Friday, June 24, 2011

"गंगा की पुकार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु २३.६.२०११ )
क्वी नि सुणदु!
जैमा आस्था छ हर इंसान की,
पवित्रता का कारण,
जू आज वीं तैं, अपवित्र कन्ना छन,
सोचा! क्या कसूर छ माँ गंगा कू?
आज अस्तित्व की लड़ै लड़नी छ,
मन्ख्यौं का तन मन कू मैल धोण वाळी गंगा,
आज मैली ह्वैगि, असहाय होयिं छ,
जै़का खातिर राजा भागीरथ जिन,
करि थै कठिन तपस्या,
तब अवतरित ह्वै भारत भूमि मा,
पुरखों का उद्धार का खातिर,
हे इंसान! करा भागीरथ प्रयास,
माँ "गंगा की पुकार" सुणा.
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"तुमारी याद"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु २४.६.२०११)
सुण हे दगड़्या, हे मुल्क मेरा,
मैकु औण लगिं छ, कुजाणि क्यौकु ?
बाडुळि सी भि, लगण लगिं छन,
गौळा मा मेरा, मयाळु मन मा,
सुरसुरी सी उठण लगिं छ,
कुजाणि क्यौकु आज, मेरा तन मा.
प्यारा मुल्क, हे दगड़्या मेरा,
दूर परदेश मा, मन की पीड़ा,
अब नि रयेन्दु, कतै नि सयेन्दु,
"तुमारी याद" मैकु सतौणि छ,
क्या बोन्न, आज भौत औणि छ.
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Wednesday, June 22, 2011

"मयाळु मन मा"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २२.६.२०११)
खुद सी लगिं छ, मन वे मुल्क पौन्छ्युं छ,
जख बुरांश बिचारू, अपणु गौं हमारू,
द्वी टपराणा होला, हेन्ना होला मन्ख्यौं,
कख गै होला, हमतैं खोजणा होला,
कसक ऊठणि छ मन मा, हे जोग भाग,
कना दूर ह्वैग्याँ, अपणु गौं मुल्क छोड़ी,
बचपन मा रिश्ता थौ, आज दूर छौं,
ज्युकड़ी मा ढुंगा धरि, अर मुक्क मोड़ी,
कुजाणि क्यौकु? सैद पापी पैंसा का खातिर,
क्या बोन्न, खुद सी लगिं छ,
"मयाळु मन मा", हे दगड़्यौं,
न हैंसदु, न खेल्दु, मन मरिगी,
कवि "जिज्ञासु" की अनुभूति छ,
क्या सच छ...सोचा दौं मन मा?
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Monday, June 20, 2011

"क्वी होंदु मेरु"

(कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १९.६.२०११)
बोल्दा छन लोग, जब आफत की घड़ी औन्दि,
या जिंदगी कैकु, बुरा बगत खूब रुऔन्दि,
वनु क्वी कैकु नि होंदु, या दुनिया की रीत छ,
पर फिर भी इंसान की, यनि आस अर प्रीत छ,
इंसान धरदु छ बल, यनु अपणा मन मा सारू,
यीं धरती मा, हे भगवान! जू क्वी होंदु हमारू,
हर इंसान की या हि, अपणा मन की आस छ,
निभ्वन नाता रिश्ता, यथार्थ बिंगणु बल ख़ास छ,
अहसास करदा होला आप, "क्वी होंदु मेरु",
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना, हे प्रभु सारु तेरु.
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Thursday, June 16, 2011

"पराण"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
प्यारू होन्दु छ सब्यौं तैं, यनु बोल्दा छन,
सब्बि डरदा छन बल, सच मा सदानि मन्न सी,
फिर भी मरदा छन, काल का हाथुन मौत बेमौत,
झुर्दु छ, डरदु छ, रगबग करदु छ, कौ-बौ भी करदु,
इच्छी सी पीड़ा न लगु, देह मा कखि, सोचदु रंदु,
धरती कू हर जीव, मनखि त सबसि ज्यादा,
जैकु "पराण" भौत प्यारू होंदु छ........
यीं धरती सनै सच समझिक, जन सदानि रण हो यख,
जू सच निछ, कै भी मायना मा, मनखि का खातिर,
ये मायारुपी संसार मा, फेर भी "पराण" प्यारू होन्दु छ.
जू कबरी भी उड़ी जान्दु छ बिन बतैयां, पोथला की तरौं.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १६.६.२०११)
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Monday, June 13, 2011

"जीवन गीत छ"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सब्बि मन्ख्यौं कू, यीं धरती मा,
सुख, दुःख साथ छन, सुर, लय, ताल भी,
कबरी जीवन जंजाळ, कबरी भारी सुन्दर,
क्वी सुख मा, क्वी दुख मा,
जीन्दू छ जीवन, कै भी हाल मा....
मन हो चंचल, फूल मिल्वन या कांडा,
ईश्वर कू नौं सदानि लेवा,
ज्ञान की गंगा मा रमिक, सब कुछ भूलिक,
सुख शांति कू प्रसार, कैकु मन न दुखावा,
धरती मा सब सुख छन, दुख का दगड़ा,
प्रकृति कू सृंगार,पंछी पोथ्लों कू प्यार,
मन्ख्यौं की मनख्वात,
क्या-क्या निछ? सोचा मन मा,
"जीवन गीत छ" सच मा, अहसास करा...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.६.२०११)
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Wednesday, June 8, 2011

"खंड्वार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ८.६.२०११)
हेरदा छौं जब हम, अपणा प्यारा गौं मुल्क मा,
मन मा ख्याल औन्दु छ, कबरि बणै होलु कैन,
बड़ा अरमान सी, तब बैठि होलु छज्जा, देळि मा,
हेरि होलु ऊँड फुन्ड, प्यारा डांडा काँठौं जथैं प्यार सी,
पर क्या कन्न! आज ऊ मनखी, होला कखि स्वर्ग मा,
माटा कू शरीर छोड़िक, दूसरू धारण करिक,
पर ऊंकू बणवैंयु घौर, आज टूटिक "खंड्वार" होयुं छ,
जमिं छ कण्डाळि, बांजा चौक मा रिटणि छ बिराळि,
आंसू भि आँखौं मा ऐ जाँदा छन, "खंड्वार"हेरि हेरि.

कबरि कखि तस्वीर मा, हेरदा होला आप चांदपुरगढ़ी,
"खंड्वार" होयां देवभूमि उत्तराखंड मा, देवतौं का भव्य मंदिर,
बावन गढ़ु का अवशेष, "खंड्वार" होयिं तिबारि अर डिंडाळि,
अहसास होंदु छ मन मा, बणनु बिगड़नु यीं धरती मा,
"खंड्वार" बणिक मिटि जाणु, बल कालजई सच छ,
पर "खंड्वार" भलु नि लगदु, कवि "जिज्ञासु" तैं सच मा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दूरभास: 09868795187)
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Tuesday, June 7, 2011

"मेरु मुल्क"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ७.६.२०११)
जख चन्द्रबदनी मंदिर, अर ऊँचा पहाड़ छन,
दिन रात सदानि गयुं रंदु, वख मेरु कविमन,
किलैकि मैन वख, कौणी कण्डाळि खाई,
दिन बितैन बचपन का, दौड़ भी खूब लगाई.
खासपट्टी मुल्क हमारू, जख छ सब्बि धाणि,
गाड गदन्यौं कू ठण्डु, धारौं कू निकळ्वाणि पाणी,
रज्जा का जमाना बिटि, प्रसिद्ध छ खासपट्टी प्यारू,
सच बोंनु छौं हे सुणा, यीं दुनिया मा सबसि बल न्यारू,
भगवती चन्द्रबदनी माता कू, चंद्रकूट पर्वत फर छ थान,
जख ऐ था शिवशंकर भोले, सती कू शरीर छ यख बोल्दन.
मेरु मुल्क खासपट्टी जख छन, देवता, डांडा अर जंगल,
कामना छ मेरी वख हो, खूब होणी खाणी अर सदानि मंगल.
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Monday, June 6, 2011

"धरती आज बिमार छ"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.६.२०११)
सच मा, क्वी नि सोच्दु,
मनख्यौं का अत्याचार सी,
गंगा, हिमालय, बसुन्धरा,
जल, जंगल त्रस्त छन,
अजौं भि सोचा? कुछ नि बिगड़ी.....
पहाड़, हिमालय आज कूड़ा घर बणिगी,
कब्रगाह भि बणिगी, जब बिटि मानव दखल बढिगी,
वृक्ष विहीन प्यारू पहाड़, धरती कू ताप बढिगी,
प्रकृति कू रौद्र रूप, बस्गाळ-२०१० मा देखि होलु आपन,
देवभूमि उत्तराखंड की धरती मा, उत्पात करिक चलिगी,
संकल्प लेवा धरती का सृंगार की, क्या बोन्न?
"धरती आज बिमार छ", हे मनखी तेरा कारण.
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"तिस्वाळु सी रैग्यौं"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.६.२०११)
कै बरसु बिटि टक्क लगिं थै, कब होलि मेरी आस पूरी,
आस जगि जब न्यौड़ु देखि, किस्मत देखा रैगि अधूरी....
फेर सोचि मन मा, हे! भाग मेरा, कनि होन्दि तेरी भताग,
हे जळ्दि छ जळौण्या ज्युकड़ी, झौळ सी लगदि जनि हो आग....
"तिस्वाळु सी रैग्यौं" देखा दौं भाग, किस्मत कनि छ माया तेरी,
दुःख भिछ हे आस अधूरी, रैगि तिस्वाळु मन कनि गति तेरी.....
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मलेेथा की कूल