko

Tuesday, May 15, 2012

"खै नि जाणि रे"


हे बुढया त्वैन,
मोळ माटु करियालि,
दै दूध कू भांडु,
सब्बि धाणि,
रोठ्ठी पाणी,
जिंदगी मा कर्युं धरयुं,
अपणा हातुन हे,
टोटगु  करियालि रे,
हे बुढया त्वैन,
खै नि जाणि रे.....

देख तेरा सब्बि दगड़्या,
कना छन मौज मा,
शामिल होयां छन आज,
चकड़ीतु की फौज मा,
देख तू भी रंदु बुढया,
महल अर मौज मा,
पर क्या कन्न त्वैन,
मोळ माटु करियालि रे,
हे बुढया त्वैन,
खै नि जाणि रे....

नि रै होलु हे बुढया,
भिन्डी तेरा भाग मा,
देख लोग तरसणा छन,
कब मिललु जाग मा,
पर क्या कन्न त्वैन,
मोळ माटु करियालि रे,
हे बुढया त्वैन,
खै नि जाणि रे....
रचना: -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १५.५.१२)


मलेेथा की कूल