Wednesday, December 28, 2011

(बाग,रीक्क, बांदर अर सुंगर)

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु)
हे राम! क्या बोन्न तब?
आज हमारा उत्तराखंड मा,
यूंकू राज होयुं छ.....

बाग कुजाणि घर बण फुंड,
क्यौकु डुक्कन्न लग्यां छन,
खौंबाग भी होयां छन,
गौं फुंड जू मनखि रयां छन,
डन्न लग्युं छ ऊंकू मन....

कूड़ा की पठाळ,
बांदर हलकौणा छन,
चौक मा लगिं चचेंन्डी,
काखड़ी,मुंगरी दनकौणा छन...

रीक्क बण बूट मा,
मनख्यौं बग्दौणा छन,
हॉस्पिटल मा लोग तब,
इलाज का खातिर औणा छन.....

सुंगर आबाद अर बांजा पुंगडौं,
लोट पोट ह्वैक, उत्पात कन्ना छन,
क्या बोण, क्या लौण फसल पात?
बल हताश होयां छन,
नेतौं की बात क्या बोन्न,
ऊ बिना बोयां लौण लग्यां छन....
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २९.१२.२०११)
www.pahariforum.net

"पहाड़ की पोथली"

जू करदि छन चुंच्याट,
दिन भर डाळ्यौं मा बैठिक,
फुर्र यथैं वथैं उड़ी उड़िक,
जान्दी छन झपन्याळि डाळ्यौं मा,
जन भीमळ, खड़ीक, बांज, बुरांश की,
अर पैदा करदि छन,
चुंच्याट मचैक मनभावन,
कर्ण प्रिय गीत संगीत.......

पहाड़ की की प्यारी घुघती,
जब घुरान्दी छ,
तब खुदेड़ भौत खुदेन्दा छन,
पोथली अर इंसान कू रिश्ता,
कथगा मार्मिक छ,
पोथल्यौं का प्रति प्रेम करा,
दगड़्या छन हमारी,
"पहाड़ की पोथली"......
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २८.१२.२०११
www.pahafirforum.net

Tuesday, December 27, 2011

"ढाक के वही तीन पात"

सोचा था ऊजाला होगा,
खुशहाल होंगे खेत खलिहान,
जन्म हुआ था उत्तराखंड का,
मन में था बहुत अभिमान...

आबाद नहीं बेघर हुए,
पहाड़ के लिए आज भी रात,
गावों में ख़ामोशी पसरी,
जैसी थी वैसी है बात.....

पर्वतजन मनन करो,
हमारे उत्तराखंड में अब चुनाव,
वक्त है सतर्क हो जाओ,
मूछों पर अब दे दो ताव.....

बकरी नहीं बाघ बनो,
ढंग से करो प्रतिनिधि का चुनाव,
जो सपने साकार करे,
फिर न हो, मन में पछताव.....

कवि "जिज्ञासु" दुविधा में,
देखो बहुत दुःख की बात,
पहाड़ आज खाली हो गया,
पर्वतजन है खाली हाथ,
निराश है देवभूमि भी,
उत्तराखंड बनाने के बाद,
ढाक के वही तीन पात....

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७.१२.२०११)

Monday, December 26, 2011

पराणु सी प्यारू पहाड़

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
हमर पहाड़, म्यर पहाड़,
हमारू पहाड़, मेरु पहाड़,
देवतौं कू प्यारू पहाड़,
ब्वै बाबू कू प्यारू पहाड़,
मन मा बस्युं प्यारू पहाड़,
पर्वतजन कू प्यारू पहाड़,
दुनिया मा न्यारू पहाड़,
जू भी बोला,
पराणु सी प्यारू पहाड़...
देवतौं कू वास जख,
बद्री-केदार जख,
शिवजी कू कैलाश जख,
गंगा माँ कू, नन्दा माँ कू,
प्यारू छ मैत जख,
मुल हैंस्दु बुरांश जख,
हिंवाळि कांठ्यौं तैं हेरी,
गर्व होन्दु छ मन मा,
जन्म-भूमि ज्व छ मेरी,
पराणु सी प्यारू पहाड़...पहाड़ का रंग प्यारा,
पय्याँ,फ्योंली अर बुरांश,
दिख्दा छन जख न्यारा,
बांज, बुरांश, देवदार, कैल,
कुळैं की डाळी कू छैल,
जख धोंदी गंगा माँ,
मनख्यौं का तन मन कू मैल,
सदानि जुगराजि रान,
पराणु सी प्यारू पहाड़...(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७.१२.२०११)
www.pahariforum.net

Friday, December 23, 2011

"चिठ्ठी वींका नौं"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मैं यख राजि ख़ुशी छौं,
तू तख होलि,
मेरा नौना नौनी का दगड़ा,
यानि प्यारा बाल बच्चों दगड़ि...

तू लिखणी छैं, सैडा गौं की ब्वारी,
बाल बच्चों समेत प्रदेश चलिग्यन,
गौं छोड़िक, अपणा ऊं दगड़ि,
अबरी दां जब मैं घौर औलु,
त्वे भी ल्ह्यौलु अपणा दगड़ा,
तू जग्वाळ मा रै, निराश न ह्वै....

प्यारी ब्वै कू क्या होलु?
ब्वैन त बोन्न,
मैं नि औन्दु तुमारा दगड़ा,
मेरु त ज्यू नि लगदु,
परदेश मा, भक्कु भी भौत लगदु,
अपणा ज्युन्दा ज्यू,
नि छोड़ी सकदु घर बार,
प्यारू मुल्क, प्यारा मैत जनु....

तू निराश न ह्वै, जग्वाळ मा रै,
मेरु भी मन नि लगदु यख,
अब घर गौं त छोडण ही पड़लु,
या बग्त की बात छ......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.१२.२०११)
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Tuesday, December 20, 2011

"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मेरु बचपन कू एक दगड्या,
अपणा प्यारा मुल्क पहाड़ मा,
चन्द्रबदनी मंदिर का मेळा मा,
ऊँचि धार ऐंच मैकु मिलि.

ऊ अर मैं,
शहर की जिंदगी सी दूर,
बेखबर खड़ा था होयां था,
ओडा का डांडा बिटि,
ठण्डु बथौं फर फर औणु थौ,
कखि दूर हैन्स्दु हिमालय,
दूध जनु सफ़ेद अर प्यारू,
बांज बुरांश कू मुल्क हमारू,
हमारा मन मा ऊलार पैदा कन्नु थौ.

बचपन की छ्वीं बात लगिन,
कख कख छन दगड्या प्यारा,
घर अर परिवार की बात,
कुतग्याळि सी लग्यन मन मा,
बित्याँ दिनु की बात याद करिक,
समय कू पता नि लगि,
कथगा देर बैठ्याँ रैग्यौं,
समय सामणि खड़ु थौ,
वैन बोलि, जवा अब घौर जवा,
मिन्न कू अब बगत ख़त्म ह्वैगी,
दगड्या अर मैं अपणा बाटा हिट्यौं,
हमारा मुख सी छुटि,
"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज".
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २१.१२.२०११)
www.pahariforum.net
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

Monday, December 19, 2011

"कथगा खैल्यु"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
भिन्डी त नि बोल्दौं मैं,
पर जथगा मेरा भाग मा होलु,
राळी राळिक अपणा हाथन,
बड़ा बड़ा गफ्फा मारिक,
अर सपोड़िक जरूर खौलु,
तुमारु नि खौलु, कैकु नि खौलु,
अपणा हाथुन मेहनत की खौलु...

पूछा वे सनै, जू फ़ोकट की,
लूट औताळि की, बिराणी पीठी मा,
सदानि खांदु, बेदर्द ह्वैक,
पिचास की तरौं, मनखि ह्वैक भी,
तब्बित पूछि नेगीदान,
अपणा गढ़वाली गीत का द्वारा,
हे तू "कथगा खैल्यु" हराम की,
चुचा मेहनत की खा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २०.१२.११)
www.pahariforum.net

Sunday, December 18, 2011

"वीं भग्यानन कुछ नि बोलि"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
जिंदगी मा, मैन जू भि करि,
दारू पीक दरोळु बण्यौं,
गौं की गुजारी मा, पड़्युं रयौं,
खै पीक बेहोश होयौं,
जनकैक छोरा छारा, घौर ल्हेन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....

वींमा मैन झूट भि बोलि,
दुनियान मैकु झूट्टू बोलि,
पर अपणा मन की गेड़,
मैन वींमा कब्बि नि खोलि,
क्या बोन्न हे दुनिया वाळौं,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....

सारी जिंदगी वींका दगड़ा बिताई,
पर वींकू ख्याल कम ही आई,
जिंदगी भर दुनिया देखि,
वींका हाल फर मैकु,
तरस कब्बि नि आई,
खूब सेवा करि वींन मेरी,
क्या बोन्न कर्म मेरा यना रैन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १९.१२.२०११)
www.pahariforum.net

Wednesday, December 14, 2011

"कविमन की बात"

आज भी याद है मुझे,
वो दिन,
जब ढोल दमौं बजा,
मुश्क्या बाजा भी,
पौणौ की लंगट्यार लगी,
बारात सजी,
और दूल्हा बनकर,
पालकी में बैठा,
क्या तुम्हे भी याद आती है,
अपनी शादी की?
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११

जब नहीं मिलेंगे सन्देश मेरे,
समझना दाल में कुछ काला है,
मेरे बाद आपको,
कौन कुछ बताने वाला है,
मन में तमन्ना है,
जब तक आपके बीच रहेंगे,
कविमन से कुछ तो कहेंगे,
पहाड़ और पहाड़ की संस्कृति पर,
प्यारी गढ़वाली कविताओं के द्वारा,
चाहत है कविमन में मेरी,
आपकी दुआएं मिलती रहें...
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११
E-mail: j_jayara@yahoo.com

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)

क्यों किया था प्यार आपने,
फिर कैसे जुदा हो गये,
इंतज़ार आज भी है मुझे,
कब मिलोगे आप,
इस धरा से जाने से पहले.
(जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु, 13.12.11)

क्या बोन्न बात उत्तराखंड का ढोल की,
वैका प्यारा बोल की,
जुग राजी रै, तू सदानि,
मेरा कविमन की कामना छ....
उत्तराखंडी भाई बंधो...
ढोल कू त्रिस्कार न करा,
ब्यो बारात मा,
ढोल की शान बढ़ावा.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाडा "जिज्ञासु" 12.11011

"कविमन की बात"

आज भी याद है मुझे,
वो दिन,
जब ढोल दमौं बजा,
मुश्क्या बाजा भी,
पौणौ की लंगट्यार लगी,
बारात सजी,
और दूल्हा बनकर,
पालकी में बैठा,
क्या तुम्हे भी याद आती है,
अपनी शादी की?
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११

जब नहीं मिलेंगे सन्देश मेरे,
समझना दाल में कुछ काला है,
मेरे बाद आपको,
कौन कुछ बताने वाला है,
मन में तमन्ना है,
जब तक आपके बीच रहेंगे,
कविमन से कुछ तो कहेंगे,
पहाड़ और पहाड़ की संस्कृति पर,
प्यारी गढ़वाली कविताओं के द्वारा,
चाहत है कविमन में मेरी,
आपकी दुआएं मिलती रहें...
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११
E-mail: j_jayara@yahoo.com

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)

क्यों किया था प्यार आपने,
फिर कैसे जुदा हो गये,
इंतज़ार आज भी है मुझे,
कब मिलोगे आप,
इस धरा से जाने से पहले.
(जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु, 13.12.11)

क्या बोन्न बात उत्तराखंड का ढोल की,
वैका प्यारा बोल की,
जुग राजी रै, तू सदानि,
मेरा कविमन की कामना छ....
उत्तराखंडी भाई बंधो...
ढोल कू त्रिस्कार न करा,
ब्यो बारात मा,
ढोल की शान बढ़ावा.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाडा "जिज्ञासु" 12.11011

Monday, December 12, 2011

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)
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"हे! हम बौळ्या नि छौं"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हात जोड़ै छ आपसी, प्यारा उत्तराखंडी भै बंधो,
तुम यनु नि सोच्यन, हम बौळ्या छौं.....

अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
हमारा प्यारा गितांग भैजिन,
वे प्यारा उत्तराखंड की शुर्मा,
द्वी गति बैशाख मेळा मा बुलाई,
कुतग्याळि लगौण वाळा गीत लगैक,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
अपणि प्यारी बोली भाषा कू प्रेम जगाई...

हमारू भि प्रयास यु हिछ,
वे प्यारा उत्तराखंड कू मान बढौला,
आज आयां छौं हम यख,
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
भलि भलि छ्वीं बात लगौला,
जब जब जौला मुल्क अपणा,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
घर्या घ्यू अर कंडाळि खौला.....

मान सम्मान बोली भाषा कू,
प्यारा पहाड़ की संस्कृति कू,
आवा मिलि बैठिक आज,
बिंगला अर बिंगौला.......

मुल्क हमारू कथगा प्यारू,
जख फ्योंली, बुरांश, आरू, घिंगारू,
हमारा तुमारा मन मा बस्युं,
क्या बतौण कथगा प्यारू......

हात जोड़ै छ आपसी,
क्या बतौण कवि मन छ हमारू,
यी मन का ऊमाळ कवि "जिज्ञासु" का,
तुम यनु न सोच्यन, यू बौळ्या छ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १०.११.११ को रचित)
फरीदाबाद मा "अन्ज्वाळ" द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन का खातिर रचिं या मेरी कविता जैन्कू पठन दिनांक ११.१२.११ कू मैन मंच फर मौजूद श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी, श्री हीरा सिंह राणा जी, गणेश खुगशाल "गाणि" जी, डा. मनोज उप्रेती जी अर अन्य कवि मित्रों का समक्ष करि.
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"हे! हम बौळ्या नि छौं"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हात जोड़ै छ आपसी, प्यारा उत्तराखंडी भै बंधो,
तुम यनु नि सोच्यन, हम बौळ्या छौं.....

अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
हमारा प्यारा गितांग भैजिन,
वे प्यारा उत्तराखंड की शुर्मा,
द्वी गति बैशाख मेळा मा बुलाई,
कुतग्याळि लगौण वाळा गीत लगैक,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
अपणि प्यारी बोली भाषा कू प्रेम जगाई...

हमारू भि प्रयास यु हिछ,
वे प्यारा उत्तराखंड कू मान बढौला,
आज आयां छौं हम यख,
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
भलि भलि छ्वीं बात लगौला,
जब जब जौला मुल्क अपणा,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
घर्या घ्यू अर कंडाळि खौला.....

मान सम्मान बोली भाषा कू,
प्यारा पहाड़ की संस्कृति कू,
आवा मिलि बैठिक आज,
बिंगला अर बिंगौला.......

मुल्क हमारू कथगा प्यारू,
जख फ्योंली, बुरांश, आरू, घिंगारू,
हमारा तुमारा मन मा बस्युं,
क्या बतौण कथगा प्यारू......

हात जोड़ै छ आपसी,
क्या बतौण कवि मन छ हमारू,
यी मन का ऊमाळ कवि "जिज्ञासु" का,
तुम यनु न सोच्यन, यू बौळ्या छ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १०.११.११ को रचित)
फरीदाबाद मा "अन्ज्वाळ" द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन का खातिर रचिं या मेरी कविता जैन्कू पठन दिनांक ११.१२.११ कू मैन मंच फर मौजूद श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी, श्री हीरा सिंह राणा जी, गणेश खुगशाल "गाणि" जी, डा. मनोज उप्रेती जी अर अन्य कवि मित्रों का समक्ष करि.

Thursday, December 8, 2011

"तौं डाँड्यौं का पोर"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
रौंत्याळु मुल्क छ, बल हे! हमारू,
जख गौं का न्यौड़ु, पाणी कू धारू,
देव्तौं का मंडुला, हरीं भरीं रौंत्याळि सार,
बण बूट प्यारा, रंगीला त्यौहार,
ज्यू करदु झट्ट चला, अपणा प्यारा मुल्क,
जख फुन्ड घुघति, दनकदि सुरक सुरक,
प्यारा बुरांश फ्योंलि कू, जू छ बल मुल्क,
डांडा, धार, गाड, गदना, जख पुंगड़ा प्यारा,
बांज, देवदार, कैल, रंसुळा, बगवान न्यारा,
शिवजी कू कैलास, पार्वती जी कू मैत,
देव्तौं की भूमि, कनु भाग हमारू,
जन्म भूमि छ हमारी तुमारी,
कवि "जिज्ञासु" की "तौं डाँड्यौं का पोर"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाश्ति)
www.pahariforum.net

Wednesday, December 7, 2011

"माटु छ मनखि"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जरा मन मा सोचा,
क्या सच छ?
फिर किलै अपणा मन मा,
हम तुम यनु नि सोच्दा,
एक दिन यनु आलु, जब हम तुम,
माटा मा मिलिक, माटु बणि जौला,
कुजाणि फिर यीं धरती मा,
कब माटा कू मनखि बणिक,
पुनर्जन्म धरिक औला...

सच जू भि छ मनखि कू,
पर जन्म-भूमि बोली भाषा कू,
ब्वे-बाब, नाता रिश्तों कू,
संस्कृति कू मान सम्मान करा,
अभिमान अपणा मन मा,
जिंदगी मा भला काम फर करा,
याद रखा "माटु छ मनखि".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ८.११.२०११ )
www.pahariforum.net

Thursday, November 24, 2011

"पित्र हमारा देखणा छन"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
झळ-झळ पित्र कूड़ौं बिटि, गौं का न्यौड़ु,
जख भि छन,
ऊजड़दा कूड़ा, बजेंदा पुंगड़ा,
निराश घर गौं, सगोड़ा भि,
हे! हमारा तुमारा,
भौत उदास होयुं छ, बल ऊँकू मयाळु मन,
आज हाथ हमारा तुमारा,
कुछ भि निछ,
सोचि सकदौं, पर कुछ नि करि सकदौं,
च्हैक भि,
किलैकि, आज वक्त की मार छ,
पर क्या होलु, हे बद्रीविशाल जी,
हमारा उत्तराखंड कू यनु विकास हो,
हमारा हाथ सी,
भौ भल्यारी, होंणी खाणी, सब्बि धाणि,
पहाड़ कू मिजाज भलु रौ,
हम भि ख्याल रखौं, अर्थ हो अनर्थ ना,
यनु माणिक, हे! "पित्र हमारा देखणा छन".
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २२.११.२०११)
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

"उत्तराखंड की धरती मा"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २४.११.११)
सुणा तुम बतौणु छौं,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....

बिना बोल्यां जख बुरांश,
डाळ्यौं मा घुघती हिल्वांस,
गान्दा गीत रूमि झूमि,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....

अलकनन्दा भागीरथी का,
किनारा कथगा छन प्यारा,
घट्ट घुम्दा गाड मा,
वे प्यारा मुल्क हमारा,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....

फ्यौंलि,पय्याँ, आरू, घिंगारू,
जख ऊँचि धार बिटि दिखेंदु
उत्तराखंड हिमालय प्यारू,
पुंगड़ा, पाखा, बण बूट,
रीत रसाण, रौ रिवाज,
पौणा तैं पिठैं लगौंदा,
देवतौं कू मुल्क देवभूमि,
जख देवतौं का धाम छन,
वीं उत्तराखंड की धरती मा,
उपज्युं एक बीज छौं,
मनखि छौं पहाड़ कू,
गांदू वैका गीत छौं.....
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
www.pahariforum.net
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

Wednesday, November 16, 2011

"उत्तराखण्ड मा रेल"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
ऋषिकेश बिटि कर्णप्रयाग तक,
चललि बल रेल,
देखा दौं कथगा सुन्दर छ,
बल यू खेल.....
ह्वै सकदु प्रवासी उत्तराखंडी,
रेल मा बैठिक, अपणा उत्तराखण्ड,
परदेश बिटि बौ़ड़िक आला,
अपणा मुल्क की सुन्दरता मा,
चार चाँद लगाला, ख़ामोशी भगाला,
घरू का बन्द द्वार मोर ऊगाड़ला,
ऊदास कूड़ी पुंगड़ि आबाद होलि,
विकास की बयार बगलि,
सुन्दर सुपिनु अर खेल छ,
अगर! यनु होलु त समझा,
"उत्तराखण्ड मा रेल",
एक भलु खेल छ.......
पर यनु भी ह्वै सकदु,
प्रवासी उत्तराखंडी बौ़ड़िक नि आला,
भैर का लोग, उत्तराखण्ड की जमीन,
कौड़ी का भाव खरीदिक,
महल बणाला, अपणा पाँव जमाला,
हे! उत्तराखंडी भै बन्धो, हमारी ठट्टा लगाला,
यनु होलु खेल, ऊँका खातिर वरदान,
"उत्तराखण्ड मा रेल", जरा सोचा.......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १७.११.११ )
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Tuesday, November 15, 2011

"बाग़ अर रीक्क"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जौंकु नौ सुणिक, हे! राम,
मनखि का मन मा,
भारी डौर पैदा ह्वै जान्दि छ,
हो भी किलै ना,
होन्दा ही खतरनाक छन...
कै जमाना रुद्रप्रयाग मा,
निर्भागी मनस्वाख बागन,
कै मनखि खैन,
अजौं भी खांदा छन,
रीक्क मन्ख्यौं बगदौन्दा छन...
पर आज का जमाना मा,
मनखि "बाग़ अर रीक्क",
बण्याँ छन, होयां छन,
मन्ख्यौं का खातिर........
सोचा दौं,
क्या ईलाज छ युंकू?
मनखि ही खोजि सकदु,
जन हमारा उत्तराखंड मा,
भ्रष्ट्राचार का खातिर,
लोकायुक्त बिल पास करिक,
ईलाज कू प्रयास होणु छ.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १५.११.२०११)
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Wednesday, November 9, 2011

"उत्तराखंड दिवस"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ९.१०.११)
जै फर गर्व छ, हरेक उत्तराखंडी तैं,
हो भि किलै न, लड़ी भिड़िक लिनि,
उत्तराखण्ड राज्य, उत्तराखण्ड वासियौंन,
प्यारा प्रवासियौंन, होणी खाणी का खातिर,
पराणु सी प्यारू, दुनिया मा न्यारू,
हे! उत्तराखण्ड राज्य हमारू.....
संकल्प हो सब्यौं कू,
बोली-भाषा, संस्कृति कू सृंगार,
मन सी सदानि, उत्तराखण्ड सी प्यार,
भला काम करिक समाज कू मान,
विरासत फर होयुं चैन्दु अभिमान,
जौन दिनि बलिदान अपणु,
उत्तराखण्ड राज्य निर्माण का खातिर,
मन सी करा ऊँकू सम्मान,
देवभूमि छ हमारी जन्मभूमि,
जख विराजमान छन बद्रीविशाल,
कथगा प्यारू रंगीलो कुमाऊँ,
अर छबीलो प्यारू गढ़वाल.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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Tuesday, October 18, 2011

"हे निहोण्यां निखाण्यां"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
कथगा ज्वान ह्वैगें तू,
अब कै सनै पछाण्नि भि नि छैं,
बोल दौं कू छौं मैं?
हे बाबा! कथगा लम्बा लटुला छन तेरा,
क्या छैं तू बण्युं?
देशी न पाड़ी,
हे कनि मति मरि तेरी,
कबरी अयैं तू परदेश बिटि घौर?
ब्याळि आया हूँ मैं बौडी,
मेरा पराण भौत खुदे रहा था,
ब्वै बाब की भौत याद आ रही थी,
अर बौडी तेरी भी.....
हट्ट.."हे निहोण्यां निखाण्यां",
क्या हिंदी फूक रहा है मेरा दगड़ा,
मैकु त अपणि बोली भाषा,
भौत प्यारी लग्दि छ.......
चल, मेरी कोदा की रोठी,
अर पळिंगा की भूजि बणैयीं छ,
खैली हे चुचा तू......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १८.१०.११)
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Friday, October 14, 2011

"अंग्वाळ"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मारदा छन मनखि,
अपणौ़ फर, दगड़्यौं फर,
डाळा फर,
भौत दिनु बिटि बिगळ्याँ,
अर घर बौड़्याँ,
प्यारा दगड़्या, लंगि संगि फर....
उत्तराखंड हिमालय,
डाँडी-काँठी भि मारदि छन,
अफुमा, देखि होलि आपन,
जब जाँदा होला,
देवभूमि-जन्मभूमि,
कुमाऊँ अर गढ़वाळ.....
अपणि संस्कृति फर,
प्यारी बोली भाषा फर भि,
मारीं चैन्दी,
हे चुचौं, बल "अंग्वाळ",
जू प्यार कू प्रतीत छ.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, १४.१०.२०११)
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Thursday, October 13, 2011

"मलेथा"

माधो सिंह भण्डारी जी की,
जन्मभूमि-कर्मभूमि,
पवित्र माटी प्यारे गाँव की,
होगी उन्होनें चूमी......
कूल बनाकर किया सृंगार,
माधो जी ने तेरा मलेथा,
दिया बलिदान प्रिय पुत्र का,
हृदय उनका क्रूर नहीं था....
बिन पानी के खेत थे,
पीने को नहीं था पानी,
दर्द दूर किया सदा के लिए,
मलेथा तुझे दी जवानी.....
आज आम के बगीचे हैं,
सजती लहसुन प्याज की क्यारी,
मलेथा तेरी कूल बनाकर,
अमर आज माधो सिंह भण्डारी......
महान त्याग माधो जी का,
जो दिया पुत्र का बलिदान,
धन्य है जन्मभूमि मलेथा,
माधो जी उत्तराखंड की शान........
दिनांक: ८.११.२०११
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मित्र वेदप्रकाश भट्ट जी के अनुरोध पर उनकी सांस्कृतिक पत्रिका के लिए रचित.
E-mail: vedprakash1976@yahoo.co.in

"भुला कख छ तेरू गौं"

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
पूछा दौं वे सनै,
जैन पहाड़ छोड़्यालि,
बोललु ऊ, पूछ्लु ऊ,
हिंदी मा,
क्या मतलब छ तेरु?
द बोला, कनु कसूर करि,
क्यौकु पूछि होलु,
मैन त सोचि थौ,
बतालु गर्व सी,
अपणा प्यारा गौं कू नौं....
क्या बोन्न! खौळेग्यौं,
अफुमा, चुप्प चाणिक,
पर मैकु त भलु लगदु,
जब क्वी पूछ्दु ,
"भुला कख छ तेरू गौं"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दिनांक: १२.१०.२०११)

Wednesday, October 12, 2011

"पहाड़"

पर्वजनों का प्यारा,

जहाँ देवताओं का वास,
पर्वतराज हिमालय जहाँ,
शिव शंकर जी का कैलास....

सीना ताने सदा खड़े,
चूम रहे अनंत आकाश,
सन्देश उनका पर्वतजन को,
कभी न होना निराश.....

वीर भडों की जन्मभूमि,
जहाँ प्रकृति का सृंगार,
झूमते हैं मद मस्त होकर,
बांज, बुरांश और देवदार....

चार धाम प्रसिद्ध हैं,
जहाँ पवित्र हैं पंच प्रयाग,
पंच बद्री-केदार हैं,
हे! पर्वतजन तू जाग.....

गंगा-यमुना का मायका,
पवित्र है जिनका जल,
बहती हैं सागर की ओर,
नीर हैं जिनका निर्मल......

हे! पहाड़ सौंदर्य तेरा,
निहार हर्षित होता कविमन,
अनुभूति कवि "जिज्ञासु" की,
धन्य है तू, हे! पर्वतजन......

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: ९.११.२०११
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड.
निवास: दिल्ली प्रवास
दूरभाष: ०९८६८७९५१८७
मित्र वेदप्रकाश भट्ट जी के अनुरोध पर उनकी सांस्कृतिक पत्रिका के लिए रचित.
E-mail: vedprakash1976@yahoo.co.in

Monday, October 3, 2011

"हे! गौं का प्रधान"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
गौं कु तू विकास कर,
तू छैं गौं की शान,
बल गौं विकास की कल्पना,
सच मा छ महान.....
पैंसा देणी द्वी हाथुन,
उत्तराखंड की सरकार,
जन्मभूमि की सेवा कर,
अर कर तू सृंगार.....
गौं का बण बूट कू,
गौं का बाटा घाटौं कू,
बचौण कू कर प्रयास,
गौं का पाणी, धारौं कू,
कर विकास, कर विकास.....
"हे! गौं का प्रधान"
तू छैं गौं की शान........
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २९.९.२०११)
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
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Y.s. Chauhan जिज्ञासु जी कनि सुंदर आखर लिखि न आपन .........
Saturday at 11:42am · LikeUnlike

नहीं भूलेगा पहाड़

गांधी जी के देश में,
उनके जन्मदिन पर,
गंगा, यमुना के मैत्यौं पर,
अमानवीय अत्याचारों का प्रहार,
अत्याचारियौं द्वारा,
कभी नहीं भूलेगा पहाड़,
२,अक्तूबर,१९९४ को,
व्यथित पर्वतजन,
जिनका होता है, सीधा मन,
बद्रीविशाल जी अत्याचारियौं को,
सजा जरूर देंगे......

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
३.१०.२०११

Monday, September 26, 2011

पिता

पिता जी आप अब पित्र हो,
मैं आपका कैसे प्रगट करूँ आभार,
कसक मेरे मन में है अब,
आपके चले जाने के बाद मुझे,
कौन देगा पिता का प्यार और दुलार,
चाहत एक है मन में मेरे,
मुझे फिर पिता जी के रूप में मिलना...

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: 24.९.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकशित)
(ये मेरे मन के भाव हैं. पिता जी के स्वर्गवासी होने के बाद ऐसा अहसास होता है.))See More
LikeUnlike · · Share · Saturday at 10:33amYashpal Singh Pundir, Rakesh Kundlia, Vijay Jayara and 13 others like this.
Arvind Jayara miss grandpa
Saturday at 10:36am · LikeUnlike
Manish Mehta वाह ! जिज्ञासु जी आपका जवाब नहीं !
Saturday at 10:59am · LikeUnlike
Deepak Paneru क्या बात है कविवर बहुत ही मार्मिक सोच और रचना बाटने के लिए आभार.....
Saturday at 11:38am · LikeUnlike
Bhagwan Singh Jayara bahut marmik sabdo me likhaa hai bhai sahab ,ake dam dil ko chhune wali baat likhi,,,nice,,,,,
Saturday at 12:08pm · LikeUnlike
Sikandar Singh Jayara Bahut badiya bhi shab dil se likhi hai.......
Saturday at 2:13pm · LikeUnlike

Thursday, September 22, 2011

"भ्रष्टाचार"

फल फूल रहा है अपने भारत में,
जिसका बढ़ रहा है दिनों दिन आकार,
कुछ भ्रष्टाचारी जेल में हैं आजकल,
सुनते होंगे आप उनके समाचार.....

अपने देश में आखिर,
अन्ना जी ने भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध,
अलख है जगाई,
जन जन के मन में,
भ्रष्टाचार के विरुद्ध, चेतना है आई,
पर प्रश्न अभी भी सामने है?
क्या खत्म हो पाएगा भ्रष्ट्राचार,
कुछ तो चाहते हैं, रहे ये सदाबहार....

पग पग पर खड़े हैं आज,
भ्रष्ट्राचार समर्थक दलाल,
जनता क्या करे,
कोई काम करवाना हो,
हो जाते हैं उनके हाथों हलाल,
ताल ठोककर कहते हैं वे,
क्या तुम्हें अपना काम,
नहीं है करवाना,
लगाते रहो चक्कर यहाँ के,
तुम्हें ज्यादा क्या है समझाना.

कामना है कविमन की,
हे भ्रष्टाचार तुम अंग्रेजों की तरह,
हमारे भारत को छोड़ो,
युगों युगों से महान है देश हमारा,
गांधी जी का देश है भारत,
हे भ्रष्टाचारियौं ये कुकृत्य,
सदा सदा के लिए छोड़ो.

स्वरचित: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २२.९.२०११)

Tuesday, September 13, 2011

"जोंखा"

(कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
जौंकू हमारा उत्तराखण्ड मा,
भारी मान सम्मान छ,
सच मा बोला,
मर्द की शान छन,
ललकार भी करदा छन लोग,
छन बे त्वे फर जोंखा,
पर क्या बोन्न?
बग्त बल बलवान होंदु,
जोंखा वाळा भी कबरी,
जैका सामणी नतमस्तक ह्वैक,
लाचार सी ह्वै जाँदा छन.

पर जोंखा वाळा की खोज,
बग्त औण फर जरूर होन्दि छ,
किलैकि ऊं फर लोग थोड़ा भौत,
भरौंसू करदा छन,
सामाजिक अर,
राजनितिक दृष्टि सी भी,
ज्व भलि बात छ,
हे! बद्रीविशाल जी,
उत्तराखण्ड कू कल्याण हो.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.९.२०११)

Wednesday, September 7, 2011

"पर्वतजन और हिमालय"

रिश्ता कायम रहे, हिमालय अमर रहे,
गंगा यमुना का मैत, शिव शंकर का प्यारा,
जहाँ से निकलती हैं, इनकी अविरल धारा,
जनजीवन का अस्तित्व, सुखमय जीवन हमारा,
हिमालय तुम महान हो, निहार-निहार खुश होता,
पर्वतजन प्यारा,
"पर्वतजन और हिमालय" का रिश्ता,
कायम है अतीत से, चिंता उसे है आपकी,
हे हिमालय.....अस्तित्व कायम रहे तुम्हारा.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
E-Mail: j_jayara@yahoo.com 7.9.2011( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Tuesday, September 6, 2011

(द्वी बुंद दारू)

द्वारा/रचित/ जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
पिलै देवा मैकु, भलु होलु तुमारु,
बोन्न लग्युं छौं, बात यनि छ,
कपाळि मा आज, मेरा होयुं छ,
कुजाणि किलै, भारी मुंडारू........
क्या बोन्न लठ्याळौं,
मिलि जांदी मैकु, पैला फूल की,
पहाड़ की प्यारी, जैंकु बोल्दा छन,
जौनसार अर हमारा मुल्क की,
कच्ची-कच्ची दारू........
कवि मन मा प्यारू, पहाड़ बस्युं छ,
"द्वी बुंद दारू" का खोज,
कवि "जिज्ञासु" कू मन,
वे पहाड़ गयुं छ,
क्या बोन्न तुमारा बिन भी,
भारी उदास होयुं छ.........
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ६.९.२०११)
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Thursday, September 1, 2011

"रंग बिरंगी गाड़ी"

(द्वारा/रचित/ जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
तुमारा मुल्क की छौं हम, निछौं बल अनाड़ी,
हमारा बिना नि चल्दी, तुम सब्यौं की गाड़ी,
होला तुम सोचण लग्याँ, पैरदि होलि नाक मा,
नथुलि, बुलाक, बदन मा लाल बिलोज साड़ी,
कथगा बौळ्या बणिक घुम्दि, सैडा कुमौं-गढ़वाळ,
घाम, बरखा मा, धार, खाळ, सैण,
ऋषिकेश, मसूरी, देहरादून, कोटद्वार,
रामनगर, हल्द्वानी, काठगोदाम,
जख छन ऊँचि निसि, हरीं भरीं प्यारा पहाड़ की पाड़ी,
सुबेर पैटि हिटा हिटी, तुम सब्यौं की प्यारी छौं,
जी.एम.ओ.यू, टी.जी.एम.ओ.यू,के.एम.ओ.यू. की,
सैडा कुमौं-गढ़वाळ की, रंग बिरंगी गाड़ी........
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १.९.२०११)
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Tuesday, August 30, 2011

"अपणा आज"

(द्वारा/रचित/ जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
कदम कदम फर अपणा ही,
आज दुखदाई छन,
देखदु छौं जब मिजाज ऊँका,
खट्टु सी ह्वै जान्दु मन...
द्वी कदम मेरी तरक्की का,
मन मा ऊँका आग,
कैका भाग कू क्वी नि खांदु,
अपणु-अपणु भाग.....
बात सिर्फ हृदय किछ,
जख बस्दु छ भगवान,
बेदर्द किलै होयां अपणा,
जन ढुंगा का समान....
फिर भि दिल मा दर्द छ,
जना भि छन ऊँका मिजाज,
देखि दुनियां मतलबी छ,
पराया ही "अपणा आज"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ३०.८.२०११)
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Monday, August 29, 2011

"पहाड़ बिटि पाती"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
लिख्युं छ, मैं यख नौनौ समेत,
कुल देवतौं की कृपा सी,
कुशल छौं, आशा छ आप भी,
कुशल मंगल ह्वैल्या, अबरी हमारी भैंसी,
लैंदी छ अर भारी दुधाळ भी,
हमारी टक्क तुम फर लगिं छ,
तुम घौर ऐ जाँदा, तस्मै खै जाँदा,
ये सौण का मैना, चौमासू लग्युं छ.
नन्दु अर नारैणु स्कूल जाण लग्यन,
मास्टरजिन दुयौं कू नौं लिख्यालि,
मैकु भारी ख़ुशी छ, तुम भी होला,
माली सारी झंगरेड़ि छ, अर बेली सारी कोदाड़ी,
बल्दु की जोड़ी मेरी माळ्या रखिं छ,
हमारू हौळ तांगळ पदान जी, ख्यास करि लगाणा छन,
फसल पात खूब लगिं छ, ह्वै सकु त घौर औन्दि बग्त,
मैकु एक हरीं साड़ी अर लाल बिलोज,
जरूर ल्हैन, किलैकि बग्वाळ,
श्रीनगर बैंकुंठ चतुर्दसी कू मेळू,
ह्युंद का मैना होला,
आपकी जीवनसाथी.............
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २८.८.२०११)
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Tuesday, August 23, 2011

"हमारू पहाड़"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
पराणु सी प्यारू छ, दुनियाँ मा न्यारू छ,
देवतौं कू मुल्क अर भोले जी कू प्यारू छ,
कवि, लेखक, गितांग, नचाड़, बंठ्या बैखु का,
मयाळु मन मा बस्युं, "हमारू पहाड़",
गंगा यमुना कू मैत, माँ नन्दा कू प्यारू छ,
गर्व छ हमतैं, पराणु सी प्यारू "हमारू पहाड़",
जन्मभूमि, देवभूमि, मुल्क हमारू छ.
जख हैंस्दु छ हिमालय, प्यारू बुरांश,
प्यारी फ्योंलि कू मैत, वीं तैं भी प्यारू छ,
मन मा सदानि बस्युं रंदु, हमारा मन मा,
हे दिदा भुलौं, बल कथगा न्यारू छ,
पराणु सी प्यारू, कवि "जिज्ञासु" का मन मा,
दूर परदेश मा भी बस्युं, "हमारू पहाड़",
पराणु सी प्यारू छ, दुनियाँ मा न्यारू छ.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २२.८.२०११)
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हमारू पहाड़...

Thursday, August 11, 2011

"कनुकै होलि खाणि बाणी"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
तिबारि डिंडाळि उजाड़ि, प्यारू गौं छोड़ि छाड़ी,
कनुकै होलि हे चुचौं, तुमारी खाणी बाणी......
कखन खैल्या हे चुचौं, पहाड़ की सब्बि धाणी,
कखन पेल्या हे तुम, छोया ढुंग्यौ कू पाणी,
क्या तुमारी, वे प्यारा पहाड़, टक्क निछ जाणी?

कुल देवतौं का मंदिर, देवता भि होयाँ ऊदास,
प्यारू गौं छोड़ि चलिगें, आज ऊ छन निराश,
पित्रु का कूड़ा रैगिन, तुमारु देश प्रदेश निवास,
ऐल्या क्या तुम बौडि़क, होला ऊ लग्यां सास,
तिबारि डिंडाळि उजाड़ि, प्यारू गौं छोड़ि छाड़ी,
कनुकै होलि हे चुचौं, तुमारी खाणी बाणी......

अपणु मुल्क त्यागि, जू बल भौं कखि भागि,
खौरि का दिन बितदा, कैकि किस्मत नि जागी,
मैन यूँ आंख्यौंन देखि, मेरा मुल्क पहाड़ की,
धौळ्यौं कू ठण्डु पाणी, जवानी कुजाणि किलै भागी,
जनु भि सोचा तुम, कवि "जिज्ञासु" कू मन,
सोचण लग्युं अफुमा, प्यारू गौं छोड़ि छाड़ी,
तिबारि डिंडाळि उजाड़ि, कनुकै होलि हे चुचौं,
तुमारी खाणी बाणी......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: १०.८.२०११ )
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Friday, August 5, 2011

"गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा छकि छक्किक बोला,
कथगा प्यारी भाषा हमारी मन मा कुछ तोला....

ब्वै बोंनि छ,
हे मसाण क्या कन्नु छैं? केकु कन्नु छैं खारू,
हे मेरा लाटा काला तू , बुढेन्दा कु छैं सारू....
खोपरी फूटि कनि आज, त्वैन यु क्या कर्याली,
सैड्डु गिच्चु सिंगाणन, आज त्वैन भार्याली.....
चूकि जान मेरा त्वैकु, हे ऐन्सु की बग्वाळ,
क्यौकु मान्नि छैं, हे लठ्याळा, सगोड़ा फुन्ड फाळ...

बुबा जी बोंना छन,
सुण हे, कख थै गयुं, आँखा कन्दुड़ खोल,
भतगै द्योलु आज त्वै, नितर सच बोल.....
क्या भटकण लग्युं छैं तू, ओलि पली डिंडाळि,
पीठ मा तेरा अभि लगौन्दौ, झण-झणि कंडाळि...

नौनु बोंनु छ,
क्या बोन्न मैन, हे बुबाजी, मेरा गौंणा बैठ्युं छ कांडू,
गोरु चरौण गयुं थौ ब्याळि, जख चन्द्रबदनी कु डांडू.....
घुण्डौ मा फट्युं छ बुबाजी, मेरु झीलु-झीलु सुलार,
कळकळि नि औन्दि मै फर, तुम करदा निछैं प्यार........
गढ़वाळि छैं गढ़वाळि मा छकि छक्किक बोला,
कथगा प्यारी भाषा हमारी मन मा कुछ तोला....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: ५.८.२०११)
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Wednesday, August 3, 2011

"अमर शहीद श्रीदेव सुमन"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जन्मभूमि जौल ग्राम, पट्टी. बमुण्ड, टिहरी गढ़वाल,
प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करि, गौं अर प्यारा चम्बाखाल,
सुमन समर्पित आपतैं, महान आपकु कठिन त्याग,
दबिं कुचलिं जनता टिहरी की, लगण लगिं थै जाग,
राजशाही का अत्याचार, आपन करि विरोध अपार,
टिहरी रियासत की जनता, झेन्न लगिं थै लगातार,
भोली भाली जनता कू, होण लग्युं थौ क्रूर दमन,
बिगार बोकी, कर भरिक, दुखित थौ जनता कू मन,
देखि दुखित रंदु थौ, सदानि श्रीदेव आपकु मन,
चांदा था सुखी जनता तैं, मन हो ऊँकू जन सुमन,
सुपिनु आपकु एक थौ, टिहरी रियासत हो आज़ाद,
सुखि रौन रियासतवासी, रज्जा की गुलामी का बाद,
सिंहासन रज्जा कू हिलि, आप फर ह्वैन भारी अत्याचार,
चौरासी दिन की जेल काटी, जनता मा मचि हा-हाकार,
२५ जुलाई-१९४४ कू ब्याखुनि बगत, छोड़ी आपन संसार,
दिनि प्रिय पराणु की आहुति, होलु मेरु सुपिनु जरूर साकार,
२५ जुलाई-१९४४ रात कू, पाप्यौन बगाई आपकी लाश,
धौळी भिलंगना अर भागीरथी, वीं रात कु थै भारी उदास,
१९४८ मा जनतान करि, देवप्रयाग, कीर्तिनगर फर अधिकार,
टिहरी रियासत कू अंत ह्वै, सुमन जी आपकु सुपिनु साकार,
बलिदान आपकु कालजई छ, हे "अमर शहीद श्रीदेव सुमन",
अत्याचार आपन भुग्तिन, व्यथित कवि "जिज्ञासु" कु मन.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: १.८.२०११)
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Monday, August 1, 2011

"कब तक सटकैल्यु"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
एक दिन यनु आलु, जब तू पछ्तैली रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....

भ्रष्ट्राचार का आँगा फाँगौं, खूब घूम रे,
पाप की कमै करि-करि, कब तक खैल्यु रे,
एक दिन यनु आलु, जब गोळ फर ऐल्यु रे,
दारू, माशु, धोळ-फोळ, तब चितैल्यु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
बाल, बच्चा, बंगला छोड़ी, जेल जैल्यु रे.....

सदानि कैकि नि चल्दि, यनु भि बगत औन्दु रे,
द्वी हाथुन कपाळ पकड़ि, बुकरा बुकरि रोंदु रे,
भ्रष्ट्राचार की गंगा मा, जू हाथ धोंदु रे,
लुकारा आँखौं लोण मर्च, धोळि-धोळि रे,
देखला लोग जब तू, हाथ मा हथगड़ी पैरि,
"कब तक सटकैल्यु" रे, जेल जैल्यु रे.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: ३१.७.२०११)
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Thursday, July 28, 2011

"खैलि! हे लठ्याळा"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...
चकड़ीतु की चाल देख, देश मुल्क का हाल देख,
मनखि बाघ बण्यां छन, जौंसि, लगणि छ डौर,
डरि डरिक कतै नि रणु, मनखि छैं तू ,
अफु पछाण, "खैलि! हे लठ्याळा",
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...

गितांग का गीत सुणि, त्वैन मन मा कुछ नि गुणि,
खूब खा मैं बोन्नु छौं, भोळ मिलु या न मिलु,
रैलु रैठु घल्च पल्च, तू खूब सपोड़,
मैं नि पुछणु "कथगा खैल्यु",
मौका अबरि तेरा हाथ, तू कतै न छोड़,
"खैलि! हे लठ्याळा",
यीं दुनियाँ मा अयुं छैं तू, ज्यू भरिक खा,
भटकणु किलै छैं हे, सुदि, ऊँड फुन्ड न जा...
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २८.७.२०११)
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Wednesday, July 27, 2011

"छकि छक्किक खाणु छौं"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु)
मेरु क्या तुमारु छ, बाल बच्चा पळ्ना छन,
क्या बोन्न हे, तुमारु ही सारू छ...
हम नेतौं का हाथ देखा, लोकतंत्र प्यारू छ,
"छकि छक्किक खाणु छौं",
क्या बोन्न हे, तुमारु ही सारू छ...
तुम भि खावा मैकु बतावा, जिंदगी सुदि न गंवावा,
हमारा तुमारा हाथ मा, लोकतंत्र प्यारू छ,
"छकि छक्किक खाणु छौं",
क्या बोन्न हे, तुमारु ही सारू छ...
जन भि सोचा अपणा मन मा,
आज बग्त हमारू छ, हमारू क्या छ,
कृपा तुमारी, सब कुछ तुमारु छ,
"छकि छक्किक खाणु छौं",
क्या बोन्न हे, तुमारु ही सारू छ...
हमारा खातिर जन भि सोचा,
लोकतंत्र प्यारू छ,
तुमारा तिलु कू तेल पेणु,
"छकि छक्किक खाणु छौं",
क्या बोन्न हे, तुमारु ही सारू छ...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७६.७.२०११)
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Tuesday, July 26, 2011

"पंछी होन्दा"

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: २५.७.२०११)
पैलि प्यारा पहाड़, फुर्र उड़िक जान्दा,
भमोरा,काफळ,खैणा, तिम्ला खूब खांदा,
बांज, बुरांश की डाळ्यौं मा बैठिक,
टक्क लगैक, वे उत्तराखंड हिमालय तैं हेरदा...
अनंत आकाश मा उड़ि-उड़िक,
पंच बद्री,पंच केदार, पंच प्रयाग,
जगनाथ,बागनाथ जी का दर्शन करदा...
देवभूमि देवप्रयाग जख,
श्री रामचन्द्र जी त्रेता युग मा ऐ था,
मनोहारी अलकनंदा-भागीरथी संगम फर,
नहेन्दा अर टक्क लगैक देखदा...
चन्द्रबदनी,सुरकंडा,कुंजापुरी,धारीदेवी,
कमलेश्वर, किकलेश्वर, सैणा श्रीनगर,
देवी देवतौं का दर्शन करदा....
प्यारा उत्तराखंड का हरेक गौं का,
रीत-रिवाज, संस्कृति का दर्शन करदा,
"पंछी होन्दा" आजाद ह्वैक,
देवभूमि उत्तराखंड मा विचरण करदा.
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Monday, July 25, 2011

"पहाड़ की घुघती"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: २३.७.२०११)
उड़ि-उड़ि डाळ्यौं ऐंच, बैठिं छन ऊदास,
हेरदि ऊँड फुन्ड, प्यारा पहाड़ु का पास....
खुदेड़ बेटी ब्वारी जौमु, देन्दि थै रैबार,
टपराणि छन आज, देखा दौं हपार....
खुदेड़ु की खुद आज, प्यारी घुघत्यौं तैं लगणि,
बौड़ि आला खुदेड़, मन की आस छ जगणि....
पहाड़ की घुघत्यौं तुम, न होवा ऊदास,
चलिग्यन जू परदेश, बौड़ि आला पास...
खुदेण लगिं छन, ऊ घुघती प्यारी,
औणि याद ऊँ तैं, देखा दौं हमारी....
पहाड़ का मन्ख्यौं तुम, यनु त पछाणा,
तुम बिन उदास घुघती, वख किलै नि जाणा...
"पहाड़ की घुघती" छन, आज भौत ऊदास,
ह्वै सकु त पौंछि जावा, तुम फुर्र ऊँका पास....
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Thursday, July 21, 2011

"पाणी का भरयाँ ताल"

(हमारा कुमाऊँ अर गढ़वाळ)

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: २१.७.२०११)

जन नैनीताल, काणाताल, डोडीताल, मात्री ताल,
गरूड़ ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, राम ताल,
लक्ष्मण ताल, सीता ताल, नल-दमयंती ताल, भीमताल,
क्या कायम रलु सदानि अस्तित्व यूंकू, मन मा छ सवाल?
हमारा प्यारा रंगीला कुमाऊँ अर छबीला गढ़वाळ.......

पहाड़ मा "पाणी का भरयाँ ताल",
फिर भी पर्वतजन तिस्वाळा, मन मा छ सवाल?
जल संरक्षण, पहाड़ की पुरातन परम्परा,
आज यथगा जागरूक निछन पर्वतजन,
अतीत कू प्रयास, मन्ख्यौं कू या प्रकृति कू,
हमारा खातिर छ मिसाल.....

पहाड़ की सुन्दरता मा चार चाँद लगौंदा छन,
हरा भरा जंगळ अर "पाणी का भरयाँ ताल",
हैंसदु हिमालय, जख बिटि निकल्दी छन धौळि,
जन अलकनंदा, भागीरथी, यमुना, मंदाकनी,
पिंडर, कोशी, रामगंगा, पूर्वी पश्चिमी नयार,
धोन्दी छन तन मन कू मैल पहाड़ का मन्ख्यौं कू,
उदगम यूंका छन "पाणी का भरयाँ ताल"......
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Wednesday, July 20, 2011

"रौंत्याळि डांड्यौं मा"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जख बिति होलु बचपन, सोचा हे! हमारू,
देवतौं कू मुल्क छ, हमारू भी प्यारू,
हरा भरा बण अर लाल माटा की मटखाणी,
गाड अर गद्न्यौं मा बगदु ठण्डु पाणी,
बथौं कू फुम्फ्याट अर बरखा बत्वाणि,
धार ऐंच बैठिक हेरा, भौत खुश होंदु छ पराणि...
हे दिदौं, भुलौं वे मुल्क की, हम्न कदर नि जाणि,
दूर देश परदेश मा जब-जब याद औन्दि छ,
भौत क्वांसू होंदु छ हमारू पापी पराणि,
टरकणि, मन मा गाणी, वख छ सब्बि धाणी,
लगदि होलि आपका मन मा स्याणी,
जरूर जवा "रौंत्याळि डांड्यौं मा",
देख्यन, कथगा खुश होलु पराणि,
दाळ, गौथ, खाजा, बुखणा, स्यो, नारंगी,
हे! मिलली हमारा मुल्क घ्यू की माणी.
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: २०.७.२०११)
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Monday, July 18, 2011

"पहाड़ की पठाळ"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हमारा प्यारा कुमाऊँ अर गढ़वाळ,
जौन ढक्याँ होन्दा छन, हमारा प्यारा घौर,
तब्बित, भौत प्यारा लगदा छन,
जख होंदु छ छोरों कू किब्लाट,
पहाड़ की वास्तुकला का अनुरूप बण्यां,
तिबारी, डिंडाळि, नीमदरी, बंद मकान,
"पहाड़ की पठाळ" सी ढक्याँ, हमारा मुल्क की शान.....
लेंटरदार मकान की चाहत मा, नयाँ जमाना कू घौर बणैक,
हे पर्वतजन, "पहाड़ की पठाळ" कू, कतै न करा त्रिस्कार,
जौंकी छत्रछाया मा, बिति बचपन अर मिलि प्यार,
लगावा "पहाड़ की पठाळ", नयाँ जमाना का मकान फर,
फेर हेर्यन दूर बिटि, अपणु सुपिनों कू प्यारू घौर,
जगा देवा दिल मा अपणा, "पहाड़ की पठाळ" सी,
रखा जुग-जुग तक प्यार, होलु संस्कृति कू सृंगार,
कायम रलि पहाड़ की, दुर्लभ पुरातन वास्तुकला,
परम्परा छ हमारी, देखि होलु आपन पहाड़ मा कखि,
"पहाड़ की पठाळ" सी ढक्याँ घौर मा, खोळि फर गणेश.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित दिनांक: १८.७.२०११)

Friday, July 15, 2011

"ऊ प्यारा दिन"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १५.७.२०११)
आज भी याद औन्दा छन, जू प्यारा मुल्क पहाड़ मा बित्यन,
याद जब जब करदा छौं, व्यथित ह्वै जान्दु भारी मायाळु मन.
सोचा स्कूल मा पढ़ि होला, अर लिखि होलु पाटी फर माटा मा,
खति होलु ऊ प्यारू बचपन, बल स्कूल बिटि गौं तक का बाटा मा.
खाई होला खैणा, तिम्ला, काफळ, प्यारा मुल्क की प्यारी किनगोड़,
लम्डदु- लम्डदु खूब भागी होला, गौं का बाटा फुन्ड लगै होलि खूब होड़.
थौळ जाण कू ऊलार अर रगर्याट, पैरि होलु झीलु पट्टा वाळु लम्बू सुलार,
गै होला कौथगेरू का दगड़ा, हिटि होला प्यारा पहाड़ की ऊकाळ-ऊद्यार.
करि होलु प्यारा दगड़्यौं कू दगड़ु, पढ़ी लिखि होला अपणा प्यारा स्कूल,
बिगळेग्यन आज सब्बि कख होला, मायाजाळ मा अल्झिक गयौं आज भूल.
देखि थौ जब ऊकाळ हिटिक गै था, प्यारी ब्वै का दगड़ा चन्द्रबदनी मंदिर,
हेरि थौ उत्तराखण्ड हिमालय पैलि बार, दूर वथैं भी जख छ सुरकंडा मंदिर.
पहाड़ फर बचपन बिति, नौकर्याळ, फौजी, हळ्या, दाना सयाणौ की बात,
सुणदा था टक्क लगैक ध्यान सी, कंदुड़ फर धरिक अपणा द्वी प्यारा हाथ.
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना मा, "ऊ प्यारा दिन" आज भी बस्याँ छन,
कुतग्याळि सी लगदी छन आज, जब-जब याद करदु छ मेरु कविमन
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
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Thursday, July 7, 2011

(श्री यंत्र टापू शहीद यशोधरबेंजवाल)

शत् शत् नमन आपतैं,
अर राजेश रावत जी कू,
१०, नवम्बर-१९९४ का दिन,
आपन दिनि अपणु बलिदान,
श्रीयंत्र टापू श्रीनगर गढ़वाल मू,
सुपिनों मा बस्याँ,
पराणु सी प्यारा,
उत्तराखण्ड राज्य का खातिर.

आपकु शरीर अर सुपिना,
तैन्न लग्याँ था अलकनंदा मा,
देखि होलि आपन,
ज्व अपणा आँखौंन,
औन्दि जान्दि बग्त,
आन्दोलन धरना का बग्त,
जैन अंत समय मा,
दिनि आपतैं जगा,
अपणा विराट हृदय मा.

उत्तराखण्ड राज्य बणि,
सुपिनु साकार ह्वै,
सार्थक ह्वे बलिदान आपकु,
दुःख आज छ मन मा,
आप हमारा बीच होन्दा,
कथगा खुश होन्दा,
आप अर हम,
अर हमारू पराण,
हे स्वर्गवासी,
"शहीद यशोधर बेंजवाल" जी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु "
(सर्वाधिकार सुरक्षित १६.७.२०१०)

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"श्रीयंत्र टापू"

उत्तराखंड आन्दोलन कू गवाह छ,
जैन देखि,
आन्दोलनकर्ताओं कू दमन,
क्रूर पुलिस का द्वारा.

जौन आन्दोलनकारी,
बन्दूक का बटन,
डंडौन अर ढुंगौन,
बुरी तरौं पिट्यन,
निर्दयी ह्वैक.

अलकनन्दा उदास थै,
घटना की गवाह थै,
आन्दोलनकर्ताओं कू जोश,
बलिदानियौं कू बलिदान,
रंग ल्ह्याई,
सुपिनु साकार ह्वै,
उत्तराखण्ड राज्य बणि.

कैकु फैदा ह्वै?
जनता कू,
आन्दोलनकर्ताओं कू,
या नेतौं कू.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु "
(सर्वाधिकार सुरक्षित ८.६.२०१०)
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Wednesday, July 6, 2011

"मन ऊदास छ"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ६.७.२०११)
कुजाणि किलै? ये दूर देश मा,
वे प्यारा उत्तराखण्ड प्रदेश, गढ़देश सी दूर,
आज अफुमा होयुं छ, बोला त खोयुं छ,
खुदेड़ दिन भि निछन...
होंदु होलु अहसास आपतैं भि,
जब चंचल मन, ठहरी जांदु छ,
द्योरा मा आज ये बस्गाळ,
बदळ बोला या मेघदूत, जौं तैं हेरि देखि,
"मन ऊदास छ", यनु सोचिक,
सैद अयाँ छन, वे प्यारा मुल्क पहाड़ सी,
रैबार ल्हीक, कै लंगि संगि या दगड़्या कू,
मन पराण सी प्यारी माँ जी कू,
पर बात ज्व भि हो, "मन ऊदास छ".
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Tuesday, July 5, 2011

"हे! बसगाळ बौड़िक ऎगि"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.७.२०११)
यनु लगण लग्युं छ, जनु यीं जिंदगी मा भी,
जब मिलि ख़ुशी मन की, अहसास होंणु छ...
पर चला बात करदु, प्यारा पहाड़ फर बसगाळ की,
हमारा तुमारा वे प्यारा, कुमाऊँ अर गढ़वाळ की....
कड़ाक किड़की द्योरू जब, घनघोर कुयेड़ी छैगी,
कवि "जिज्ञासु" तैं कल्पना मा, प्यारू पहाड़ याद ऐगी..
बरखा लगि कूड़ी की पठाळ, जख बिटि पणद्यारि लगणि,
होलि फसल पात ऐन्सु खूब, मन मा एक आस सी जगणि..
धौळी, गाड, गदना अर धारा, प्यारा छौड़ौं कू छछड़ाट,
बैठ्युं बोडा तिबारी मा, होण लग्युं वैका ह्वक्का कू गुगड़ाट..
दूर कखि सारी मा ढोल बजणा, बल हर्षु काका की गुड्वार्त,
हबरि खूब झूमणा गुड्वार्ति, औजि लगौण लग्युं छ पंड्वार्त..
चौक मा चचेंडीं, काखड़ी, मुंगरी, सारी मा मार्सू होयुं लाल,
कोदू , झंगोरू, सेरों में साट्टी, हे! लग्युं छ बल बसगाळ......
"हे! बसगाळ बौड़िक ऎगि", मन भी कथगा खुश ह्वैगी,
दर्द भरी दिल्ली मा यनु निछ,वे पहाड़ बसगाळ छैगी...
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Monday, July 4, 2011

"यकुलि-यकुलि"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ४.७.२०११)
चन्द्रबदनी का डांडा, लखि बखि बण का बीच,
जख बिटि दिखेणु छ, प्यारू खासपट्टी हपार,
हिन्ड़ोलाखाळ, जामणिखाळ अर रौड़धार,
प्यारू अंजनीसैण, लामरीधार, जाखणीधार....
कखि दूर हैंसणा छन, प्यारा हिंवाळा कांठा,
पैर्यां छन जौंका मुंड मा, ह्यूं का सफ़ेद ठांटा,
कुलदेवी चन्द्रबदनी मंदिर, लगणु छ कथगा प्यारू,
क्या बोन्न हे दगड़्यौं, जख प्यारू मुल्क हमारू,
ब्वारी अलकनन्दा, सासू भागीरथी, संगम देवप्रयाग,
भेंटेणी छन द्वी जख, देखा बल कना छन बड़ा भाग,
कल्पना कवि "जिज्ञासु" की, करा आप भी अहसास,
पोथलु सी उड़ी जावा, पौंछा कुलदेवी चन्द्रबदनी का पास,
"यकुलि-यकुलि" बैठिक, वे प्यारा मुल्क सी दूर,
ज्यू कनु छ आज मेरु, उड़िक चलि जौं खासपट्टी फुर्र..
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Friday, July 1, 2011

"बोडि कू फोन"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु)
बोडि देळि मा बैठिक, धौण ढगडेक देखण लगिं थै,
हाथ मा धरिक, अपणु पराणु सी प्यारू, मोबाईल फोन,
ब्याखनि की बगत थै, धार ऐंच हैंसण लगिं थै, बल जोन,
आज क्या ह्वै होलु? नि आई मेरा बेटा धन सिंह कू फोन.

अचाणचक्क! कखि बिटि आई, धन सिंह कू दगड़्या मकानु,
बोन्न लगि, हे बोडि! क्या छैं देखणि, हाथ मा पकड़िक आज फोन,
बोडि बोन्न लगि, हे बेटा! आज ये निर्भागि फर सास निछ बाच,
बेटा धन सिंह कू फोन औण थौ, लग्युं छौं मैं कबरी बिटि मन मा सास,
मकानुन बोलि, क्या बोन्न हे बोडि, तेरु त छ यु फोन, बोडाफोन,
बोडिन फट्ट सी बोलि! हे लाटा, मेरा काला, यु निछ तेरा बोडा कू फोन,
ऊ बिचारा त, आज स्वर्ग मा छन, हमारा पित्र देवता बणिक,
हे छोरा! यु त मेरु छ, या यनु बोल "बोडि कू फोन".
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Friday, June 24, 2011

"गंगा की पुकार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु २३.६.२०११ )
क्वी नि सुणदु!
जैमा आस्था छ हर इंसान की,
पवित्रता का कारण,
जू आज वीं तैं, अपवित्र कन्ना छन,
सोचा! क्या कसूर छ माँ गंगा कू?
आज अस्तित्व की लड़ै लड़नी छ,
मन्ख्यौं का तन मन कू मैल धोण वाळी गंगा,
आज मैली ह्वैगि, असहाय होयिं छ,
जै़का खातिर राजा भागीरथ जिन,
करि थै कठिन तपस्या,
तब अवतरित ह्वै भारत भूमि मा,
पुरखों का उद्धार का खातिर,
हे इंसान! करा भागीरथ प्रयास,
माँ "गंगा की पुकार" सुणा.
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"तुमारी याद"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु २४.६.२०११)
सुण हे दगड़्या, हे मुल्क मेरा,
मैकु औण लगिं छ, कुजाणि क्यौकु ?
बाडुळि सी भि, लगण लगिं छन,
गौळा मा मेरा, मयाळु मन मा,
सुरसुरी सी उठण लगिं छ,
कुजाणि क्यौकु आज, मेरा तन मा.
प्यारा मुल्क, हे दगड़्या मेरा,
दूर परदेश मा, मन की पीड़ा,
अब नि रयेन्दु, कतै नि सयेन्दु,
"तुमारी याद" मैकु सतौणि छ,
क्या बोन्न, आज भौत औणि छ.
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Wednesday, June 22, 2011

"मयाळु मन मा"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २२.६.२०११)
खुद सी लगिं छ, मन वे मुल्क पौन्छ्युं छ,
जख बुरांश बिचारू, अपणु गौं हमारू,
द्वी टपराणा होला, हेन्ना होला मन्ख्यौं,
कख गै होला, हमतैं खोजणा होला,
कसक ऊठणि छ मन मा, हे जोग भाग,
कना दूर ह्वैग्याँ, अपणु गौं मुल्क छोड़ी,
बचपन मा रिश्ता थौ, आज दूर छौं,
ज्युकड़ी मा ढुंगा धरि, अर मुक्क मोड़ी,
कुजाणि क्यौकु? सैद पापी पैंसा का खातिर,
क्या बोन्न, खुद सी लगिं छ,
"मयाळु मन मा", हे दगड़्यौं,
न हैंसदु, न खेल्दु, मन मरिगी,
कवि "जिज्ञासु" की अनुभूति छ,
क्या सच छ...सोचा दौं मन मा?
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Monday, June 20, 2011

"क्वी होंदु मेरु"

(कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १९.६.२०११)
बोल्दा छन लोग, जब आफत की घड़ी औन्दि,
या जिंदगी कैकु, बुरा बगत खूब रुऔन्दि,
वनु क्वी कैकु नि होंदु, या दुनिया की रीत छ,
पर फिर भी इंसान की, यनि आस अर प्रीत छ,
इंसान धरदु छ बल, यनु अपणा मन मा सारू,
यीं धरती मा, हे भगवान! जू क्वी होंदु हमारू,
हर इंसान की या हि, अपणा मन की आस छ,
निभ्वन नाता रिश्ता, यथार्थ बिंगणु बल ख़ास छ,
अहसास करदा होला आप, "क्वी होंदु मेरु",
कवि "जिज्ञासु" की कल्पना, हे प्रभु सारु तेरु.
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Thursday, June 16, 2011

"पराण"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
प्यारू होन्दु छ सब्यौं तैं, यनु बोल्दा छन,
सब्बि डरदा छन बल, सच मा सदानि मन्न सी,
फिर भी मरदा छन, काल का हाथुन मौत बेमौत,
झुर्दु छ, डरदु छ, रगबग करदु छ, कौ-बौ भी करदु,
इच्छी सी पीड़ा न लगु, देह मा कखि, सोचदु रंदु,
धरती कू हर जीव, मनखि त सबसि ज्यादा,
जैकु "पराण" भौत प्यारू होंदु छ........
यीं धरती सनै सच समझिक, जन सदानि रण हो यख,
जू सच निछ, कै भी मायना मा, मनखि का खातिर,
ये मायारुपी संसार मा, फेर भी "पराण" प्यारू होन्दु छ.
जू कबरी भी उड़ी जान्दु छ बिन बतैयां, पोथला की तरौं.
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Monday, June 13, 2011

"जीवन गीत छ"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सब्बि मन्ख्यौं कू, यीं धरती मा,
सुख, दुःख साथ छन, सुर, लय, ताल भी,
कबरी जीवन जंजाळ, कबरी भारी सुन्दर,
क्वी सुख मा, क्वी दुख मा,
जीन्दू छ जीवन, कै भी हाल मा....
मन हो चंचल, फूल मिल्वन या कांडा,
ईश्वर कू नौं सदानि लेवा,
ज्ञान की गंगा मा रमिक, सब कुछ भूलिक,
सुख शांति कू प्रसार, कैकु मन न दुखावा,
धरती मा सब सुख छन, दुख का दगड़ा,
प्रकृति कू सृंगार,पंछी पोथ्लों कू प्यार,
मन्ख्यौं की मनख्वात,
क्या-क्या निछ? सोचा मन मा,
"जीवन गीत छ" सच मा, अहसास करा...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.६.२०११)
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Wednesday, June 8, 2011

"खंड्वार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ८.६.२०११)
हेरदा छौं जब हम, अपणा प्यारा गौं मुल्क मा,
मन मा ख्याल औन्दु छ, कबरि बणै होलु कैन,
बड़ा अरमान सी, तब बैठि होलु छज्जा, देळि मा,
हेरि होलु ऊँड फुन्ड, प्यारा डांडा काँठौं जथैं प्यार सी,
पर क्या कन्न! आज ऊ मनखी, होला कखि स्वर्ग मा,
माटा कू शरीर छोड़िक, दूसरू धारण करिक,
पर ऊंकू बणवैंयु घौर, आज टूटिक "खंड्वार" होयुं छ,
जमिं छ कण्डाळि, बांजा चौक मा रिटणि छ बिराळि,
आंसू भि आँखौं मा ऐ जाँदा छन, "खंड्वार"हेरि हेरि.

कबरि कखि तस्वीर मा, हेरदा होला आप चांदपुरगढ़ी,
"खंड्वार" होयां देवभूमि उत्तराखंड मा, देवतौं का भव्य मंदिर,
बावन गढ़ु का अवशेष, "खंड्वार" होयिं तिबारि अर डिंडाळि,
अहसास होंदु छ मन मा, बणनु बिगड़नु यीं धरती मा,
"खंड्वार" बणिक मिटि जाणु, बल कालजई सच छ,
पर "खंड्वार" भलु नि लगदु, कवि "जिज्ञासु" तैं सच मा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दूरभास: 09868795187)
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Tuesday, June 7, 2011

"मेरु मुल्क"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ७.६.२०११)
जख चन्द्रबदनी मंदिर, अर ऊँचा पहाड़ छन,
दिन रात सदानि गयुं रंदु, वख मेरु कविमन,
किलैकि मैन वख, कौणी कण्डाळि खाई,
दिन बितैन बचपन का, दौड़ भी खूब लगाई.
खासपट्टी मुल्क हमारू, जख छ सब्बि धाणि,
गाड गदन्यौं कू ठण्डु, धारौं कू निकळ्वाणि पाणी,
रज्जा का जमाना बिटि, प्रसिद्ध छ खासपट्टी प्यारू,
सच बोंनु छौं हे सुणा, यीं दुनिया मा सबसि बल न्यारू,
भगवती चन्द्रबदनी माता कू, चंद्रकूट पर्वत फर छ थान,
जख ऐ था शिवशंकर भोले, सती कू शरीर छ यख बोल्दन.
मेरु मुल्क खासपट्टी जख छन, देवता, डांडा अर जंगल,
कामना छ मेरी वख हो, खूब होणी खाणी अर सदानि मंगल.
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Monday, June 6, 2011

"धरती आज बिमार छ"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.६.२०११)
सच मा, क्वी नि सोच्दु,
मनख्यौं का अत्याचार सी,
गंगा, हिमालय, बसुन्धरा,
जल, जंगल त्रस्त छन,
अजौं भि सोचा? कुछ नि बिगड़ी.....
पहाड़, हिमालय आज कूड़ा घर बणिगी,
कब्रगाह भि बणिगी, जब बिटि मानव दखल बढिगी,
वृक्ष विहीन प्यारू पहाड़, धरती कू ताप बढिगी,
प्रकृति कू रौद्र रूप, बस्गाळ-२०१० मा देखि होलु आपन,
देवभूमि उत्तराखंड की धरती मा, उत्पात करिक चलिगी,
संकल्प लेवा धरती का सृंगार की, क्या बोन्न?
"धरती आज बिमार छ", हे मनखी तेरा कारण.
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"तिस्वाळु सी रैग्यौं"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ५.६.२०११)
कै बरसु बिटि टक्क लगिं थै, कब होलि मेरी आस पूरी,
आस जगि जब न्यौड़ु देखि, किस्मत देखा रैगि अधूरी....
फेर सोचि मन मा, हे! भाग मेरा, कनि होन्दि तेरी भताग,
हे जळ्दि छ जळौण्या ज्युकड़ी, झौळ सी लगदि जनि हो आग....
"तिस्वाळु सी रैग्यौं" देखा दौं भाग, किस्मत कनि छ माया तेरी,
दुःख भिछ हे आस अधूरी, रैगि तिस्वाळु मन कनि गति तेरी.....
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Tuesday, May 31, 2011

"पहाड़"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" १.६.२०११ )
पैदा होन्दु ही मैंन देखि, पर उबरी नि बिंग्यौं,
क्यौकु छन यथगा बड़ा, आसमान छुणौकु होयाँ खड़ा,
दादा-दादी, ब्वै-बाब की, खुग्लि मा बैठि-बैठि हेरी,
उबरी मासूम बाळुपन, अर उम्र कच्ची थै सच मा मेरी,
आज सोचदु छौं मैं, पहाड़ सी मैंन क्या क्या सीखी?
बड़ु दिल, धैर्य, शालीनता, जीवन मा ऊंचा उठण की तमन्ना,
घमंड न हो मन मा, कैकु दिल न दुखौं जाणिक कभी....
समझदार होण फर मैंन पूछि, हे पहाड़! क्या देखि त्वैन?
अतीत सी मेरी जन्मभूमि मा, क्या माधो सिंह भंडारी जी भि,
गबर सिंह, चन्दर सिंह, दर्मियान सिंह, तीलु, अर सब्बि वीर भड़,
हे "पहाड़" तू जुगराजि रै, अर जन्म लेलि हमारी अगली पीढ़ी,
तेरी गोद मा, हैंसली खेललि, या मैं जगमोहन सिंह जयाड़ा,
गढ़वाळि कवि "जिज्ञासु" का मन की आस छ...
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Sunday, May 29, 2011

"तुमारा बाना"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" २९.५.२०११)
मैंन कलम हाथ मा उठाई, कल्पना मा तुमारु ख्याल आई,
कुलदेवी भगवती चन्द्रबदनी, सरस्वती जी का आशीर्वाद सी,
हे मेरी प्यारी कविताओं, मेरा मन मा तुमारा सृजन कू,
कुछ यनु ख्याल आई, कोरा कागज फर मैंन कलम घुमाई,
मेरा प्यारा पाठकु अर प्रशंसकुन, मेरु भौत उत्साह बढाई....
गढ़वाली भाषा अर पहाड़ फर कविता, मेरु रचना संसार छ,
मैं कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु", पहाड़ मेरी आस छ,
कालजई कविताओं मेरी, हरेक पर्वतजन का मन मा बसि जावा,
जनु मेरु भाव व्यक्त करयुं छ, ऊँका मन मा पहाड़ प्रेम जगावा,
मेरा मन की आस छ, पहाड़ प्रेम की प्यारी कुतग्याळि लगावा,
मेरु मन बोल्दु छ, देवभूमि उत्तराखंड तैं देखौं अनंत आकाश सी,
समस्त उत्तराखंड तैं देखौं, अपणा आँखौंन जैक बिल्कुल पास सी,
पहाड़ फर मेरी प्यारी कविताओं, मैंन "तुमारा बाना" कलम उठाई ,
प्यारा उत्तराखंडी भै बन्धों का मन मा, पहाड़ प्रेम की आस जगाई.
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Friday, May 27, 2011

"भक्कु लगिगी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सुण हे भुल्ला,पाड़ की याद औणी,
भारी बितणी छ मन मा, हबरी छ सतौणी.....
पहाड़ छोड़ी दूर परदेश, लगदु छ भारी घाम,
झबड़ताळ सी लगदि छ, पीठी मा पड़दु डाम.....
दिन रात दनका दनकी, होईं रंदि छ राड़ धाड़,
ठंडा बथौं पाणी बिना, याद औन्दु प्यारू पहाड़.....
मेरा मुल्क प्यारी जगा छन, चन्द्रबदनी, अन्जनीसैण,
होला भग्यान काफल खाणा, मेरा प्यारा भाई बैण.....
ठण्डु पाणी छोया ढुंग्यौं कू, होला मनखी पेणा,
तिबारी डिंडाळ्यौं मा, फंसोरिक होला सेणा.....
द्योरू होलु बल बदलेणु, बरखा, बथौं अर किड़कताळ,
कथगा प्यारू लगणु होलु, ठण्डु प्यारू हमारू गढ़वाळ.
मेरा दगड़्या भौत होला, कखि दूर दूर परदेश,
होला ऊ भि भभसेणा, मन जौंकु, अबरी होलु गयुं गढ़देश....
"भक्कु लगिगी" भभसेणु छौं, तरसेणु छ पापी पराण,
मन मा बस्युं प्यारू मुल्क, कनुकै वख अबरी जाण......
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २७.५.२०११
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प्रिय मित्र नौटियाल जी, ग्राम बैंसोली, अन्जनीसैण की फरमाइश पर रचित.....

Thursday, May 26, 2011

"हमारा मुल्क"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जख प्यारी डांडी कांठी, छोयों कू ठण्डु पाणी,
मन मा बस्युं सब्यौं का, अर तर्सेंदु छ पराणी.
बांज बुरांस का बण छन, हैंसदा डाळ्यौं मा फूल,
सेरा पुंगड़ा प्यारी घाटी, माधो का मलेथा कूल.
ढुंगा प्यारा पौड़ पाखा, धौळ्यौं कू बगदु पाणी,
खैणा, तिमला, काफळ, हिंसर, अर सब्बि धाणी.
कोदु, झंगोरू, दाळ, गौथ, तोमड़ी, चचेंडी, कंडाळी,
कौंताळ मचौंदा छोरा छारा, मारदा छन फाळी.
बणु मा गोरु बाखरा, जख ग्वैर बजौंदा बाँसुळी,
बेटी ब्वारी गीत लगौंदी, हाथ मा घास की पूळी.
गौं गौं मा मंडाण लगदा, कुल देवतौं तैं मनौंदा,
संकट मा रगछा कनि, ऊँ मन की बात बतौंदा.
अब मोळ माटु होण लगि, हे प्यारा मुल्क हमारा,
विकास की झबड़ताळ सी, पिथेणा ऊ पहाड़ प्यारा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २६.५.२०११
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फेसबुक पर भी प्रकाशित

Wednesday, May 25, 2011

"मलेथा"


कनु भलु लगदु,
वीर भड़ माधो सिंह भण्डारी,
जख छन सैणा सेरा,
लसण प्याज की क्यारी....

आमू का बग्वान छन,
छेंडू, घट्ट अर लम्बी कूल,
बलिदान आपकु वीर भड़ माधो,
क्वी नि सकदु भूल.....

देखि होलु आपका मलेथान,
माधो सिंह जी आपकु रंग रूप,
पूछा त बतौंदु निछ,
आज अफुमा होयुं छ चुप.....

अलकनंदान देखि होला,
माधो सिंह जी अपकु त्याग,
वीर भड़ जना करतब,
धन धन मलेथा तेरा भाग....

रुकमा रै होलि माधो जी,
आपका मन की भौत प्यारी,
पूछदि थै कनु तेरु मलेथा,
हे भड़ माधो भण्डारी.....

आपन बताई रुकमा तैं,
मेरा मलेथा बांदु की लसक,
बैखु कू अंदाज भलु,
मेरा मलेथा बैखु की ठसक....

आपन बताई रुकमा तैं,
मलेथा मा घांड्यौं कू घमणाट,
भैस्यौं का खरक छन,
बाखरौं का झुण्ड अर भिभड़ाट....

निर्पाणि कू सेरू माधो जी,
होंदु नि थौ बल अन्न पाणी,
बेटी नि देन्दा था मलेथा,
जख सब्बि धाणी की गाणी....

मलेथा की कूल बणैक,
मलेथा आज स्वर्ग का सामान,
आप फर आज मलेथा का मनखि,
करदा होला अभिमान....

आज अमर छन आप,
आपकु मलेथा गौं प्यारू,
गढ़कवि "जिज्ञासू" तैं भलु लगदु,
जू छ दुनिया मा न्यारु.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २५.५.२०११
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Tuesday, May 24, 2011

"रैबार"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

औन्दु थौ कबरि, अब नि औन्दु,
प्यारा ब्वै बाबु कू, जीवन-संगिनी कू.....

प्यारा दगड़्यौं कू, मुल्क का मनख्यौं कू,
जब औन्दु थौ, क्वी दगड़्या गौं बिटि.....

तब पूछ्दा था, क्या रैबार अयुं छ मैकु?
रैबार यनु होंदु थौ, बेटा हौळ लगाण ऐजै.....

भैंसु अबरी लैंदु छ, टक्क लगिं छ हमारी,
छक्कि छक्किक दूध पीजा, घ्यू की माणी ल्हिजा,
बुबाजी कू रैबार, बेटा! मेरु शरील अब भलु निछ,
धाणि धंधा का बग्त, जरूर घौर ऐजै,
हमारा गौं मा ऐंसु, ह्यूंद देवतौं कू मंडाण लगलु,
उबरि तू घौर ऐजै, ग्राम देवतौं की पूजा छ,
जरूर शामिल ह्वैजै, अपणा हाथुन भेंट चढैजै,
क्या बोन्न अब? मोबाइल कू राज छ,
रैबार कू राज अब नि रै,
कखन औण अब रैबार, ऊ जमानु अब नि रै,
गौं बिटि अब कैन देण "रैबार"?
वा बात अब नि रै, कविमन मा "रैबार",
आज भी बस्युं छ, मन मा "जिज्ञासू" का....

(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २३.५.२०११
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Monday, May 23, 2011

"ढाँगु"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
पौड़ी गढ़वाल का,
ढाँगु उदयपुर की,
नि छौं कन्नु बात....
बात यनि छ,
जब बल्द अर मनखी,
बुढ्या ह्वै जान्दु,
त वैकु बोल्दा छन,
बुढ्या "ढाँगु" ह्वैगि....
उत्तराखंड कू मोती ढाँगु,
जै फर लग्युं गीत,
पहाड़ मा प्रसिद्ध छ,
वैकु मोल नौ रूप्या,
पर वैका सिंग कू मोल,
सौ रूप्या थौ......
शरील कू सदानि,
साथ नि रंदु,
बल्द हो या मनखी,
एक दिन "ढाँगु" ह्वै जान्दु.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहरी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: २२.५.२०११
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Friday, May 20, 2011

"लाटी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
सच मा थै वा,
क्वी चरक न फ़र्क,
वे जमाना की अनपढ़,
एक दिन वींका बुबाजिन,
वींकी मागण करि दिनि,
वीं तैं कुछ भि पता ना,
एक दिन वींकी बारात आई,
वींकु ओलु थौ गाड़्युं,
बाद मा वीं पता लगि,
जवैं बुढ्या छ, बगत बिति,
तीन नौना अर चार नौनी,
वींका पैदा ह्वैन,
अर बुढ्या स्वर्ग सिधारिगी,
क्या करू अब "लाटी"?
वींन हिम्मत नि हारी,
बाल बच्चा पढै लिखैन,
कुछ समय बाद,
द्वी नौना फौज मा,
एक नौनु सरकारी नौकरी,
"लाटी" का घौर घ्यू का,
दिवा जगण लगिन,
अब वा "लाटी" नि रै,
वींकी जिंदगी मा,
बसगाळ ऐगी.
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लाग पर प्रकाशित)
दिनांक: २०.५.२०११
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Thursday, May 19, 2011

"चल दूर चलि जौला"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

हे सौन्जड़्या,
मेरा दगड़्या हे,
बचपन का ऊ,
दिन याद कर,
कांडौ जनु जीवन थौ ऊ,
पर आज सी प्यारू,
अब लगदु छ,
मयाळु मन मेरु,
आज डरदु छ,
चलि जौं वे प्यारा,
मुल्क अपणा,
मन मेरु आज यनु बोन्नु छ,
तू अपणा मन की बात बोल,
या दुनियां छ,
त्वैतै कनुकै बतौं,
झूटी माया कू घोल,
पर "चल दूर चलि जौला",
अपणा प्यारा मुल्क हे.

(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: १७.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html

"यनु बोल्दा छन"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

मेरा मुल्क खासपट्टी,
टिहरी गढ़वाल मा,
दाना सयाणा भै बन्ध.....

बरखा बरखी डागर,
द्योरू बरखी डागर,
तब त समझा सच छ,
खासपट्टी मा अबरखण,
हळसुंगि बल काकर,
बल "यनु बोल्दा छन".....

छाँछ मागण जाण त,
भांडु क्यौकु लुकौण,
ज्व बात सच छ,
कतै नि छुपौण,
बल "यनु बोल्दा छन".....

गंगा जी का छाला फुन्ड,
थौ जाण लग्युं,
बल भौ सिंह ठेकेदार,
बोन्न लगि,
त्वैन क्या जाणन,
हे गंगा माई,
यख फुन्ड ऐ थौ,
भौ सिंह ठेकेदार,
वैन धोळ्यन धौळी मा,
रुपया कुछ कल्दार
बल "यनु बोल्दा छन".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १६.५.११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html

"कूड़ी बांजा पड़्यन तेरी"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
भारी गाळ माणदा था,
मेरा मुल्क का मनखी,
जू कैन यनु बोल्यालि,
पर आज यनु निछ.......
जौंकी कूड़ी बांजा छन पड़ीं,
हमारा प्यारा मुल्क,
कुमौं अर गढ़वाळ,
समझा आज ऊँकू,
विकास होयुं छ......
विकास की दौड़ मा,
हमारा मुल्क कू,
हरेक मनखी खोयुं छ,
आज आशीर्वाद छ,
जू क्वी यनु बोलु,
"कूड़ी बांजा पड़्यन तेरी"....
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लाग पर प्रकाशित)
दिनांक: १८.५.२०११
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.135.html
http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

Monday, May 16, 2011

"झपन्याळि डाळी का छैल"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

बैठि थौ कबरी, सुण हे दगड़्या,
अपणा प्यारा, मुल्क पहाड़,
दोफरी कू घाम थौ, बगदु बथौं थौ,
डाळी थै झपन्याळि, बांज बुरांस की,
बासण लगिं थै, घुघती हिल्वांस,
हैंसण लग्युं थौ, बण मा बुरांस,
तू भी थै बैठ्युं, जरा याद कर,
बात छ हमारा, प्यारा बाळापन की,
वे दिन दगड़्या, बैठ्युं थौ मैं,
अंग्वाळ मारिक, हे तेरा गैल,
कुलदेवी चन्द्रबदनी का डंडा,
"झपन्याळि डाळी का छैल",
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १२.५.२०११

"काफळ खैजा"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

हमारा मुल्क काफळ पक्याँ,
होयां होला रसीला,
होला क्वी भग्यान खाणा,
प्रभु तेरी क्या लीला....

मन पौन्छ्युं छ वे पहाड़,
आँखी छन फटकणि,
काफळ खाण यख कखन,
होईं छन टरकणि.......

होलु क्वी दगड़्या मेरु,
काफळ दाणी ठुंग्याणु,
हबरि हैंसी हैंसी होलु,
बाजूबंद लगाणु.....

देवभूमि कू रैबार अयुं,
हे चुचा तू ऐजा.....
अपणा बाँठा का काफळ,
ह्वै सकु त खैजा.......
(सर्वाधिकार सुरक्षित, पहाड़ी फोरम, मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित)
दिनांक: १२.५.२०११

Sunday, May 15, 2011

"यनु बोल्दा छन"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")

मेरा मुल्क खासपट्टी,
टिहरी गढ़वाल मा,
दाना सयाणा भै बन्ध.....

बरखा बरखी डागर,
द्योरू बरखी डागर,
तब त समझा सच छ,
खासपट्टी मा अबरखण,
हळसुंगि बल काकर,
बल "यनु बोल्दा छन".....

छाँछ मागण जाण त,
भांडु क्यौकु लुकौण,
ज्व बात सच छ,
कतै नि छुपौण,
बल "यनु बोल्दा छन".....

गंगा जी का छाला फुन्ड,
थौ जाण लग्युं,
बल भौ सिंह ठेकेदार,
बोन्न लगि,
त्वैन क्या जाणन,
हे गंगा माई,
यख फुन्ड ऐ थौ,
भौ सिंह ठेकेदार,
वैन धोळ्यन धौळी मा,
रुपया कुछ कल्दार
बल "यनु बोल्दा छन".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मेरे ब्लॉग और पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित)
दिनांक: १६.५.११

Tuesday, May 10, 2011

"तेरी हाम छ"

क्या बोन्न, मेरा मुल्क,
घर घर मा आज,
नयाँ जमाना मा,
तेरी हाम छ.

त्वै बिना,
सूर्य अस्त का बाद,
मेरा मुल्क का मनखी,
रगबग करदा छन,
जब तू ऊँका पोटगा पेट,
बैठि जांदी छैं,
ऊँका मन मा,
ऊलार पैदा करदी छैं,
ज्वान अर बुढया का,
तब ऊँ तैं यनु लगदु,
सब्बि धाणि मिलिगी आज,
रात सुपन्याळि ह्वैगी,
अहा! कथगा मजा ऐगी,
बोतळ की बेटी,
आज का जमाना मा,
"तेरी हाम छ"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
दिनांक: १०.५.११ सर्वाधिकार सुरक्षित,
प्रकाशित पहाड़ी फोरम और मेरे ब्लॉग पर

Thursday, May 5, 2011

"टिहरी डाम"

जैकी छ हाम,
किलैकि वैका कारण,
बिगळेन मनखी,
दुखेन ऊँका दिल,
यनु भी बोल्दा छन ऊ,
पड़ी हमारी पीठी मा,
मुछाला कू सी डाम.

जी या बात सच छ,
पूछा ऊँ सनै,
क्या ख्वै क्या पाई?
निर्दयी था ऊ,
जौन योजना बणाई,
पहाड़ कू पाणी,
दूर दिल्ली तक पौंछाई,
बिजली बणनी छ,
वा पहाड़ छोड़िक दूर,
ऊँका घौर रोशन कन्नी छ,
जौंकु हक्क कतै निछ,
जौंकु थौ ऊँका घौर,
कखि रोशन त होला,
पर दिल मा दर्दयाळु अंधेरु,
"टिहरी डाम" का कारण.

रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
दिनांक: ५.५.२०११

Wednesday, April 27, 2011

"हमारा गौं का हळ्या"

अब चकड़ीत ह्वैग्यन,
हौळ लगाणु छोड़िक,
ऊ भि परदेश चलिग्यन,
सैडा गौं कु हौळ अब,
द्वी तीन हळ्या,
अर वथगा हो जोड़ी बल्द,
लगौणा छन,
हौळ क्या बोन्न!
मोळ माटु बोला या काटु,
कना छन,
धरती मा अब,
मन्ख्यौं क़ू विस्वास नै रै,
नरक रुपी नौकरी भलि,
सब्यौं क़ू विचार छ,
आज क़ू आधार छ,
नयाँ जमाना की रंगत,
बिंगा थौळ छ,
निरर्थक हौळ छ,
हर्चण लग्यां छन अब,
"हमारा गौं का हळ्या".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २६.४.२०११
@सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Monday, April 25, 2011

"दिन बौड़िक ऐगिन"

प्यारा उत्तराखंड का,
पारम्परिक ढोल का,
ढोल कू मान बढ़ौण वाळा,
परम्परा कायम रखण वाळा,
पारम्परिक ढोली का,
उत्तराखंड की शान, ढोल,
खामोश छन! जैका बोल,
उत्तराखंडियों का कारण,
जू वैकू त्रिस्कार कना छन.

सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी,
अमेरिका देश का,
संगीत का प्रोफेसर,
स्टीफन "फ्योंलिदास",
जौन सिख्यन,
पुजारगांव, चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल का,
सोहनलाल जी सी,
ढोल की तान,
ल्हिगिन उत्तराखंड कू ढोल,
अपणा देश अमेरिका,
जख बढणि छ वैकी शान.

विजिटिंग प्रोफेसर का रूप मा,
सोहनलाल, सुकारू दास ढोली,
अब आमंत्रित छन अमेरिका,
जू सिखाला वख ढोल,
ढोल का प्यारा बोल,
बढाला वैकू दूर देश मा,
मान अर सम्मान,
हे उत्तराखंड ढोल,
तेरा "दिन बौड़िक ऐगिन",
कवि "जिज्ञासु" गदगद छ,
तू जुग जुग राजि रै.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २४.४.२०११
@सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Tuesday, April 19, 2011

बुरांस

कवि "जिज्ञासु" की नजर में,
बुरांस पहाड़ की शान है,
हर उत्तराखंडी को,
उस पर अभिमान है.
वो पहाड़ पर ही,
रहता और खिलता है,
प्रवासी उत्तराखंडियों को,
उसका रैबार मिलता है.
ऋतु बसंत में,
लौट आओ....
मैं तुम्हारे मुल्क में,
हिमालय को निहार कर,
मुस्करा रहा हूँ,
जन्मभूमि आपकी,
और मैं,
आपको याद दिला रहा हूँ.

फिर न होगा जन्म यहाँ,
न जाने वो कौन सा देश होगा,
पर्वत और मैं,
शायद वहाँ नहीं होंगे.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १८.४.२०११'

"दारू अर खारू"

बोन्न लगिं छ बोडी,
तिबारी मा बैठी,
हे चुचों!
कनि मति मरि तुमारी,
क्यौकु होयुं छ,
रात दिन तुमकू,
"दारू अर खारू",
जरा! सोचा मन मा,
देवतों कू मुल्क छ,
उत्तराखण्ड हमारू.

ब्यो हो या बारात,
पेन्दा छैं तुम,
दिन हो या रात,
करदा छैं हो हल्ला,
मचौंदा छैं उत्पात,
मेरी दानी बात माणा,
भलि निछ या बात,
कैकु भलु,
आज तक नि ह्वै,
"दारू अर खारू" पीक.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Friday, April 8, 2011

"ढुंगू ह्वैगि पराण"

दुनियां का दिन देखि,
सैडी जिंदगी भर,
फाळ मारदु-मारदु,
कळ्त बळ्त करदु करदु,
भिन्डी की चाह मा,
अजौं तक नि भरे ज्यू,
खबानी किलै, केका खातिर.

भेद कू पता नि लगि,
कैन सताई, कैन पिथाई,
बणिन बाठ रोड़ा,
जऴिन ज्युकड़ी जौंकी,
सेळि नि पड़ी,
बुरू सोचिक, करिक भी,
पर "ढुंगू ह्वैगि पराण",
दुनियां तेरा हाल देखिक.
सच नि छैं तू,
सब मायाजाल छ.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.4.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Thursday, April 7, 2011

"तू आज"

यथगा खुश किलै छैं?
अफुमा-अफुमा भारी,
आंख्यौं फर भरोंसु,
क्या सच छ, सच मा,
तू बैठीं छैं तिबारी मा,
भलि बाँद की अन्वारी.

कथगा स्वाणी लगणि छ,
तेरी मायाळु मुखड़ी,
"तू आज" यनि लगणि छैं,
जनि हो जुन्याळि जोन,
त्वै तैं हेरी हेरिक धक् धक्,
कनि मेरी ज्युकड़ी.

तेरा रूप की बात,
क्या बतौण, त्वै हेरिक,
बुरांश बिचारू ललसेणु छ,
मन मेरु भी अफुमा-अफुमा,
तेरु मिजाज, रंग अर रूप,
झळ-झळ लुकां ढकाँ देखिक,
क्या बोन्न ललचेणु छ,
किलैकि भारी बांद,
लगणि छैं लठ्याळि "तू आज".
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Wednesday, April 6, 2011

"निर्भागी"

जैका भाग मा,
सदानि टोटग ऊताणि,
क्या बोन्न,
कखन होण खाणी बाणी,
तर्स्युं-तर्स्युं सी रन्दु,
वेकु पापी पराणि......

हरेक मनखि कू,
होंदु छ अपणु-अपणु भाग,
चल्दि छ जिंदगी,
क्वी ह्वै जांदु भग्यान,
कैकु ऐ जांदु निर्भाग.....

भलु भाग जू नि ल्ह्यौंदु,
मांगिक अपणा दगड़ा,
वेकु जीवन ह्वै जांदु,
जन रगड़ा भगड़ा,
"निर्भागि" का रूप मा,
जैका आँखौं मा सदानि आंसू....
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ६.४.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Thursday, March 31, 2011

"लूटनी है लंका"

धोनी के धुरंदरों ने,
वर्ड कप-२०११ जीतकर,
करना है धूम धड़ाका,
बजाना है डंका,
ऐसी है आस,
हर हिन्दुस्तानी के,
मन मस्तिष्क में.

जरूर जीतेंगे,
मंजिल पास है,
क्या करवट लेगा,
समय चक्र उस दिन,
फैसला शायद,
प्रभु के हाथ है.

लेकिन! इरादे उनके भी,
कम नहीं होंगे,
हिंदुस्तान की धरती पर,
हिंदुस्तान को हराना,
परचम लहराना,
कह रहे होंगे वो,
अगर "लूटनी है लंका"?
हमसे भिड़कर लूटो.
(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" ३१.३.११)

Monday, March 14, 2011

"दूर देश कू दर्द"

ग्यारह मार्च द्वी हजार ग्यारह,
जै दिन,
ऊगदा सूरज का देश,
जापान मा,
भूकंप अर सुनामिन,
तबाह! करि सब्बि धाणी,
मनख्यौं का मन मा,
भौत दुःख अर दर्द पैदा ह्वै,
अपणा देश भारत मा,
खास करिक उत्तराखण्ड मा,
किलैकि, वख छन हमारा,
भौत सारा प्यारा उत्तराखंडी,
जू रोजगार करदा छन,
दूर देश जापान मा,
अर भौत प्यार करदा छन,
अपणा जन्म स्थान,
पराणु सी प्यारा उत्तराखण्ड तैं.

लगिं थै टक्क सब्यौं की,
लंगि संग्यौं की,
कै हाल मा होला,
प्यारा प्रवासी उत्तराखंडी,
जौंका कारण,
"दूर देश का दर्द" सी,
हमारू भिछ रिश्ता,
किलैकि, मिनी जापान,
घनसाली, टिहरी का नजिक छ,
बल हमारा उत्तराखण्ड मा.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
"सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित"
दिनांक: १२.३.२०११
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

Wednesday, March 9, 2011

"उत्तराखण्ड की लोक भाषा"

जै मनखि सनै निछ,
अपणि बोली भाषा कू ज्ञान,
बोली भाषा फर अभिमान,
सच मा ढुंगा का सामान,
अपणि बोली भाषा बिना,
क्या छ मनखि की पछाण?

कथगा प्यारी छन,
उत्तराखण्ड की लोक भाषा,
जुग-जुग तक फलु फूल्वन,
हर उत्तराखंडी की अभिलाषा.

प्रकृति, शैल-शिखर सी ओत प्रोत,
होन्दा छन उत्तराखंडी लोक गीत,
मन-भावन लगदा अपणि भाषा का,
जमीन सी जुड़याँ प्यारा गढ़वाळी,
कुमाऊनी, भोटिया, जौनसारी गीत.

भाषा का माध्यम सी होन्दु छ,
साहित्य अर संस्कृति कू सृंगार,
दिखेन्दि छ झलक अतीत की,
जुछ आज अनमोल उपहार.

अतीत सी कवि अर लेखक,
देवभूमि उत्तराखण्ड का,
कन्ना छन लोक भाषाओं कू,
अपणि रचनाओं मा सम्मान,
जागा! हे उत्तराखंडी भै बन्धो,
लोक भाषा छन हमारी धरोहर,
समाज अर संस्कृति की पछाण.

दर्द दिल मा भाषा का प्रति,
आज छ समय की पुकार,
प्रवासी उत्तराखंडी गौर करा,
हाथ तुमारा प्रचार अर प्रसार.

लोक भाषा फललि फूललि,
प्रसार कू संकल्प होलु साकार,
सार्थक होलु समाज कू प्रयास,
जरूर रंग ल्ह्यालु भविष्य मा,
अस्तित्व कायम रलु,
कवि "जिज्ञासु" की यछ आस.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ८.३.२०११'
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
(श्री दीपक बेंजवाल जी ग्राम: बैंजी, चमोली का अनुरोध फर "दस्तक" पत्रिका का लोक भाषा विशेषांक का खातिर रचित)
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.120.html

Monday, February 28, 2011

"पहाड़ का गांधी"

स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी,
आपन कनु करि कमाल,
उत्तराखण्ड आन्दोलन की,
प्रज्वलित करि मशाल.

जन्म २४ दिसम्बर, १९२५,
टिहरी, जखोली, अखोड़ी ग्राम,
उत्तराखण्ड का इतिहास मा,
दर्ज करि अपणु नाम.

आज धन्य होयिं छ,
आपकी जन्मभूमि अखोड़ी,
उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति सी पैलि,
जीवन यात्रा करिक छोड़ी.

उत्तराखण्ड राज्य कू सुपिनु,
आज होयुं छ साकार,
उत्तराखण्ड की जनता फर,
आपकु छ भारी ऊपकार.

अहिंसक उत्तराखण्ड आन्दोलन,
जैका आप था सूत्रधार,
आपकु अथक संघर्ष अर प्रयास,
पहाड़ फर छ परोपकार.

पहाड़ कू विकास कनु हो,
कनु हो संस्कृति कू सृंगार,
राज्य प्राप्ति कू सुपिनु,
आपकी कल्पना सी ह्वै साकार.

पहाड़ का खातिर समर्पित जीवन,
प्रमुख था वैका सरोकार,
संकल्प पहाड़ कू चहुंमुखी विकास,
जन-जन की आस अर आधार.

उत्तराखण्ड आन्दोलन का अग्रदूत,
"पहाड़ का गांधी"आपतैं शत शत नमन,
भागीरथ प्रयास साकार आपकु,
प्रगति पथ फर अग्रसर पर्वतजन.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 27.2.2011
मैन अखोड़ी निवासी श्री बी.यस. रावत जी का अनुरोध फर या कविता स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी फर लिखि. आशा छ पाठक पसंद करला.
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.105.html

Friday, February 25, 2011

"ऋतु बसंत मा"

देखा हे प्यारा भै बन्धु,
हमारा मुल्क प्यारा पहाड़,
कामदेव कू पुत्र बसंत,
जख छन प्यारी डांडी-काँठी,
खुदेड़ ऋतु बसंत मा,
सब जगा आज छयुं छ.
बुराँश बणाँग लगौण लग्युं,
फ्योंलि तैं सतौण लग्युं,
मेरु रूप त्वैसी सी न्यारू,
शिवशंकर भोला तैं प्यारू,
ऊँचा डाँडौं घणा बणु मा,
मुल-मुल हैंसण लग्युं छ.

ऋतु बसंत जब-जब औन्दि,
सब्बि उत्तराखंड्यौं तैं,
जन्मभूमि रैबार छ देन्दी,
मैमु आवा ऋतु बसंत मा,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
कुतग्याळि सी लगौन्दी.

हैंसणा होला फ्योंलि,बुराँश,
गौं का न्योड़ु फुल्याँ लयाड़ा,
अनुभूति व्यक्त कन्न लग्युं,
कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा,
किलैकि मेरा कवि मन मा,
खुदेड़ ऋतु बसंत छयुं छ,
मन पँछी अजग्याल मेरु,
प्यारा उत्तराखंड गयुं छ.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 24.2.2011

Logged

Thursday, February 24, 2011

"बुरांश"

बौळ्या बणै देन्दु छ,
जब औन्दि छ बयार,
ऋतु बसंत की,
हैंसदु छ हिमालय देखि,
बाँज का बण का बीच,
ललेंगु मनमोहक ह्वैक,
पैदा होन्दु ऊलार,
हेरि हेरिक मन मा,
हे बुरांश,
तेरु प्यारू रंग रूप.
पहाड़ का मनखी,
याद करदा छन त्वै,
सुखि-दुखि जख भी,
रन्दा छन त्वैसी दूर,
कसक पैदा होन्दि छ,
सब्यौं का मन मा,
किलैकि तू,
पहाड़ की पछाण छैं,
पहाड़ कू पराण छैं,
भोलेनाथ तैं प्यारू,
आंछरी भी हेरदि होलि त्वै,
प्यारा गढ़वाळ अर कुमाऊँ,
हमारा मुल्क कू,
रंगीलु "बुरांश" छैं.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: १३.२.२०११

http://www.pahariforum.net/forum/index.php/board,3.0.html

"जन्मभूमि"

कविमन मन मा आज किलै,
कुतग्याळि सी लगणि छन,
तेरी याद आज औणि छ,
तेरी गोद मा बित्याँ दिनु की,
मन मा बसिं याद,
आज भौत सतौणि छ.....

हम मनखी ह्वैक त्वैसी दूर,
बुरांश, फ्योंलि का बड़ा भाग छन,
मुल-मुल होला त्वैमु हैंसणा,
ऊदास होन्दु हमारू मयाळु मन.

जिंदगी ज्यू जिबाळ सी,
अयुं होलु त्वैमु बाळु बसंत,
कनु छुटि प्यारू साथ तेरु,
दूर परदेश मा रैबार न रंत.

खुद भी लगदी तेरी सब्यौं,
जू दूर देश त्वैसी छन,
जन्मभूमि छैं प्यारी हमारी,
ऊदास "जिज्ञासु" कू कवि मन.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.२.२०११)

http://www.pahariforum.net/forum/index.php/board,3.0.html

Tuesday, February 22, 2011

"देवभूमि तेरू दर्द"

(मेरी हिंदी में लिखी "देवभूमि तेरा दर्द" कविता का प्रिय पाठकों के लिए गढ़वाली अनुवाद)

तिस्वाळा छन गौं का धारा,
धौळी छन पर तिस्वाळा लोग,
कनुकै बुझली पर्वतजन की तीस?
देखा कनु छ संयोग.

प्राकृतिक संसाधन भौत छन,
मनमोहक प्रकृति कू सृंगार,
पलायन करिक चलिगिन पर्वतजन,
जख मिलि ऊँ तैं रोजगार.

रंग बिरंगा फूल खिल्दा
जंगळु मा पोथला करदा किब्लाट,
वीरानी छाणी छ गौं मा,
अब नि होन्दु मनख्यौं कू खिगचाट.

जंगळ जू मंगलमय छन,
बणांग सी भस्म होन्दा हर साल,
कथगा बण का जीव मरी जाँदा,
आज छ देखा एक सवाल.

पुंगड़ा पाटळा बंजेण लग्यां छन,
कैन लगौण अब ऊँ फर हौळ,
हळ्या अब खोजिक नि मिल्दा,
मन मा छ अब एक ही झौळ.

पशुधन आज पहाड़ कू,
होण लग्युं छ आज दुर्लभ,
छाँछ, नौण खोजिक नि मिल्दी,
घर्या घ्यू नि मिल्दु अब.

ढोल दमौं खामोश छन,
ढोली किलै बजौ वे आज,
परिवार कू पेट कनुकै पाळु,
त्रिस्कार कनु पर्वतीय समाज.

धौळी बाँध बणैक बाँध्याल्यन,
गाय माता आज दियालिन खोल,
देवभूमि की परंपरा निछ,
हे मनख्यौं कनु कर्याली मोळ.

हे पर्वतजन अब चिंतन करा,
राज्य अपणु अपणि छ सरकार ,
"देवभूमि तेरू दर्द" बढदु ही जाणु
सुपिना सबका नि ह्वेन साकार.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

"देवभूमि तेरा दर्द"

तिस्वाळे हैं गाँवों के धारे,
नदियाँ हैं तो प्यासे लोग,
कैसे बुझेगी पर्वतजनों की तीस?
देखो कैसा हैं संयोग.

प्राकृतिक संसाधन बहुत हैं,
मनमोहक प्रकृति का सृंगार,
पलायन कर गए पर्वतजन,
जहाँ मिला उन्हें रोजगार.

रंग बिरंगे फूल खिलते हैं,
जंगलों में पक्षी करते करवल,
वीरानी छा रही गावों में,
कम है मनख्यौं की हलचल.

जंगल जो मंगलमय हैं,
हर साल जल जाते हैं,
कितने ही वन्य जीव,
अग्नि में मर जाते हैं.

पुंगड़े हैं बंजर हो रहे,
कौन लगाएगा उन पर हल?
हळ्या अब मिलते नहीं,
बैल भी हो गए अब दुर्लभ.

पशुधन अब पहाड़ का,
लगभग हो रहा है गायब,
छाँछ, नौण भी दुर्लभ,
घर्या घ्यू नहीं मिलता अब.

ढोल दमाऊँ खामोश हैं,
ढोली क्यों उसे बजाए,
हो रहा है त्रिस्कार उसका,
परिजनों को क्या खिलाए.

नदियों को है बाँध दिया,
गायों को है खोल दिया,
देवभूमि की परंपरा नहीं,
हे मानव ऐसा क्यों किया?

हे पर्वतजनों चिंतन करो,
सरकार अपनी राज्य है अपना,
"देवभूमि तेरा दर्द" बढ़ता ही गया,
साकार नहीं सबका सपना.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

Thursday, February 17, 2011

"मैं दगड़ि"

जिन्दगी मा,
एक हादसा ह्वै,
कवि सम्मलेन मा,
एक कवि मित्रजिन,
गढवाळि कविता सुणाई,
सुणौन्दि बग्त ऊँ सनै,
कविता की पात्र,
जीवन संगिनी की याद आई.

ससुराड़ी बिटि,
जब मेरी बारात पैटी ,
मैं पालिंग मा बैठ्युं थौ,
वा डोला मा बैठिक,
क्या बोन्न वे दिन,
जोर-जोर करिक लराई,
मैकु वीं फर वे दिन,
दया बिल्कुल नि आई.

कविता पाठ जब,
थोड़ा अग्वाड़ि बढि,
बल वा वे दिन बिटि,
सदानि हैंसणी छ,
जिन्दगी भर मैकु,
सेळु का लप्पा की तरौं,
मेरु बर्गबान करिक,
दिन रात बटणी छ.

सुपिनु थौ मेरु,
ब्यो का बाद,
सदानि सुखि रौलु,
भग्यानि का हाथ की,
नखरी भलि खौलु,
पर आज यनु लगणु छ,
हादसा ह्वै,
वे दिन "मैं दगड़ि",
आज भोगणु छौं.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ११.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

"बसंत" (मौळ्यार)

अयुं होलु हमारा मुल्क,
बौळ्या बणिक,
छयुं होलु डाँडी-काँठ्यौं मा,
होलि ब्वै बाटु हेन्नि,
कब आलु नौनु मेरु,
खेल कौथिग आला,
फ्योंलि, बुरांश का फूल,
वैका मयाळु मन तैं,
मुल-मुल हैंसिक रिझाला.

बौळ्या बसंत की बयार,
हेरि-हेरिक मन मा,
पैदा होन्दु छ,
मुल्क का मनख्यौं का,
मयाळु मन मा ऊलार.

पय्याँ-आरू होला फूल्याँ,
पाख्यौं मा होलि हैंसणि,
फ्योंलि मुल-मुल,
डाँडी-काँठ्यौं की होलि,
मुंड मा पैरीं,
ह्यूं अर हर्याळि,
होलि ब्वै बैठीं छज्जा मा,
हमारी प्यारी डिंडाळि,
खुदेड़ ऋतु "बसंत" मा

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १६.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Tuesday, February 1, 2011

"तड़-तड़ी ऊकाळ"

जनि कटार चोट की,
बगड्वाळधार का नजिक,
त्यूंसा की,
रौडधार का नजिक,
ज्वान्याँ की,
पौड़ीखाळ का नजिक,
चन्द्रबदनी मंदिर का ओर पोर,
टिहरी गढ़वाळ मा,
जख फुन्ड हिटदा था,
प्यारा मुल्क का मनखी,
गौं-गौळौं, मैत-सैसर,
औन्दि जान्दी बग्त,
लम्बा लैंजा लगैक,
छ्वीं बात्त लगौंदु-लगौंदु,
पता नि लगदु थौ,
कब हिटि होला,
"तड़-तड़ी ऊकाळ",
अपणा मुल्क धमा-धम.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक:१.२.११
सर्वाधिकार सुरक्षित यंग उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित"

Thursday, January 27, 2011

"सोच्युं"

सच नि होन्दु,
फिर भि सोच्दु छ इंसान,
पर अपणा मन की,
करदु छ भगवान.

एक दिन मैन सोचि,
भोळ छुट्टी का दिन,
२२.१.२०१० शनिवार कू,
आराम करलु मैं,
पर सुबेर ६.२० फर,
नौना कू फोन आई,
"पापा किसी ट्रक ने,
मूलचंद के सामने,
मुझे टक्कर मार दी है",
आप जथगा जल्दी हो,
झट-पट आवा,
यथगा सुणिक मेरु,
ह्वैगि मोळ माटु,
आँखौं मा ह्वै अँधेरू,
नि सूझि कुछ बाटु.

कुल देवतों की कृपा सी,
नौना का गौणा फर,
सिर्फ लगि भारी चोट,
अनर्थ होण सी बचि,
माँ चन्द्रबदनी की कृपा सी,
मेरा मित्रों, आपकी दुआ लगि,
देवभूमि उत्तराखंड की,
प्यारी जन्मभूमि की,
कर्दौं मन सी वंदना.

मेरा कविमन तैं,
सुख दुःख यथगा ही मिलु,
जथगा मैं सहन करि सकौं,
हे बद्रीविशाल,
सोच्युं आपकु प्रभु,
सदा सच हो,
पर अनर्थ न हो,
मेरु आपसी छ सवाल.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित २६.१.२०११)

Tuesday, January 18, 2011

"मंग्तु"

"बेटा मंग्तु अब मैं एक सुख्याँ डाळा का सामान छौं. मैं आज छौं भोळ कू क्वी पता निछ. अब घौर कू सारू बोझ त्वै फर ही छ." पिता दयाल सिंह ने मंग्तु को घर से जाते वक्त समझाया. आज मंग्तु रोजगार की तलाश में देहरादून जा रहा था. गाँव से एक घंटे की दूरी पैदल तय करके उसने जामणीखाल से आठ बजे की बस ऋषिकेश के लिए पकड़ी. मंग्तु बस में खिड़की वाली सीट पर बैठकर बस से पीछे की ओर सरकते गौं, पुंगड़े और पहाडों को एक टक्क निहार रहा था. उसे लग रहा था जैसे पहाड़ पर पेड़ आज उसको बस में बैठा देखने को उतावले हो रहे हों. गाड़ी देवप्रयाग की ओर उतरती घुंग्याट और प्वां-प्वां करती सरपट भागी जा रही थी. मंग्तु के मन में घर से दूर घर परिवार से दूर जाने की उदासी साफ़ झलक रही थी.

मंग्तु कल्पना में डूबा अपनी सीट पर अलसाया हुआ बैठा था. गाड़ी जब देवप्रयाग पहुंची तो ड्राईवर ने गाड़ी रोकी. मंग्तु अलकनन्दा, भागीरथी का संगम और रघुनाथ मंदिर निहारने लगा. वेग से बहती भागीरथी और अलकनन्दा की खामोशी, देवप्रयाग का विहंगम दृश्य सब कुछ देखकर मंग्तु का मन जस का तस था. जबकि इस प्रथम प्रयाग की खूबसूरती देखने यात्री दूर देश प्रदेशों से आते हैं.

गाड़ी फिर घुंग्याट और प्वां-प्वां करती ऋषिकेश की तरफ चढाई चढ़ने लगी. बस में बैठि सवारी झपकी लिए अंदाज में मोड़ों पर इधर उधर हिल रही थी. कंडक्टर ने अपना हिसाब किताब लगाया और ड्राईवर के पास जाकर बीड़ी सुलगाकर ड्राईवर को भी देकर पीनें लगा. मंग्तु उनकी जलती बीड़ी के धुँए की ओर एक टक्क देख रहा था. अचानक! उसकी नजर बस पर लिखे वाक्य "अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" पर पड़ी. वो सोचना लगा, अगर रोजगार अपने घर की तरफ मिल जाता तो आज क्यों दर दर भटकने के लिए घर से दूर जाता.

"अपना घर अगर सुन्दर होता तो क्यों दर दर फिरती" भागती बस के परिपेक्ष में लिखा था. बस अगर खड़े खड़े आय कर ले तो उसे सम्पूर्ण उत्तराखंड में बेबस हो क्यों भागना पड़ता. यही मंग्तु भी सोच रहा था. ड्राईवर ने गाड़ी रोकी, स्टेशन था तीन धारा. तीन धारा कुछ वर्षों से प्रसिद्ध हुआ है. पहले आती जाती सभी गाडियां व्यासी ही रूकती थी. व्यासी के छोले प्रसिद्ध थे, जो व्यासी रुके वो व्यासी के छोले न खाए कैसे हो सकता है. तीन धारा जैसे की नाम से पता चलता है वहां पर "छोया ढुंग्यौं का पाणी है". खाना खा लो....खाना खा लो.... गाड़ी बीस मिनट बाद जायेगी. मंग्तु ने तीन धारे का पानी पिया और होटल में चाय के साथ "ब्वै का हाथ की" तेल भीगी रोटी खाई.

ड्राईवर ने बस का हार्न बजाया, सभी यात्री बस में बैठ गए और गाड़ी फिर अपनी मस्तानी चाल में साकनीधार की तरफ घुंग्याट और प्वां-प्वां करती, काला धुआं उगलती अपनी मंजिल ऋषिकेश की ओर चलने लगी. कहीं घुगुती बासती, कोई पक्षी हे कीडू़ बोलता और तोता घाटी में पेडों पर बैठे फुदकते बड़े बड़े लंगूर, बांदर, दूर से दिखती लकीरनुमा गँगा, ये सब कुछ दिख रहा था बस से चलचित्र की तरह. मंग्तु मन में खोया अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता जा रहा था.

बस ऋषिकेश पंहुची मंग्तु ने अपना झोला उठाया और देहरादून की बस में बैठ गया. अब बस से बड़े पहाड़ उत्तर दिशा की तरफ ही नजर आ रहे थे. दून घाटी की तरफ जाती बस से कहीं घने जंगल, टेहरी डाम से खींची विशालकाय ट्रांस्मिसन लाइन, पहाड़ जैसे लोग भी नजर आ रहे थे. लगभग दो बजे मंग्तु देहरादून रिस्पना पुल पर बस से उतर कर धरमपुर अपने गाँव के महिपाल के पास पहुंचा.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
5.6.2009

Monday, January 17, 2011

झगुल्या

देवभूमि उत्तराखंड के एक गाँव में शेर सिंह और उसकी पत्नी बैशाखी हमेशा एक चिंता में खोये रहते थे. शादी हए बहुत साल हो गए पर औलाद की प्राप्ति नहीं हुई. शेर सिंह की माँ धार्मिक विचारों की थी. बेटे की कोई संतान अब तक न होने के कारण बहुत उदास और दुखी रहती थी. कामना करती "हे कुल देवतों दैणा होवा, आज तक मैकु नाती नतणौं कू मुख देखणु नसीब नि ह्वै सकि". उसके साथ की गाँव की महिलाएं "नाती नतणौं" का सुख देख रही थी.

समय बीतता गया, एक दिन शेर की माँ चैता को चन्द्रबदनी मंदिर जाने का मौका मिला. घर से नहा धोकर उसने भगवती माँ चन्द्रबदनी के लिए अग्याल रखी. गाँव की बहुत सी महिलाएं बच्चे और पुरूष माँ चन्द्रबदनी के दर्शनों के लिए जा रहे थे. चैता अपनी लाठी के सहारे ऊकाळ का रास्ता चढ़ने लगी. उसकी आँखों में आज एक चमक थी. मन में सोच रही थी आज मैं भगवती से अपने शेर सिंह के लिए संतान की कामना करूंगी.

चैता जब चन्द्रबदनी परिसर में जब पहुँची तो उसने दोनों हाथ जोड़कर दूर से भगवती को मन ही मन याद किया. अष्टमी होने के कारण मंदिर में बहुत भीड़ थी. चैता किसी तरह आगे बढ़ रही थी. मंदिर के अन्दर पंहुंच कर चैता ने भेंट अर्पित की और माँ से मन्नत मांगी. दर्शन करने के बाद सथियौं के साथ चैता घर के लिए वापस लौटी. चारौं और उसने नजर दौडाई और कहने लगी "आज ऐग्यौं माँ मैं, अब कुजाणि अयेन्दु छ की ना".

बहुत दिन गुजर जाने के बाद चैता को वह ख़ुशी जो वह चाहती थी सुनने को मिली. वह अपनी ब्वारी का खूब ख्याल रखने लगी. बेटा शेर सिंह भी बहुत खुश था. अपनी माँ के चेहरे पर रौनक देखकर वह मन ही मन खुश रहने लगा. चैता ने एक दिन शेर सिंह से कहा, बेटा तू एक मीटर पीला कपड़ा ले आना. शेर सिंह कैसे मन कर सकता था. उसने अपनी माँ से कहा मैं आज ही ला देता हूँ. शेर सिंह जब दुकान से एक मीटर पीला कपड़ा लाया तो चैता ने सुई धागे से एक झगुली सिलना शुरू किया. मन में सोचने लगी अगर बहु का लड़का हुआ तो उसका नाम "झगुल्या" रखूँगी.

चैता ने झगुली सिलकर अपने लकड़ी के संदूक में रखी थी. दिन माह गुजरते वह समय आ गया जिसकी चैता को इंतजारी थी. बहु बैसाखी ने पेट दर्द बताया तो चैता की आँखों में चमक और चिंता के भाव आने लगे. गाँव की दाई रणजोरी को तुंरत बुलाया गया. रणजोरी कहने लगी "दीदी चैता तू चिंता न कर, ब्वारी कू ज्यूजान ठीक तरौं सी छूटी जालु". शेर सिंह तिबारी में बैठा अपना हुक्का गुड़ गुडा रहा था. उसे इंतज़ार थी कब पत्नी का प्रसव हो जाए. वह इन्तजार में ही था, बच्चे के रोने की आवाज आने लगी. रणजोरी ने चैता को बधाई दी और कहा "दीदी तेरी इच्छा पूरी करियाली माँ चन्द्रबदनी न...नाती छ तेरु होयुं" . चैता मन ही मन माँ चन्द्रबदनी का सुमिरन करने लगी और कहने लगी "माँ सुण्यालि त्वैन मेरी पुकार". चैता के मन में बिजली सी दौड़ गई और अपना बुढापा भूलकर प्रफुल्लित होकर इधर उधर जाने लगी.

पंचोला का दिन जब आया तो चैता ने नाती को झगुलि पहनाई और कहा "येकु नौं मैं "झगुल्या" रखणु छौ". हे भगवती राजि खुशि राखि मेरा नाती तैं". चैता की दिन रात खुश रहने लगी. गौं का लोग रौ रिश्तेदार सब्बि चैता तैं बधाई देण का खातिर ऐन. जब "झगुल्या" साल भर हो गया तो चैता ने शेर सिंह को चन्द्रबदनी का पाठ और बड़ा सा चाँदी का छत्र चढाने के लिए कहा. शेर सिंह माँ की की इच्छा के अनुसार चाँदी का छत्र लाया और पाठ करवाकर चन्द्रबदनी माँ के मंदिर यात्रा ले गया. सारे गाँव को उसने दावत दी और औजि को बुलाकर मंडाण लगवाया.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
10.7.2009

Thursday, January 13, 2011

"आँखों से आंसू"

करूणा में निकलते हैं,
जब प्याज काटो,
तब भी निकलते हैं,
लेकिन!
आजकल निकल रहे हैं,
महंगाई के कारण.

महंगा हुआ प्याज,
खाने का अनाज,
घर का चूल्हा कैसे जले?
सोच रही गृहणियाँ आज.

कौन लगाएगा लगाम,
बढ़ रही है महंगाई,
बेदर्द हो गए,
लगाम लगाने वाले,
कर रहे बेरूखाई.

हास्य कवि शर्मा जी,
कह रहे हैं,
प्याज खरीदोगे ही नहीं,
तो कैसे निकलेंगे आंसू.
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित(१५.१.२०११)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाश हेतु अनुमति लेना अनिवार्य है)

Tuesday, January 11, 2011

"दिनमानि कू ब्यौ"

बग्त बदलि मन भी,
बदलिगी सब्बि धाणि,
प्यारा पहाड़ मा अब,
दिन-दिन की बारात जाणी,
सोचा हे सब्बि, किलै यनु ह्वै.......

ये जमाना मा ब्योलि कू बुबाजी,
डरदु छ मन मा भारी,
दिनमानी की बारात ल्ह्यावा,
समधि जी, कृपा होलि तुमारी,
किलैकि, अजग्यान का बाराति,
अनुशासनहीन होन्दा छन....

एक जगा गै थै,
ब्याखुनि की बारात,
दरोळा रंगमता पौणौन,
खूब मचाई ऊत्पात,
फिर त क्या थौ,
खूब मचि मारपीट,
चलिन ढुंगा डौळा,
अर कूड़ै की पठाळि,
ब्यौलि का बुबाजिन,
झट्ट उठाई थमाळि,
काटि द्यौलु आज सब्ब्यौं,
बणिगि विकराल,
घराति बरात्यौं का ह्वैन,
भौत बुरा हाल.....

घ्याळु मचि, रोवा पिट्टि,
सब्बि अफुमा बबरैन,
चकड़ीत बराति,
फट्ट फाळ मारी,
कखि दूर भागिगैन,
बुढया खाड्या शरीफ पौणौ की,
लोळि बल फूटिगैन,
हराम ह्वैगि पौणख,
सब्बि भूका रैन,
वे दिन बिटि प्रसिद्ध ह्वै ,
"दिनमानि कू ब्यौ"......

(अपने पहाड़ के श्री परासर गौड़ साहिब जी चिरपरिचित कवि, लेखक एवं फिल्मकार
ने भी एक बारात में मारपीट का अनुभव अपनी रचना में व्यक्त किया है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित(११.९.२००९)
(सर्वाधिकार सुरक्षित, प्रकाश हेतु अनुमति लेना अनिवार्य है)
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाल(उत्तराखण्ड)

Thursday, January 6, 2011

"कब आलु ऊ दिन"

जब तुमारा दगड़ा,
कखि ऊँचि धार ऐंच,
भ्वीं मा बैठिक,
लगौलु छ्वीं बात,
बचपन का बिगळ्याँ,
प्यारा दगड़्यौं की,
अपणा मुल्क का,
रौ रिवाज की,
रीत रसाण की,
जागर अर मंडाण की,
बाँज बुरांश की,
घुघती अर हिल्वांस की,
हिंवाळि डाँडी-काँठ्यौं,
सर-सर बगदि,
अलकनंदा भागीरथी की,
उत्तराखंड हिमालय की,
कुलदेवी मा चन्द्रबदनी,
सुरकंडा माता की.
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ७.१.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
www.pahariforum.com

Wednesday, January 5, 2011

"ह्यून्द हमारा मुल्क"

होलि ठेणी लगणि,
हाथ खुट्टौं फर,
पड़्युं होलु ह्युं,
मसूरी,धनोल्टी,सुरकंडा,
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी,
चन्द्रकूट पर्वत,
जख बिटि होलु दिखेणु,
उत्तराखंड हिमालय.

ह्यून्द होलि छयिं,
ह्यून डांडी-काँठी,
चाँदी सी चमकणी,
खतलिंग,चौखम्भा, नंदाघूंटी,
गंगोत्री, पंचाचूली, त्रिशूली,
होलि मैतुड़ा अयिं,
प्यारी दीदी-भुलि.

प्यारा ब्वे बाबु मू,
जू होला कौम्पणा,
ढिक्याण का पेट,
होलि खुद बिसरौणी,
छकिक छ्वीं लगौणी,
होलि बाड़ी अर फाणु,
अपणा हाथुन बणौणि
ऊँ तैं खलौणी.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ५.१.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
www.pahariforum.com

Monday, January 3, 2011

"म्यर उत्तराखंड "

प्रवासी उत्तराखंडी,
युवा एवं युवतियों का,
एक सामाजिक, सांस्कृतिक,
शैक्षिक और साहित्यिक मंच,
जिसने वार्षिकोत्सव-२०१० पर,
किया सम्मान,
लोक गायक गुमानी दा,
और चन्द्र सिंह राही जी का,
वो क्षण! मार्मिक था,
जब ९८ वर्ष के गुमानी दा,
मंच पर मौजूद थे.

राही जी का सन्देश था,
अपने बच्चों को,
गढ़वाली और कुमाऊनी भाषा,
ज्ञान जरूर कराएं,
जुड़े रहें पहाड़ की संस्कृति से,
आधुनिकता भी आपनाएँ,
लेकिन! घुन्ता-घुना-घुन,
जैसे विकृत पहाड़ी गीत,
गायककार बिल्कुल न गाएँ.

स्मारिका "बुरांश" का विमोचन,
"म्यर उत्तराखंड " का,
एक अनोखा प्रयास,
जीवित रहेगी संस्कृति,
हम कवि, लेखकों की,
जिसमें होती है आस.

मंच के अध्यक्ष,
प्रिय मोहन दा "ठेट पहाड़ी",
और सभी युवा एवं युवतियों का,
पहाड़ की संस्कृति के लिए,
भागीरथ प्रयास,
बढ़ते रहो अपने पथ पर,
सफल हो लक्ष्य प्राप्ति में,
कवि "जिज्ञासु" को आप में,
दिखती है अनोखी आस.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
("म्यर उत्तराखंड " वार्षिकोत्सव-२०१०,१-जनवरी-२०११,श्री सत्यसाईं इंटरनेशनल सेंटर (ऑडिटोरियम) लोधी रोड,नई दिल्ली )

मलेेथा की कूल