Tuesday, December 28, 2010

"अलविदा-२०१०"

कहते हैं अब हम ,
पूरा हो रहा काल,
इंतज़ार है सबको,
आएगा नयाँ साल.

कामना है मन में,
प्यार का पैगाम लाएगा,
साल-२०१० यादें अपनी,
छोड़कर चला जाएगा.

जनकवि "गिर्दा" जी का जाना,
उत्तराखंड साहित्य जगत में,
मायूसी का छा जाना,
बसगाळ-२०१० का,
देवभूमि उत्तराखंड में,
अपना रौद्र रूप दिखना,
पर्वतजनों को सताना,
इस रूप में याद रहेगा,
लेकिन! "अलविदा-२०१०".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २८.१२.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Thursday, December 23, 2010

"जुन्याळि रात की बात"

कथाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"


बचपन की बात छ, उबरि रात मा दादी जी का दगड़ा, रात मा सेण कू मजा कुछ हौर ही होन्दु थौ. नाती नतणा ओर-पोर अर प्यारी दादी जी बीच मा. बचपन मा जब पीठि मा खाज ऊठ्दि थै त दादी जी कु बोल्दा था, दादी-दादी जरा खाज कन्येदि. दादी बड़ा प्यार सी सब्बि नाती नतणौ की पीठी की खाज कन्यौन्दि थै. दादी जी जब अपणा हाथन खाज कन्यौन्दु- कन्यौन्दु तंग ह्वैगि त ऊँका मन मा एक बात आई. दादी जी एक मुंगरी कू मुंगरेठु अपणा दगड़ा रखण लगि, जनि सब्बि नाती नतणौ की पीठी मा खाज ऊठदि त मुंगरेठान प्यारी दादी जी सब्यौं की खाज कन्यौन्दि थै. ह्युन्द का मैना दादी जी सी कथा सुणदा अर कथा सुणदु-सुणदु से जाँदा था. सुबेर जब बिज्दा त ख्याल औन्दु थौ कि ब्याळि ब्याखना दादी जी की कथा पूरी नि सुणि, फेर हैक्का दिन रात मा दादी जी की कथा, जथगा रै जान्दि थै सुणदा था. आज बग्त बद्लिगी, दादी की कथा अब क्वी नि सुणदु. लोग टेलीविजन देखदा छन, जू वेमा दिखेंदु छ, देखदा छन. आज आपस मा संवाद हीनता पैदा ह्वैगि, पर स्वर्गवासी दादी जी का मुख सी सुणि रोचक कथा अजौं तक मन मा कालजयी ह्वैक बसिं छन.

ह्युंद पूस का मैना कि बात छ, ऊँचि डाँडी-काँठ्यौं मा ह्यूँ पड़्युं थौ अर ठँड का मारा कंपकंपी छुटण लगिं थै. रात मा जब सब्बि नाती-नतणा दादी जी का ओर पोर सेण पड़्यन, दादी जी कू सब्यौन बोलि, दादी-दादी आज एक भूतू की कथा सुणैदि. नाती नतणौ कि फर्मेश फर दादीजिन कथा सुणौणु शुरू करि अर सब्बि टक्क लगैक सुण्न लग्यन. असूज का मैना "जुन्याळि रात की बात" छ, धाण काज की भारी राड़ धाड़ होयिं थै. उबरि लोग सुबेर राति ऊठिक पुंगड़ौं चलि जान्दा था अर काम कन्न मा बिळम्यां रन्दा था. एक दिन रात मा हम जनु ही सेण पड़्यौं, झट सी हम तैं निंद ऐगी. तुमारा दादा जी, वीं रात कू थोड़ी देर ही स्ये होला, अचाणचक्क उंकी निंद टूटिगी. उबरी आज की तरौं घड़ी नि होन्दि थै, पता कनुकै लगण थौ रात कथगा ह्वैगी. तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे भाई! खड़ु उठ साट्टी मांडण जौला", मैन भी समझि, रात खुन्न वाळि होलि. तुमारा दादा जी अर मैं झट-पट्ट लाठी, सुप्पू, मांदरी लीक बर्ताखुण्ड की सारी गौं का ऐंच साट्टी मांडण चलिग्यौं. जुन्याळि रात का ऊजाळा मा दूर-दूर तक दिख्दा डाँडा शांत अर सेयाँ सी लगण लग्याँ था. हम्न बर्ताखुन्ड की सारी पौन्छिक पैलि पुंगड़ा मा मांदरी बिछाई अर कोंड्गा बिटि साट्टी निकाळिक मंड्वार्त कन्न लग्यौं. तुमारा दादा जी "स्वर्ग तारा जुन्याळि रात" गीत गुण-मुण अफुमा गुमणाण लग्याँ था.

मंड्वार्त करदु-करदु कुछ देर ह्वै होलि, तुमारा दादा जी की नजर दूर बाटा फर पड़ि. बाटा फुन्ड भूतू की बारात लंगट्यार लगैक गाजा-बाजौं समेत औणि थै. ऊ भूत गीत लगान्दु-लगान्दु गाजा-बाजौं समेत हाथ मा जगदा राँका अर काँधी मा एक पालिंग लीक औण लग्याँ था. तुमारा ददाजिन मैकु सरक मा बोलि, "हे देख! भूतू की बारात औणि छ". मैं त डौर का मारा कौंपण लग्यौं. तुमारा दादाजिन बोलि, "चल हे! कोंड्गा पेट लुकि जौला फटाफट्ट". तुमारा दादाजी अर मैं फटाफट्ट कोंड्गा का पेट लुकिग्यौं अर भूतू की चाल देखण लग्यौं. मेरा ज्युकड़ा मा धक्कदयाट होण लगि अर बदन मा कंपनारू छुटिगी. दादी जी की यथगा कथा सुणिक सब्बि नाती नतणा ढिक्याण का पेट डन्न लगिन.

कुछ देर बाद सब्बि भूत पालिंग भ्वीं मा धरिक नजिक ही एक पुंगड़ा मा अपणा सरदार का ओर पोर बैठिग्यन. हम डौर का मारा हबरी कौम्पण लग्यौं अर कोंडगा पेट न्यूँ च्यूँ ह्वैग्यौं. तुमारा दादा जी सरक मा बोन्न बैठ्यन "आज कुजाणि क्या ह्वै मेरी मति मा", "जू मेरी निंद टूटिगी अर त्वै सने भी परेशान कर दिनि". "रात अजौं भौत छ", "यनु छ मैकु लगणु पर क्वी बात निछ", "देख आज तू भि भूतू कू तामाशु ". कुछ भूत-भूतणि झुंगटा मारिक गीत लगौण लगिन, कुछ ऊचड़ी ऊचड़िक कौंताळ मचौण लग्यन. कथगा प्यारा गीत था ऊ लगौणा, क्या बोन्न. कुछ भूत चुल्ला लगै अर जगैक भाडौं फर खाणौं बणौण लग्यन. भूतू कू सरदार बीच मा बैठिक ह्वक्का पेण लग्युं थौ अर हबरि कुछ बोन्न लग्युं थौ.

सब्बि नाती-नतणौन दादी जी सी पूछि, दादी-दादी फेर क्या ह्वै अगनै? ददिजिन बताई, अरे! मेरा नाती-नतणौ क्या बोन्न, जब भूतू कू नाच ख़त्म ह्वे, ऊ सब्बि गोळ घेरा बणैक बैठिग्यन. खाणौं बणौण वाळौंन अपणा हाथुन खाणौं का हार लगैन. भूतू का सरदारन द्वी भूत बुलैन अर हम जथैं शान करिक कुछ बोलि. हमारी त दशा ख़राब ह्वैगि, हम्न सोचि आज हमारू काल ऐगी, ऊ भूतू कू सरदार हम जथैं किलै छ शान कन्नु? थोड़ी देर मा द्वी भूत हाथु मा द्वी हार लीक हमारी तरफ औण लग्यन. तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे आँखा बन्द कर, ऊ हमारी तरफ छन औणा". हम्न अपणा आँखा बन्द कर्यन पर थोड़ी देर जब ह्वैगि त हम्न देखि, द्वी भूत वापस चलिगे था. रात मा दूर धार ऐंच रतबेणु औण ही वाळु थौ, खाणौं खाण का बाद भूतू की बारात पैटि अर गाजा-बजा बजौंदु जै बाटा बिटि ऐ थै वापिस लौटिगी. थोड़ी देर बाद धार ऐंच रतबेणु चमकण लगिगि अर हम्न चैन की सांस लिनि. जब सुबेर ह्वै पोथला बासण लगिन अर हम्न पुंगड़ा मा देखि, द्वी हार भूत जू हमारा खातिर ल्हे था, ऊँ फर पिंगळी खिचड़ी रखिं थै, जै हेरिक हम हक्क-बक्क ह्वैग्यौं. हम्न सैडु कोंड्गु साट्यौं कू माण्डी अर फेर घौर अयौं. घौर पौन्छिक हम्न वीं "जुन्याळि रात की बात" अपणा घौर अर गौं-गौळा वाळौं तैं बताई. सब्बि लोग हमारी बात सुणिक हक्क-बक्क रैगिन. आज भी मेरा मन मा वा "जुन्याळि रात की बात" बसिं छ.


पता: ग्राम-बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाळ,उत्तराखंड.
पत्रव्यवहार: एफ.आई.सी.सी.,८वीं मंजिल, सेवा भवन, आर.के.पुरम, नई दिल्ली-६६.
दिनांक: २०.१२.२०१०
दूरभास: 09868795187
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, मेरा पहाड़ और यंग उत्तराखंड, चिठ्ठी-पत्री पत्रिका)
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

Tuesday, December 21, 2010

"ब्वै बोन्नि छ"

सुण हे बेटा टक्क लगैक,
मेरा मन की बात,
ज्यु कन्नु छ आज मेरु,
खलैदि जरादूध भात...

तू छैं मेरा मन कू प्यारू,
ब्वारि देन्दि गाळी,
आज सोच्दु छौं मैं,
कनुकै मैंन तू पाळी.....

वे जमाना होन्दि थै बेटा,
मेरी भारी कुहालि,
टरकणि थै सब्बि धाणी की,
खान्दा था कौणी कडाँळी.....

बुढेन्दि बग्त बेटा,
कर तू मेरी सेवा,
होणि-खाणि भलि होलि,
मिलला त्वैकु मेवा.....

दरद्याळु होन्दु छ,
ब्वै कू पापी पराण,
मन सी सेवा करिं चैन्दि,
वींकू मन नि दुखौण......

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २१.१२.२०१०
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/board,3.0.html

Sunday, December 5, 2010

"पहाड़ की ऊँचाई"

प्रेरणा प्रदान करती है,
उसको लाँघ जाने की,
उससे ऊपर उठने की,
जो करते हैं प्रयास,
मन में कठिन डगर,
संकल्प अगर साथ हो,
मन में हो एक आस,
रंग लाता है प्रयास.

रही बात पार करने की,
सच में आसान नहीं होता,
जीवन के सच को,
सहज स्वीकार करना,
आसान नहीं होता.

जीत जाते हैं जीवन में जो,
उनके लिए "पहाड़ की ऊँचाई",
पार करके लाँघ जाना,
जीवन के सच को,
सहर्स स्वीकार कर जाना,
कठिन जीवन के भेद को,
बहादुरी से भेद जाना,
आसान लगता होगा,
जीवन में जीत जाने के बाद.
रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दिनांक: ६.१२.२०१०)
श्रीमती मंजरी कैल्खुरा जी की रचना पर रचित मेरी रचना
"जिस तरह पहाड की ऊचाई को,
पार करना इतना आसान नहीं होता,
उसी तरह जीवन के सच को,
स्वीकार करना भी आसान नहीं होता"

Wednesday, December 1, 2010

"तेरी मुखड़ि"

बतौणि छ हाल तेरा दिल का,
कुजाणि क्या ह्वै होलु यन,
उखड़ीं-उखड़ी सी "तेरी मुखड़ि",
खोयुं-खोयुं सी तेरु मन....

क्या त्वैकु कैन कुछ बोलि?
खोल दी अपणा मन की गेड़,
घमटैयुं सी भलु नि होन्दु,
जिंदगी मा ढेस अर बेड़....

बकळि ज्युकड़ि भलि निछ,
बतौ अपणा मन की बात,
कुछ त बोल चुप किलै?
होलु कुछ तेरा मेरा हाथ....

बात यनि कुछ भि निछ,
कुजाणि मन मेरु किलै ख्वै,
मुखड़ि मेरी उखड़िं-उखड़िं,
आज उदास क्यौकु ह्वै.....

मुखड़ि बतौंन्दि छ,
सच मा मन का हाल,
चा पोंछ्युं हो दूर कखि,
जख प्यारू कुमौं-गढ़वाल.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित- "तेरी मुखड़ि" १२.५.२०१०)
(मेरा पहाड़ और यंग उत्तराखण्ड पर प्रकाशित) ReplyQuoteNotify

Tuesday, November 30, 2010

"पर्वतजन अर जंगळ"

जबरी बिटि जंगळु की मुनारबंदी ह्वै,
पर्वतजनु कू हक्क हकूक नि रै,
उबरी ऊन "ढंडक आन्दोलन" चलै,
टूटिगि रिश्ता जंगळु सी ऊँकू,
जंगळु फर वन विभाग कू अधिकार ह्वै.

फिर भी "चिपको आन्दोलन" चलैक,
लालची ठेकेदारू सी जंगळ बचैक,
रैणी,चमोली का प्रकृति प्रेमी पर्वतजनुन,
दुनियां मा "डाळ्यौं का दगड़्या" बणिक,
कर्तव्य निभैक, सच मा डंका बजै.
जळ्दा जंगळु की रक्षा करदु-करदु,
कै पर्वतजनुन अपणी जान गवैं,
सरकारी प्रयासुन जंगळ नि बच्यन,
जंगळु कू धीरू धीरू सत्यानाश ह्वै.

पहाड़ का पराण छन प्यारा जंगळ,
जख बिटि निकल्दु छ पवित्र पाणी,
हैंस्दा छन बणु मा प्यारा बुरांश,
बास्दा छन घुघती अर हिल्वांस.
पर्वतजनु कू हरा भरा जंगळु सी,
अटूट रिश्ता छ सख्यौं पुराणु,
कायम रयुं चैन्दु भल्यारि का खातिर,
"पर्वतजन अर जंगळु " कू सदानि.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित १४.५.२०१०)
(यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ और हिमालय गौरव पर प्रकाशित)

Monday, November 29, 2010

"मैं"

अपणा दगड़्यौं तैं यू ही बतौलु,
जब मैं यीं धरती मा नि रौलु,
मिटि जालु अस्तित्व मेरु,
बसलु कखि मन पंछी कू डेरु,
चाहत रलि मेरा कवि मन मा,
घुमौं बांज-बुरांश का बण मा,
जख पुनर्जन्म हो मेरु.

सृजन करौं गढ़वाली कविताओं कू,
छ्मोट भरि प्यौं पाणी धौळ्यौं कू,
दर्शन होन पर्वतराज हिमालय का,
बद्री-केदार, चन्द्रबदनी देवालय का,
कुल देवता अर ग्राम देवता का,
माँ-बाप फिर दुबारा मिल्वन,
जन्म हो फिर ऊँका घर मा,
जौन जन्म दिनि, पाळी-पोषि,
प्यारू रयौं ऊँकू, यीं धरती मा.

कर्यन अवलोकन दगड़्यौं,
मेरी रचना,कविताओं कू,
जौंकु सृंगार करि मैन,
मन अर प्यारी कलम सी,
भलि लगलि तुमारा मन तैं,
जौंमा बस्युं रलु मेरु मन,
क्या ह्वै?
जब मैं यीं धरती नि रौलु.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
२३.११.२०१० (प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, November 18, 2010

"जिंदगी अजीब होती है"

ऐसा कहते हैं लोग,
लेकिन! अपनी जिंदगी में,
दूसरों की जिंदगी को,
कुछ इस तरह देखा...


किसी की खास और,
किसी की आस होती है,
जिसे होता है अहसास,
जिंदगी में ख़ुशी का,
उसे जिंदगी बहुत प्यारी,
संग उसका सुखद,
स्वर्ग जैसा लगता है.

किसी को आस थी इसमें,
ख़ुशी के लिए जी रहा था,
कोई अभागा बन करके,
अपने ग़मों को पी रहा था,
लेकिन जिंदगी कैसे जियें?

कोई कठिन राह चलकर,
आराम से जी रहा था,
अंदाज सबके अपने थे,
किसी के लिए "आस जिंदगी",
हारे हुए के लिए "निराश जिंदगी",
जो जी लिया जिंदगी को,
उसकी जिंदगी खास होती है,
जो हार गया उससे,
उसकी "जिंदगी अजीब होती है"

कालचक्र घूमता है,
जिंदगी भी उसके साथ,
चलती है सभी की,
कितनी अजीब होती है,
सवाल होती है,
कितनी खूबसूरत होती है,
जीते और हारे की,
किस्मत के मारे की,
जरूरत नहीं सहारे की,
जिंदगी बनाना और बिगाड़ना,
हमारे ही हाथ है,
प्राप्त की जिसने खुशियाँ,
समझो,जैसे बरसात है,
कहते हैं लोग,
"जिंदगी अजीब होती है".


रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल.
दिल्ली प्रवास से...........१९.११.२०१०
("ये जिंदगी भी कितनी अजीब होती है
बिना जबाब के ही सवाल होती है
आज अगर जी लिए खुशी से तो
फिर भी नहीं समझ सकते है
यह जिंदगी कितनी खूबसूरत होती है"
श्रीमती मंजरी कैल्खुरा की रचना पर मेरी अनुभूति)

Wednesday, November 17, 2010

"बग्वाळ"

जै दिन बानि बानि का,
पकवान बण्दा छन,
वे दिन कु बोल्दा छन,
रे छोरों आज पड़िगी,
बल तुमारी "बग्वाळ"....

पर साल भर मा,
एक त्यौहार यनु औन्दु छ,
जै दिन की करदा छन,
सब्बि भै बन्ध जग्वाळ,
हमारा प्यारा मुल्क उत्तराखंड,
कुमाऊँ अर गढ़वाळ.

बग्वाळ का दिन खुश ह्वैक,
मनौन्दा छन,
हमारा मुल्क का मनखि बग्वाळि,
बणौन्दा छन दाळ की पकोड़ी,
अर मसूर की भरीं स्वाळि...

जग्वाळ मा रन्दि छ,
कैकि प्यारी ब्वे बाटु हेन्नि,
कब आला नौना, नौनि,
नजिक छ बग्वाळ,
हमारा कुमाऊँ अर गढ़वाळ.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल.
दिल्ली प्रवास से...........२८.१०.२०१०
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.0.html

"बग्वाळ"

जै दिन बानी बानी का,
पकवान बणदा छन,
वे दिन कु बोल्दा छन,
रे छोरों आज पड़िगी,
बल तुमारी "बग्वाळ".

पर साल भर मा,
एक त्यौहार यनु औन्दु छ,
जै दिन की करदा छन,
सब्बि भै बन्ध "जग्वाळ",
हमारा प्यारा मुल्क उत्तराखंड,
कुमाऊँ अर गढ़वाळ.

"बग्वाळ" त्यौहार का दिन,
मनाला खुश ह्वैक,
हमारा मुल्क लोग बग्वाळी,
बणाला दाळ की पकोड़ी,
अर भरीं स्वाळी.

जग्वाळ मा होलि,
कैकी प्यारी ब्वे बाटु हेन्नि,
कब आला नौना, नौनी,
नजिक छ बग्वाळ,
हमारा कुमाऊँ अर गढ़वाळ.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल.
दिल्ली प्रवास से...........२८.१०.२०१०
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.0.html

"हिमालय बचावा" "पहाड़ कूड़ा घर निछ"

आज आवाज उठणि छ,
कैन करि यनु हाल वेकु,
हे चुचों! यनु त बतावा,
हिम विहीन होणु छ,
जख डाळु नि जम्दु,
हिमालय सी पैलि,
वे हरा भरा पहाड़ बचावा,
बांज, बुरांश, देवदार लगावा,
कुळैं कू मुक्क काळु करा,
जैका कारण लगदि छ आग,
सुख्दु छ छोयों कू पाणी,
अंग्रेजु की देन छ कुळैं,
पहाड़ हमारा पराण छन,
वेकी सही कीमत पछाणा.
कनुकै बच्लु हिमालय?
वेका न्यौड़ु गाड़ी मोटर न ल्हिजावा,
तीर्थाटन की जगा पर्यटन संस्कृति,
जैका कारण होणु छ प्रदूषण,
पहाड़ की ऊँचाई तक,
ह्वै सकु बिल्कुल न फैलावा.
पहाड़ कूड़ा घर निछ,
प्रकृति का श्रृगांर मा खलल,
वीं सनै कतै न सतावा,
ये प्रकार सी प्रयास करिक,
प्यारा पहाड़ बचावा,
हिंवाळी काँठी "हिमालय बचावा".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
http://hillwani.com/ndisplay.php?n_id=181
सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड( young uttarakhand), मेरा पहाड़(mera pahad), पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)

"नाती की पाती"

दादा चश्मा लगैक,
पढ़ण लग्युं छ,
नाती की पाती,
क्या होलु लिख्युं?
नाती लिखणु छ,
दादा जी क्या बतौण,
तुमारी याद मैकु,
अब भौत सतौणि छ,
बचपन मा तुम दगड़ि,
जू दिन बितैन,
अहा! उंकी याद अब,
मन मा औणि छ.
आज भि मैं याद छ,
जै दिन मैन ऊछाद करि थौ,
तब आपन मैकु,
पुळक खूब समझाई,
पर मेरा बाळा मन मा,
उबरि समझ नि आई.
अब मैं बिंगण लग्युं छौं,
आपसी आज दूर हवग्यौं,
पुराणी यादु मा ख्वग्यौं,
अब मैं जब घौर औलु,
चिठ्ठी मा जरूर लिख्यन,
क्या ल्ह्यौण तुमारा खातिर,
अब ख़त्म कन्नु छौं पाती,
तुमारा मन कू प्यारू,
मैं तुमारु नाती.....
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
http://hillwani.com/ndisplay.php?n_id=181

Monday, November 15, 2010

"बुरांश"

बाँज बुरांश के,
सघन वन के बीच में,
कवि अकेला मौन हो,
निहार रहा सुन्दरता,
और कलम से अपनी,
कर रहा बुरांश के रूप का,
चित्रण और बखान,
धन्य हे! जन्मभूमि उत्तराखंड,
देवभूमि तू है महान.

इधर मनमोहक "बुरांश",
सघन वन में,
उधर चाँदी सा चमकता,
उत्तराखण्ड हिमालय,
जैसे हो रहा संवाद,
दोनों के बीच में,
आज कौन आया है?
सुन्दरता निहारने,
आपकी और मेरी.

बुरांश कह रहा,
हे पर्वतराज हिमालय,
दूर दिल्ली प्रवास से,
आया है आज,
मुझे और आपको निहारने,
गढ़वाली कवि "जिज्ञासु",
जिन्हें लगि थी खुद,
आपकी और मेरी,
जन्मभूमि उत्तराखण्ड की.

कवि:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १५.११.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित और मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
मेरा पहाड़ पोर्टल पर-उत्तराखण्ड का प्रसिद्ध पुष्प बुरांश-शीर्सक पर मेरी कविता "बुरांश"
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/
http://www.merapahadforum.com/photos-and-videos-of-uttarakhand/rhododendron(buransh)-the-famous-flower-of-uttarakhand/30/

Friday, November 12, 2010

"गाँव की आस"

गाँव की उम्मीदों का खून,
अब शहर में जीते-जीते,
अपने दर्द भरे दिल में,
बेदर्द होकर बह रहा है.

शहर की चिमनियों से,
निकलता काला धुवाँ,
किसी को रोजगार देकर,
उड़ रहा अनंत आकाश को,
जिसमें छुपा होगा दर्द,
पहाड़ से पलायन कर आए,
किसी पर्वतजन का भी.

चंचल मन आज मुझे,
बड़ा बेरूखा हो गया तू'
धिक्कार कर कह रहा है,
लौट जा अब भी,
क्या रखा है यहाँ?
कितने ही आए,
पहाड़ से पलायन करके,
तेरी तरह इस शहर में,
पलायन का दर्द,
दिल में ढ़ोते-ढ़ोते,
स्वर्ग को चले गए,
लेकिन! लौट नहीं पाए,
गाँव है कि आस में,
आज भी इन्तजार में हैं.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द "या"
महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून...
कवि: विपिन पंवार "निशान" जी द्वारा फेसबुक प्रस्तुत इन पंक्तियों
पर मेरी अनुभूति... "गाँव की आस" कविता के रूप में.....१२.११.२०१०
(यंग उत्तराखंड, मेरे ब्लॉग पोस्ट पर प्रकाशित)

"गाँव की आस"


गाँव की उम्मीदों का खून,
अब शहर में जीते-जीते,
अपने दर्द भरे दिल में,
बेदर्द होकर बह रहा है.

शहर की चिमनियों से,
निकलता काला धुवाँ,
किसी को रोजगार देकर,
उड़ रहा अनंत आकाश को,
जिसमें छुपा होगा दर्द,
पहाड़ से पलायन कर आए,
किसी पर्वतजन का भी.

चंचल मन आज मुझे,
बड़ा बेरूखा हो गया तू'
धिक्कार कर कह रहा है,
लौट जा अब भी,
क्या रखा है यहाँ?
कितने ही आए,
पहाड़ से पलायन करके,
तेरी तरह इस शहर में,
पलायन का दर्द,
दिल में ढ़ोते-ढ़ोते,
स्वर्ग को चले गए,
लेकिन! लौट नहीं पाए,
गाँव है कि आस में,
आज भी इन्तजार में हैं.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द "या"
महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून...
कवि: विपिन पंवार "निशान" जी द्वारा फेसबुक प्रस्तुत इन पंक्तियों
पर मेरी अनुभूति... "गाँव की आस" कविता के रूप में.....१२.११.२०१०
(यंग उत्तराखंड, मेरे ब्लॉग पोस्ट पर प्रकाशित)

Tuesday, November 2, 2010

"पहाड़ कू कोदु-झंगोरू"

हमारा उत्तराखंडी भै बन्धुन,
छकि-छकिक खाई,
मन मा लिनि संकल्प,
प्यारू उत्तराखंड राज्य बणाई.

आज उत्तराखंड मा होणु छ,
कोदा-झंगोरा कू त्रिस्कार,
जैसी करदा था पहाड़ी लोग,
पुरातन काल सी प्यार.

कथगा सवादि होन्दु छ,
बल झोळी अर झंगोरू,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
कंक्र्याळु घर्या घ्यू,
परदेश मा कखन खाण,
तरसेंदु छ पापी ज्यू.

झंगोरा की लसपसी तस्मैं ,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
पहाड़ी आलू कू थिंच्वाणि,
जख्या कू लग्युं हो तड़का,
तर्स्युं छ पापी पराणि.

पित्रुन अर वीर भड़ुन,
कोदु-झंगोरू खाई,
अतीत सी अपणा पुंगड़ौं मा,
प्यारा पहाड़ कू पौष्टिक,
कोदु-झंगोरू उगाई.

कुछ त सोचा मन मा,
कोदु-झंगोरू छ कथगा प्यारू,
उत्तराखंड की धरती कू बीज छ,
पौष्टिकता की नजर मा,
दुनियां मा सबसि न्यारू.

निर्बिजू न करा आज,
कोदा-झंगोरा कू बीज बचावा,
नया उत्पाद बणैक बजार मा,
कोदा-झंगोरा की धाक जमावा.

पहाड़ की पारम्परिक विरासत,
छन हमारी फसल पात,
न करा त्रिस्कार आज,
भै-बन्धु निछ भलि बात.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(दिनांक:२७.९.२०१०, पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.

"पर्वतजन का आंसू"

आज उत्तराखंड का लोग,
कुदरत का कहर सी,
मानसिक रूप सी त्रस्त छन,
विनाश लीला का बाद,
घर-बार ऊजड़िग्यन,
कैका परिजन दबिक,
यीं दुनियां सी चलिग्यन,
आज उंकी व्यथा-दशा,
सुण्न वाळु क्वी निछ,
नेता, अफसर सुनिन्द,
रासण की व्यवस्था भंग,
बिजली का बिना अँधेरू,
बाटा घाटा बन्द ह्वैगिन,
रड़डा-पाखा झड़दा बिट्टा,
दरकदा पैत्रिक कूड़ा,
पहाड़ आज डरौणु छ,
पर्वतजन तैं कुजाणि किलै?
क्या कसूर छ ऊँकू?
कू पोंज्लु ऊँका आंसू,
कू दिलालु दिलासु,
आज ऊँ फर अयिं छ,
बिना बुलैयिं आफत.....

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(दिनांक:२३.९.२०१०, पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.

"उत्तराखंड मा बसगाळ-२०१०"

उत्तराखंड मा भादौं का मैना,
गाड, गदनौं अर धौळ्यौंन,
धारण करि ऐंसु विकराल रूप,
अतिवृष्टिन मचाई ऊत्पात,
नाश ह्वैगि कूड़ी, पुंगड़्यौं कू,
जान भि चलिगि मनख्यौं की,
आज पर्वतजन छन हताश,
प्राकृतिक आफत सी,
निबटण कू क्या विकल्प छ?
आज ऊँका पास .

संचार, बिजली, सड़क संपर्क,
छिन्न भिन्न ह्वैगी,
अँधियारी सब जगा छैगी,
हरी जी की नगरी,
विश्व प्रसिद्ध हरिद्वार मा,
शिव शंकर जी की,
मानव निर्मित विशाल मूर्ति,
गंगा नदी का बहाव मा,
धराशयी ह्वैक बल,
कुजाणि कख बगिगी,
यनु लगदु भगवान शिव शंकर,
प्रकृति का कोप का अगनै,
असहाय कनुकै ह्वैगी?

यनु लगणु छ आज,
लम्पु-लालटेन कू युग,
पहाड़ मा बौड़िक ऐगी,
बसगाळ बर्बादी ल्हेगी,
सब्ब्यौं का मन की बात,
जुमान फर ऐगी,
हे लठ्यालौं आज,
पहाड़ की भौत बर्बादी ह्वैगी.

पहाड़ की ठैरीं जिंदगी,
ठण्डु मठु जगा फर आली,
पहाड़ फर आफत की घड़ी,
बद्रीविशाल जी की कृपा सी,
बगत औण फर टळि जाली,
पर मनख्यौं का मन मा,
"उत्तराखंड मा बसगाळ-२०१०" की,
दुखदाई अतिवृष्टि की याद,
एक आफत का रूप मा बसिं रलि.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(दिनांक:२२.९.२०१०, पहाड़ी फोरम, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़ पर प्रकाशित)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल.
http://himalayauk.org/2010/09/23/%e0%a4%aa%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a1%e0%a4%bc-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%a0%e0%a5%88%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%97%e0%a5%80/

"तीन पराणी"

"तीन पराणी"

एक गौं का तीन पराणी,
घन्ना, मंगतु, मोळू,
ऊँचि धार मां बैठि बोल्दा,
कब होलु मुंड निखोळू.

घन्ना भै फर रोग लगिगी,
पेण लग्युं छ दारू,
समझावा त बोल्दु छ,
कन्नु मुर्दा मरि तुमारू.

जन्म बिटि छ निर्पट लाटू,
फुंड धोल्युं स्यु मोळू,
उल्टा काम करिक बोल्दु,
कब होलु मुंड निखोळू.

मंगत्या बण्युं छ मंगतु गौं माँ,
या छ वैकि लाचारी,
अळगस का बस ह्वैक होईं छ,
दुनिया वैकी न्यारी.

जब जब कठा होंदा छन,
गौं का यी तीन पराणी,
छुयों माँ सी बिल्मै जांदा,
ब्वयै रन्दि, तौंकी भट्याणि.

तौ भी सैडा गौं का लोग बोंना छन,
यी छन हमारा लाल,
ऊंसी त यी भला ही छन,
जौन छोडि़याली गढ़वाल.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(१०.६.२००६ को रचित, मेरा पहाड़ और यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)

पोस्टेड:३०.०५.२००८

jayara@yahoo.com
Source: Young Uttarakhand Forum

दीपावली-2010

दीप जलेंगे घर हमारे,
आ रही है दीपावली,
रोशन हो जीवन सबका,
प्यारे मित्रों,
एक दीप जलाकर,
याद करना उनको भी,
जो हमसे बिछुड़ गए,
जैसे जनकवि "गिर्दा" जी,
पहाड़ पर आई आपदा में,
स्वर्ग सिधारे प्यारे पर्वतजन.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २.११.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Friday, July 2, 2010

"हिमालय बचावा"

"हिमालय बचावा"

आज आवाज उठणि छ,
कैन करि यनु हाल वैकु,
हे चुचों! यनु त बतावा,
हिम विहीन होणु छ,
जख डाळु नि जम्दु,
हिमालय सी पैलि,
वे हरा भरा पहाड़ बचावा,
बांज, बुरांश, देवदार लगावा,
कुळैं कू मुक्क काळु करा,
जैका कारण लगदि छ आग,
सुखदु छ छोयों कू पाणी,
अंग्रेजु के देन छ कुळैं,
पहाड़ हमारा पराण छन,
वैकी सही कीमत पछाणा.

कनुकै बचलु हिमालय?
वैका न्योड़ु गाड़ी मोटर न ल्हिजावा,
तीर्थाटन की जगा पर्यटन संस्कृति,
जैका कारण होणु छ प्रदूषण,
पहाड़ की ऊँचाई तक,
ह्वै सकु बिल्कुल न फैलावा.

पहाड़ कूड़ा घर निछ,
प्रकृति का सृंगार मा खलल,
वीं सनै कतै न सतावा,
ये प्रकार सी प्रयास करिक,
प्यारा पहाड़ बचावा,
हिंवाळी काँठी "हिमालय बचावा".

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
२१.८.२००७ को रचित....दिल्ली प्रवास से

"नाती की पाती"

"नाती की पाती"

दादा चश्मा लगैक,
पढ़ण लग्युं छ,
"नाती की पाती",
क्या होलु लिख्युं?

नाती लिखणु छ,
दादा जी क्या बतौण,
तुमारी याद मैकु,
अब भौत सतौणि छ,
बचपन मा तुम दगड़ी,
जू दिन बितैन,
अहा! उंकी याद अब,
मन मा औणि छ.

आज भि मैं याद छ,
जै दिन मैन ऊछाद करि थौ,
तब आपन मैकु,
पुळैक खूब समझाई,
पर मेरा बाळा मन मा,
उबरी समझ नि आई.

अब मैं बिंगण लग्युं छौं,
आपसी आज दूर हवैग्यौं,
पुराणी यादु मा ख्वैग्यौं,
अब मैन जब घौर औलु,
चिठ्ठी मा जरूर लिख्यन,
क्या ल्ह्यौण तुमारा खातिर,
अब ख़त्म कन्नु छौं पाती,
तुमारा मन कू प्यारू,
मैं तुमारु नाती.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, यंग उत्तराखंड, मेरा पहाड़, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
२१.८.२००७ को रचित....दिल्ली प्रवास से

Friday, June 25, 2010

"सिद्धपीठ चन्द्रबदनी"

चंद्रकूट पर्वत शिखर,
खास पट्टी, टिहरी गढ़वाल,
२७५६ मीटर की ऊँचाई फर,
स्थित छ चन्द्रबदनी मन्दिर,
जख औन्दा छन भक्त गण,
दूर दूर देश, प्रदेश बिटि,
अर करदा छन कामना,
होंणी, खाणी, सुखी जीवन की,
होन्दि छ मनोकामना पूर्ण,
माँ चन्द्रबदनी का दर्शन करिक.

जब भगवान शिव शंकर,
माता सती कू मृत शरीर,
दगड़ा ल्हीक विरह मा,
विचरण कन्न लग्यां था,
माता सती कू बदन,
सुदर्शन चक्र सी कटिक,
चंद्रकूट पर्वत शिखर फर,
भ्वीं मा पड़ी,
"सिद्धपीठ चन्द्रबदनी",
एक प्रसिद्ध तीर्थ बणि.

चन्द्रबदनी तीर्थ स्थल,
सुरम्य अर रमणीक भारी,
जख बिटि दिखेन्दि छन,
हिवाँळी काँठी, डाँडी प्यारी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित.मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड, हिमालय गौरव उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर)
दिनांक:२५.६.२०१०, दिल्ली प्रवास से.....(ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी.चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल)
(छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़)

छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२

कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....

बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
छट्ट छुटिगि, ऊ प्यारु पहाड़,
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित,प्रकाशित उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)

मलेेथा की कूल