१४, नवम्बर-२००८ को,
मुझे सांय ५.३० पर,
गाँव से एक चाचा जी का,
फोन आया और बताया,
तेरी माँ को चक्कर आया है,
न जाने मरती है या बचती,
तू तुरंत घर आ....
मैं तुरंत रात की बस से,
श्रीनगर गढ़वाल के लिए,
माँ को देखने चल दिया,
१०८ नम्बर सेवा ने,
श्रीनगर ले जाकर,
मेरी माता जी को,
हस्पताल में भर्ती किया...
मैं श्रीनगर बेस हस्पताल,
माता जी को देखने गया,
बेहोश बेड पर लेटी थी,
माँ को निहारकर मेरा मन,
बहुत व्यथित हो उठा,
उसी दिन एम्बुलेंस से,
माता जी को देहरादून लाया,
आराघर, उनियाल नर्सिंग होम में,
भर्ती करवाया,
लकवे का दौरा पड़ने के कारण,
मेरी माँ की हालत दयनीय थी,
सोचता था, माँ अब नहीं बचेगी,
एक हफ्ते के इलाज़ के बाद,
अपनी प्यारी माँ को,
दिल्ली अपने पास लाया,
सोचता हूँ मेरे लिए,
माँ की सेवा करने का,
दूध का कर्ज चुकाने का,
मौका मिला है,
मेरी माँ आज बिस्तर पर,
असहाय लेटी रहती हैं,
ड्यूटी से जब सायं को,
घर माँ के पास जाता हूँ,
घर में घुसते ही,
आवाज लगता हूँ,
माँ आप कैसी हैं,
उनकी बूढी आवाज सुनकर,
मेरा मन खुश हो जाता है,
हर कोई चाहता है,
मेरी माँ हमेशा जिन्दा रहे,
लेकिन! एक दिन माँ,
सदा-सदा के लिए,
मुझे छोड़कर चली जायेगी,
जैसे स्वर्गवासी पिताजी की याद,
मुझे सताती है,
वैसे ही उनकी याद भी,
मुझे बहुत सताएगी,
अभी तो मेरी आँखों के सामने,
मौजूद है "मेरी माँ"......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१.५.२०१२