Wednesday, November 21, 2012

"तू पैल त कर"

 
मेरी प्यारी ब्वे,
मैं तेरी अजन्मी नौनी छौं,
मैकु जन्म लेण दी,
यीं दुनिया मा,
 
मेरु क्या कसूर छ,
तू पैलि पैल त कर,
यीं दुनिया सी न डर,
मैं तेरु खून छौं,
भ्रूण हत्या पाप कू,
दगडु न कर
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित 22.11.12
 
श्री देविंदर नेगी उपदरी जी के सुझाव पर मैंने ये कविता लिखी

Tuesday, November 20, 2012

"उत्तराखंड मा ऊताणदंड"

ऊँचि धार ऐंच,
एक स्कूल मा,
कुछ नौना नौनी,
बैठ्याँ क्लास मा,
एक नौना सी,
मास्टरजिन पूछि,
बेटा बिशन सिंह बताओ,
ऊताणदंड का मतलब,
क्या होता है?
बिशन सिंहन बोलि,
गुरूजी उत्तराखंड,
गुरुजिन पूछि,
बल कैसे,
देखा गुरूजी,
जब बिटि राज्य बणि,
हमारा स्कूल मा,
विद्यार्थी घटिग्यन,
होन्दा खान्दा लोग,
पहाड़ छोड़िक चलिग्यन,
तुमारु नौनु भी,
देखा देरादूण पढ़णु छ,
मनखी कम ह्वैगिन,
बाँदर सुंगर बढिग्यन,
ऊ टरकौण लग्यां छन,
उत्तराखंड तैं जन,
भेळ फरकौण लग्यां छन,
उत्तराखंड की राजधानी,
पहाड़ नि बणि सकि,
ह्वै न उत्तराखंड कू मतलब,
ऊताणदंड
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित  20.11.12
 

मित्र श्री जयप्रकाश पंवार जी की बात .... इन्टरनेट के ज़माने मे, सचिवालय के बगल मे बैठने की जरूरत नहीं है. इन उल्लुओ को कोई तो समझाओ भाई....गैरसैण को अब पक्का राजधानी बनाओ भाई ......"गैरसैण" पुस्तक से आगे.....पर रचित मेरी कविता "उत्तराखंड मा ऊताणदंड"

 

Monday, November 19, 2012

"यमराज पछताया"


यम पर कविता लिखते हुए,
कवि को निहार कर,
यमलोक से आये हुए,
यमराज के दूत,
यमलोक को लौट गए,
और यमराज से बोले,
महाराज क्या कहें,
आप ही जाकर,
उनको यमलोक लाओ...
यमराज बोले,
ऐसी क्या बात है?
यमदूत बोले,
महाराज वो आप पर,
कविता लिख रहे हैं,
हमने सोचा,
वे आपके मित्र हैं...
ठीक है, यमराज बोले,
मैं अभी जाता हूँ,
क्या लिख रहा है,
सबक सिखाता हूँ,
यमराज धरती पर आये,
देखा कल्पना में डूबे,
कविता लिखते,
तल्लीन हुए कवि को,
जो लिख रहे थे,
हे यमराज अभी नहीं,
मुझे धरा पर रहना है,
कौन करेगा ये कविता पूरी,
रह जाएगी फिर अधूरी,
"यमराज पछताया",
ये कवि "जिज्ञासु" प्रेमी मेरे,
क्योँ मैं यहाँ आया....
मुझे आश्चर्य हुआ,
प्रकृति के चितेरे,
स्व. चंद्रकुंवर बर्त्वाल जी ने,
यमराज पर भी लिखा था,
फिर क्योँ छीना यम ने,
उनका यौवन..........
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
20.11.2012
यह कविता मैंने श्री परासर गौड़ जी की कविता
साक्षात्कार ( यमराज का कबि से ) के सन्दर्भ में लिखी है....

Sunday, November 18, 2012

"हे लठ्याळि"

मैकु दी दी तू,
एक दबाल दिल सी,
माया की मुट्ट बटिक,
मन तैं खुश करिक,
माया अपणि,
हौर कुछ नि चैंदु,
मैकु त्वैसी,
जिंदगी भर कू,
सदा तेरु साथ रौ,
जब तक या जिंदगी,
चल्दि रलि धरी मा,
प्यारा उत्तराखण्ड की,
"हे लठ्याळि".....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Friday, November 16, 2012

"लंगोट्या यार थौ मेरु"

जब मैं अर ऊ,
स्कूल मा पड़दा था,
एक गौळा पाणी थौ,
एक पल नि रन्दा था,
एक हैक्का का बिगर,
पढाई पूरी ह्वै जब,
एक हैक्का सी बिछड़ग्यौं,
जवानी बिति बुढापु आई,
भौत दिनु का बाद,
मैकु मिली ऊ अचाक्क,
पूछण लगि मैकु,
बल भाई साब,
तुमारु नाम क्या छ?
बिछड़दि बग्त जैन,
मैकु बोलि थौ,
मैं त्वैकु कब्बि,
नि भूली सकदु दिदा,
तू मेरा मन मा बस्युं रैल्यु....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित

Thursday, November 15, 2012

"हे गितांग"

तू यना गीत गा,
जौन कुतग्याळि सी लगु,
पर ध्यान रखि,
कैका मन मा तू,
हे! ठेस न लगा....
ह्वै सकु त,
यना गीत लगौ,
मनख्यौं का मन मा,
संस्कृति प्रेम की,
जोत सी जगौ,
पर भलि बात निछ,
क्वी भी खुश निछ,
कैका बोल्यांन,
कैका सोच्यांन,
क्वी फ़र्क नि पड़दु,
पर भलु नि लगदु,
कैकु मान करा,
सम्मान मिल्दु छ.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित १५.११.१२
कविमित्र शैलेंदर जोशी की इच्छा के अनुसार गजेन्द्र राणा जी द्वारा नरेंदर सिंह नेगी पर गए गीत पर मैंने ये रचना लिखी.



Wednesday, November 14, 2012

"काफळ"

काफळ खैल्या,
स्वर्ग मा जैल्या,
यी काफळ छन,
हमारा मुल्क का.....
देवतौं का रोप्याँ,
ऊँचा-ऊँचा डाँडौं मा,
बाँज बुराँश का,
बण का बीच,
देवतौं का हे!
मुल्क हमारा.....
पहाड़ की पछाण छन,
लाल रंग का,
भारी रसीला,
छकि छकिक खूब खाला,
जू अपणा मुल्क आला,
जू नि खाला,
मन मा पछ्ताला,
यी काफळ छन,
भारी रसीला.......

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित , 15.11.12














Tuesday, November 13, 2012

"हमारी भैंसी"

 
जैंकी आत्मा,
आज भी भटकदि छ,
हमारा खंडवार होयां,
कूड़ा का ओर पोर,
कुजाणि क्यौकु,
यनु लग्दु,
वीं सनै आज भी,
लगाव छ जन्मभूमि सी...
वीं बिचारि का प्रताप,
हम्न दूध पिनि घ्यू खाई,
घ्यू की माणी बेचिक,
बुबाजिन हम पढाई,
जब वा बुढया ह्वै,
बुबाजिन बेची दिनि,
वांका बाद वींकू,
क्या हाल ह्वै?
पता तब लगि,
तुमारी भैंसी की आत्मा,
बल भटकदि छ,
तुमारा कूड़ा का ओर पोर,
गौं वाळौंन बताई....
हम दूर छौं आज,
"हमारी भैंसी" की कृपा ह्वै,
पढ़ी लिखिक हमारू,
यथगा विकास ह्वै,
हम घौर जुग्ता नि रयौं,
खाण कमौण का खातिर,
सदानि का खातिर,
पलायन करिक,
पाड़ सी दूर अयौं......
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित १४.११.२०१२

Thursday, November 8, 2012

"सच बोंनु छौं"

सुणा हे सुणा,
अपणा मन मा गुणा,
मैं त बौळ्या बण्युं छौं,
सोचा हे ! यनु क्या ह्वै,
मौळ्यार अयुं होलु क्या,
मौळ्यार छयुं होलु क्या,
या मैं अपणा प्यारा मुल्क,
पहाड़ गयुं होलु क्या,
मन यथगा खुश किलै,
बौळ्या बण्युं छौं जू आज,
भला ही होला मेरा मिजाज,
मन की ख़ुशी लुकै नि सकदु,
"सच बोंनु छौं"......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित ८.१.१२
 

Monday, November 5, 2012

"चकड़ीत दरोळु"

 
हे राम! क्या बोन तब,
पहाड़ का एक गौं मा,
एक सयाणु मनखि,
दिखेण मा लिंग्रताण्या,
पर होशियार भारी,
रखिं रंदि थै जैकि,
अफमु लोण की गारी,
देख्दु थौ जख बैठ्याँ,
अपछाण दूर का,
दारू पेंदा दरोळा,
बोल्दु थौ, हे बेटौं,
न पेवा, चुचौं दारू,
हे! भलु होलु तुमारु,
तब बोल्दा था दरोळा,
हे बोडा तू भी चाख,
भलि चीज छ दारू,
फेर झट्ट बोल्दु बोडा,
बेटौं मैं नि पेंदु दारू,
थोड़ा सी देवा मैकु,
स्टील का गिलास फर,
कनि होन्दि होलि,
आज चाख्दु छौं,
दरोळौन गिलास भरि,
अर बोडा का अग्वाड़ि,
हाथ बढाई,
तबर्यौं एक जाणकार,
कुजाणि कख बिटि आई,
यु "चकड़ीत दरोळु" छ,
वैन दरोळौं तैं बताई,
क्वी बात निछ,
दरोळौंन बोलि,
हे! हमारू दगड़्या छ.....
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित, ५.११.१२

Friday, November 2, 2012

"कल्पना करो"

उत्तराखंड का एक गाँव,
जहाँ के लोग,
विविन्न पदों से,
सरकारी सेवा से,
सेवा निवृति के बाद,
दे रहे हैं सेवाएँ,
अपने गाँव लौटकर,
डाक्टर के रूप में,
मरीजों की सेवा करके,
शिक्षक के रूप में,
विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करके,
सैन्य अधिकारी के रूप में,
नौजवानों का मार्गदर्शन करके,
ग्राम प्रधान के रूप में,
गाँव का सतत विकास,
जल जंगल सरंक्षण,
सामाजिक विकास और,
कृषि बागवानी विकास करके,
अगर ऐसा हो,
हर उत्तराखंड के गाँव में,
कितना विकसित होगा,
हमारा उत्तराखंड,
जरा "कल्पना" करो.......
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"

Thursday, November 1, 2012

"क्या बोन्न! हे दिदौं"

भैंसा पाळिक घ्यू खांदा था,
अब पाळ्दा कुत्ता,
घ्यू का बदला दारू पेणा,
बण्याँ छन जुत्ता,
हाल यना होयां छन,
छकि छकिक पेण लग्यां,
होश सी बेहोश होयां,
सुलार ऊद मुता,
कनु जमानु आई हे,
नौना नौनी का ब्यो मा,
भारी डौर होईं छ,
दारू का दिवानौ की,
नयुं रिवाज शुरू ह्वैगी,
दिनमानि  कू  ब्यो,
कळजुग्यौं की कृपा सी,
आज देखा यनु ह्वैगी,
जनु भि ह्वै, भलु ह्वै,
अब "क्या बोन्न! हे दिदौं"...
अनुभूतिकर्ता: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित १.११.२०१२ 
 

मलेेथा की कूल