Wednesday, April 7, 2021

ढुंगा

 


जब क्वी ब्वल्दु मनखि कु,

बल तू ढुंगू छैं,

सुणदन तब ढुंगा,

ह्वन्दा छन भारी नाराज,

तब ब्वल्दन,

ढुंगा मनख्यौं कु,

तुम छैं ढुंगा,

अर दुमुख्या मनखि।

 

सच मा ढुंगा द्यब्ता छन,

मूर्ति बणैक मंदिर मा,

पूजदन मनखि,

घर कूड़ा भि बणौंदन,

जख अपणु जीवन बितौन्दन,

मण्डाण मा ढुंगा बिछैक,

ऊंका ऐंच द्यब्ता नचौन्दन।

 

ढुंगा ब्वल्दन,

हम्न पाड़ नि त्यागि,

तुम मनखि यना छैं,

जख मिलि गळ्खि,

वे मुल्क देस भागी।


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

रचना: 1634

सूर्योदय

 


ह्वन्दु छ जब पाड़ मा,

हिंवाळि कांठी,

सोना चान्दी सी चमकदिन,

अति स्वाणि लगदिन,

चौखम्बा, नन्दा घूंटी,पंचाचूली,

चौखम्बा अर त्रिशूली।

 

पर्वतजन सदा द्यखदन,

करदन भलु ऐसास,

जब औन्दन सूरज भगवान,

ऊंचि हिंवाळि कांठ्यौं बिटि,

देवभूमि उत्तराखण्ड लग्दि,

स्वर्ग का समान।

 

अंध्यारु मिटि जान्दु,

डांडी-कांठ्यौं मा ऐ जान्दु घाम,

ल्यन्दन मनखि सुबेर,

देवभूमि का द्यब्तौं कु नाम।

 

शुरु ह्वन्दु दिन,

करदन मनखि अपणि धाण,

सूरज भगवान चमकदन,

खुश ह्वन्दु ज्यू पराण।

 

सूर्योदय पाड़ मा,

लग्दु अति प्यारु,

मुल्क भि हमारु,

यीं दुन्यां मा अति न्यारु।


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

रचना: 1633

धौळि बचावा

 


धौळ्यौं कु जल्म छ ह्वयुं,

हिमालयी ग्लेशियरों बिटि,

ब्वल्दन जौंकु सदानीरा,

सागर जथैं बग्दु जान्दिन,

टकरान्दिन अपणा किनारों सी।

 

धौळ्यौं का धोरा छन,

प्रसिद्ध पंच प्रयाग,

जख ब्याखुनि बग्त,

बजदन शंख अर घाण्ड,

जगदन झिलमिल द्यू।

 

धौळ्यौं का धोरा बस्यां छन,

सैर अर बजार,

जख बिटि निकळ्दु छ,

प्रदूषित पाणी,

गंदळि कर्याल्यन धौळि,

हे! मनख्यौं तुम्न,

धौळ्यौं की पवित्रता,

कतै नि पछाणि।

 

आज आवाज उठणि,

धौळ्यौं तैं बचावा,

पबित्रता खत्म न करा,

धौळ्यौं तैं न सतावा।


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

रचना: 1632

पहाड़

 


 

मन तैं सकून देन्दन,

जौंका चरण मा बग्दिन,

पवित्र धौळि गंगा-जमुना,

च्वंट्यौं मा चमक्कदु,

सुखिलु चमकिलु ह्युं।

 

बदन मा जौंका धारण कर्यां,

हरा भरा बण,

पीठ फर जौंका झूमदन,

बांज, बुरांश अर देवदार।

 

बाटौं फुंड हिटदा बट्वै,

पौन्दन प्रकृति कु प्यार,

द्यखदन डांडी-कांठी,

मन मा पैदा ह्वन्दु उलार।

 

मनखि ब्वल्दन,

बल जिंदगी पहाड़ ह्वेगि,

पर पहाड़ अति प्यारा,

यीं दुन्यां मा अति न्यारा।

 

जुगराजि रै पहाड़,

त्वेन बीर भड़ द्येखि ह्वला,

आपकु रैबार हम्तैं,

उत्तराखण्ड की जै ब्वला।


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

रचना: 1631

“बसंत बौड़ि ऐगि”

 


 

ह्युंद अड़ेथि बसंत ऐगि,

मन मा छैगि ऊलार,

डांडी-कांठी मुल मुल हैंसणि,

झलकणु फ्यौंलि कु प्यार।

 

बौळ्या बुरांस बौळ्या बणिक,

डांडौं मा लगौणु बणांग,

दूर बिटि डांडौं द्येखि लगदु,

जन फैलीं संग्ता आग।

 

भम्माण ऊदासी दिन छयां,

गैरी घाट्यौं द्येखि ऐसास होंदु,

यु बौळ्या बसंत किलै हमारा?

मन मा कुतग्याळि लगौन्दु।

 

बुरांस हिंवाळि कांठ्यौं तैं,

मुल मुल हैंसि सनकौणा,

हम बिंग्दौं सान सान मा,

अफुमा छ्वीं छन लगौणा।

 

द्यब्तौं की रोपिं पंय्या की डाळि,

फैलौणी बसंती बयार,

फूलीं संग्ता पाख्यौं मा,

बल जख हरी भरी सार।

 

बाळु बसंत बौड़िक ऐगि,

पिंगळि दिखेणि लयाड़ी सार,

कवि जगमोहन जयाड़ा जिज्ञासू”,

रंगमत ह्वयुं बल हपार।


-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

दर्द भरी दिल्ली/ 05/02/2021

रचना: 1630

“अपणि भाषा”

 


बाळापन बिटि ब्वल्दु मनखि,

अपणि प्यारी बोली-भाषा,

ब्वे-बाब सिखौन्दा छन,

ज्व हमारी सदानि आसा। 

 

बीर-भड़ु की भाषा रै,

शब्द स्वाणा रच्यां बस्यां,

भाषा हमारी विरासत भी,

त्रिस्कार कब्बि न कर्यां।

 

शब्द कु असर द्यखा,

डरखु कु ब्वल्दा स्याळ,

एक गौळा रड़ि जू,

वेकु नजर औन्दा भ्याळ।

 

नाचणौं ज्यु करदु जैकु,

वेकु ब्वल्दा छन नचाड़,

नाचणौं कु मण्डाण लगौन्दा,

जख हमारु प्यारु पाड़।

 

शब्द ज्वड़िक भाषा बण्दि,

शब्द बतौन्दा छन भाव,

मयाळु शब्द एक छ,

जैकु ह्वन्दु अपणु भाव।

 

संकल्प ल्यवा भाषा छन,

गढ़वाळि, कुमाऊंनि, जौनसारी,

मिटण न द्यवा बोली भाषा,

जगमोहन जयाड़ा जिज्ञासूतैं प्यारी। 

  

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

दर्द भरी दिल्ली/ 05/02/2021

रचना: 1629

पहाड़

 

पहाड़

 

जिसकी पीठ पर,

मुस्काराते हैं बुरांस,

जिन्हें निहारकर,

अटक जाती है सांस।

 

संदेश देता है हमको,

जिंदगी में बनो महान,

तुम हो पर्वतजन,

उत्तराखण्ड की शान।

 

संवाद करता है सदा,

हिंवाळि कांठ्यौं से,

जो मुस्काराती हैं,

पहाड़ को निहारकर।

 

कहता है हमें,

मुझे मुसीबतों का पहाड़,

कभी मत कहना,

जहां भी रहो तुम,

सदा सुखी रहना।

 

पहाड़ चाहता है,

कभी कभी मेरे पास आना,

क्योंकि मेरे पास है,

प्रकृति का अकूत खजाना। 

 

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू

दिनांक 16/03/202, दूरभाष: 9654972366

रचना: 1628

बुराशं बुलौणा

 


ऋतु मौळ्यार छयिं,

बणु मा बयार अयिं,

बुरांश हैंसणा डांडौं मा,

फ्यौंलि अपणा मैत अयिं।

 

मुल्ल हैंसणि हिंवाळि कांठी,

बुरांश तौं तैं सनकौणु,

मैं छौं तुमसी स्वाणु भारी,

खिच्च हैंसि हैंसि बतौणु।

 

हिंवाळि कांठी ब्वन्न लगिं,

हम छौं त्वेसी स्वाणि भारी,

ऐ नि सक्दौं त्येरा धोरा,

या छ हमारी भारी लाचारी।

 

बुरांश खिल्दन पाड़ हमारा,

प्रवास्यौं तैं याद औन्दि,

ज्युकड़ि मा कबलाट होन्दु,

मुल्कै याद भौत सतौन्दि।

 

कवि जिज्ञासूकल्पना मा,

बुरांश हेरी कलम उठौन्दु,

बुलौणा छन बुरांश हम्तैं,

उत्तराखण्ड्यौं तैं बतौन्दु।

 

कव्यौं का कविमन मा,

बुरांश लगौन्दा छन कबलाट,

ऐसास होन्दु बुरांश बुलौणा,

लगि जान्दौं कल्पना मा बाट।

 

जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासू  

बागी-नौसा, चंद्रवदनी, टिहरी गढ़वाळ

संपर्क: 9654972366

दिनांक 08/04/2021

रचना: 1626

मलेेथा की कूल