Wednesday, April 27, 2011

"हमारा गौं का हळ्या"

अब चकड़ीत ह्वैग्यन,
हौळ लगाणु छोड़िक,
ऊ भि परदेश चलिग्यन,
सैडा गौं कु हौळ अब,
द्वी तीन हळ्या,
अर वथगा हो जोड़ी बल्द,
लगौणा छन,
हौळ क्या बोन्न!
मोळ माटु बोला या काटु,
कना छन,
धरती मा अब,
मन्ख्यौं क़ू विस्वास नै रै,
नरक रुपी नौकरी भलि,
सब्यौं क़ू विचार छ,
आज क़ू आधार छ,
नयाँ जमाना की रंगत,
बिंगा थौळ छ,
निरर्थक हौळ छ,
हर्चण लग्यां छन अब,
"हमारा गौं का हळ्या".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २६.४.२०११
@सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Monday, April 25, 2011

"दिन बौड़िक ऐगिन"

प्यारा उत्तराखंड का,
पारम्परिक ढोल का,
ढोल कू मान बढ़ौण वाळा,
परम्परा कायम रखण वाळा,
पारम्परिक ढोली का,
उत्तराखंड की शान, ढोल,
खामोश छन! जैका बोल,
उत्तराखंडियों का कारण,
जू वैकू त्रिस्कार कना छन.

सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी,
अमेरिका देश का,
संगीत का प्रोफेसर,
स्टीफन "फ्योंलिदास",
जौन सिख्यन,
पुजारगांव, चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल का,
सोहनलाल जी सी,
ढोल की तान,
ल्हिगिन उत्तराखंड कू ढोल,
अपणा देश अमेरिका,
जख बढणि छ वैकी शान.

विजिटिंग प्रोफेसर का रूप मा,
सोहनलाल, सुकारू दास ढोली,
अब आमंत्रित छन अमेरिका,
जू सिखाला वख ढोल,
ढोल का प्यारा बोल,
बढाला वैकू दूर देश मा,
मान अर सम्मान,
हे उत्तराखंड ढोल,
तेरा "दिन बौड़िक ऐगिन",
कवि "जिज्ञासु" गदगद छ,
तू जुग जुग राजि रै.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २४.४.२०११
@सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Tuesday, April 19, 2011

बुरांस

कवि "जिज्ञासु" की नजर में,
बुरांस पहाड़ की शान है,
हर उत्तराखंडी को,
उस पर अभिमान है.
वो पहाड़ पर ही,
रहता और खिलता है,
प्रवासी उत्तराखंडियों को,
उसका रैबार मिलता है.
ऋतु बसंत में,
लौट आओ....
मैं तुम्हारे मुल्क में,
हिमालय को निहार कर,
मुस्करा रहा हूँ,
जन्मभूमि आपकी,
और मैं,
आपको याद दिला रहा हूँ.

फिर न होगा जन्म यहाँ,
न जाने वो कौन सा देश होगा,
पर्वत और मैं,
शायद वहाँ नहीं होंगे.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १८.४.२०११'

"दारू अर खारू"

बोन्न लगिं छ बोडी,
तिबारी मा बैठी,
हे चुचों!
कनि मति मरि तुमारी,
क्यौकु होयुं छ,
रात दिन तुमकू,
"दारू अर खारू",
जरा! सोचा मन मा,
देवतों कू मुल्क छ,
उत्तराखण्ड हमारू.

ब्यो हो या बारात,
पेन्दा छैं तुम,
दिन हो या रात,
करदा छैं हो हल्ला,
मचौंदा छैं उत्पात,
मेरी दानी बात माणा,
भलि निछ या बात,
कैकु भलु,
आज तक नि ह्वै,
"दारू अर खारू" पीक.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Friday, April 8, 2011

"ढुंगू ह्वैगि पराण"

दुनियां का दिन देखि,
सैडी जिंदगी भर,
फाळ मारदु-मारदु,
कळ्त बळ्त करदु करदु,
भिन्डी की चाह मा,
अजौं तक नि भरे ज्यू,
खबानी किलै, केका खातिर.

भेद कू पता नि लगि,
कैन सताई, कैन पिथाई,
बणिन बाठ रोड़ा,
जऴिन ज्युकड़ी जौंकी,
सेळि नि पड़ी,
बुरू सोचिक, करिक भी,
पर "ढुंगू ह्वैगि पराण",
दुनियां तेरा हाल देखिक.
सच नि छैं तू,
सब मायाजाल छ.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.4.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Thursday, April 7, 2011

"तू आज"

यथगा खुश किलै छैं?
अफुमा-अफुमा भारी,
आंख्यौं फर भरोंसु,
क्या सच छ, सच मा,
तू बैठीं छैं तिबारी मा,
भलि बाँद की अन्वारी.

कथगा स्वाणी लगणि छ,
तेरी मायाळु मुखड़ी,
"तू आज" यनि लगणि छैं,
जनि हो जुन्याळि जोन,
त्वै तैं हेरी हेरिक धक् धक्,
कनि मेरी ज्युकड़ी.

तेरा रूप की बात,
क्या बतौण, त्वै हेरिक,
बुरांश बिचारू ललसेणु छ,
मन मेरु भी अफुमा-अफुमा,
तेरु मिजाज, रंग अर रूप,
झळ-झळ लुकां ढकाँ देखिक,
क्या बोन्न ललचेणु छ,
किलैकि भारी बांद,
लगणि छैं लठ्याळि "तू आज".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Wednesday, April 6, 2011

"निर्भागी"

जैका भाग मा,
सदानि टोटग ऊताणि,
क्या बोन्न,
कखन होण खाणी बाणी,
तर्स्युं-तर्स्युं सी रन्दु,
वेकु पापी पराणि......

हरेक मनखि कू,
होंदु छ अपणु-अपणु भाग,
चल्दि छ जिंदगी,
क्वी ह्वै जांदु भग्यान,
कैकु ऐ जांदु निर्भाग.....

भलु भाग जू नि ल्ह्यौंदु,
मांगिक अपणा दगड़ा,
वेकु जीवन ह्वै जांदु,
जन रगड़ा भगड़ा,
"निर्भागि" का रूप मा,
जैका आँखौं मा सदानि आंसू....
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ६.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

मलेेथा की कूल