Monday, December 16, 2019

"उत्तराखंड"



पवित्र देवभूमि पौराणिक है,
नाम है उत्तराखंड,
"उत्तरापथ" और "केदारखण्ड"
मिलकर बना उत्तराखंड.

शिवजी का निवास यहाँ,
बद्री विशाल का धाम,
पंच बद्री-केदार और पर्याग,
प्रसिद्ध है नाम.

गंगा, यमुना का उदगम् यहाँ,
ऊंची-ऊंची बर्फीली चोटी,
चौखम्बा, पंचाचूली, त्रिशूली,
प्रसिद्ध है नंदा घूंटी.

गले मैं नदियों की माला,
सिर पर हिमालय का ताज,
बदन में वनों के वस्त्र,
उत्तराखंड पर हम को नाज.

मनमोहक हैं फूलों की घाटी,
विस्तृत हैं बुग्याल,
मन को मोह लेते हैं,
जल से भरे ताल.

नदी घाटियाँ खूबसूरत है,
देवताओं का वास,
तभी तो "मेघदूत" लिख गए,
महाकवि "कालिदास".

वीर-भडों की भूमि है,
किया जिन्होंने बलिदान,
उनको कितना प्रेम था,
किया मान सम्मान.

उत्तराखंड का प्रवेश द्वार,
पवित्र है हरिद्वार,
पुणय पावन नगरी,
जहाँ होती जय-जयकार.

कितनी सुन्दर देव-भूमि,
देखूं उड़कर आकाश से,
नदी पर्वतों को निहारूं,
जाकर बिल्कुल पास से.

जन्मभूमि है हमारी,
हैं हमारे कैसे भाग,
कहती है उत्तराखंडियों को,
शैल पुत्रों जाग.


जगमोहन सिंह जयाड़ा, जिग्यांसू
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
२३.७.२००८ को रचित
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है

"प्रवासियों की पीड़ा"

देश के महानगरों में,
उत्तराखंड के लाखों लोग,
झेल रहे हैं प्रवास,
प्यारे पर्वतों से दूर,
जहाँ चाहकर भी नहीं मिलता,
पहाड़ जैसा परिदृश्य,
जनु,
ठण्डु पाणी, ठण्डु बथौं,
हरीं भरीं डांडी,हिंवाळि कांठी,
बांज, बुरांश,घुगती,हिल्वांस,
मनख्वात, भलि बात,पैन्णु पात,
परिवार अर् दगड़्यौं कू साथ,
ढोल-दमौं, मशकबीन बाजू,
डोला पालिंग, रंगमता पौंणा,
औजि का बोल अर् ब्यौ बारात,
अर् झेल्दा छौं,
हो हल्ला, मंख्यों कू किबलाट,
मोटर गाड़ियौं कू घम्म्ग्याट,
जाम मा जकड़िक,
पैदा होन्दि झुन्झलाट,
सब्बि धाणी छोड़िक,
पराया वश ह्वैक,
ड्यूटी कू रगरयाट,
सोचा, यानि छ हम सब्बि,
"प्रवासियों की पीड़ा",
अपन्णु घर बार त्यागिक,
कनुकै ह्वै सकदन,
हमारा तुमारा ठाट बाट.

जगमोहन सिंह जयाडा "जिग्यांसू"
19.2.2009 को रचित
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

"बहती नदी"

बचपन में देखा था,
लेकिन, पता नहीं था,
मुझे उसका पथ.

जवान होने पर,
१२ मार्च १९८२ को,
जब मैं घर से चला,
बोझिल होकर भागती,
बस में बैठकर,
दूर दिल्ली की तरफ.

देवप्रयाग में मैंने देखा,
दो नदी गले मिल रही थी,
जिनमें एक वही,
बहती नदी थी,
जिसे मैंने,
बचपन में देखा था,
कहलाती है अलकनन्दा,
और दूसरी भागीरथी.

देवप्रयाग के बाद,
ऋषिकेश की तरफ बहती,
नदी कहलाती है गंगा,
जिसके समान्तर,
भागती हैं गाड़ियां,
हरिद्वार तक,
पहाड़ की जवानी ढोती,
शहरों की ओर,
पहाड़ का पानी बहता है,
दूर सागर की तरफ.
बहती नदी में.


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(28.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७     

"छट्ट छुटिगि प्यारु पहाड़"

प्यारे पहाड़ से दूर, खुश कहो या मजबूर, अनुभूति अपनी अपनी, हो सकता है दूर पर्वास में रहने के कारण "पहाड़ के प्रति प्रेम" उमड़ता हो.....कवि मन होता ही ऐसा है जो कल्पना में जाता रहता है जन्मभूमि की ओर......लेकिन लेखनी लिख देती है ई-बुक पर ऊंगलियों के इशारे से.......जो कवि कहना चाहता है. 


छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं,
ऊ प्यारु पहाड़-२
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़-२

कूड़ी छुटि पुंगड़ि छुटि,
छुटिगि सब्बि धाणी,
कखन पेण हे लाठ्याळौं,
छोया ढ़ुँग्यौं कू पाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

मन घुटि घुटि मरिगि,
खुदेणु पापी पराणी,
ब्वै बोन्नि छ सुण हे बेटा,
कब छैं घौर ल्हिजाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

भिन्डि दिनु बिटि पाड़ नि देखि,
तरस्युं पापी पराणी,
कौथगेर मैनु लग्युं छ,
टक्क वखि छ जाणी.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदौं.....

बुराँश होला बाटु हेन्ना,
हिंवाळि काँठी देखणा,
उत्तराखण्ड की स्वाणि सूरत,
देखि होला हैंसणा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

दुःख दिदौं यू सब्यौं कू छ,
अपणा मन मा सोचा,
मन मा नि औन्दु ऊमाळ,
भौंकुछ न सोचा.
छट्ट छुटिगि सुणा हे दिदों.....

जनु भी सोचा सुणा हे दिदौं,
छट्ट छुटिगि, ऊ प्यारु पहाड़,
जख छन बाँज बुराँश,
हिंसर किन्गोड़ का झाड़.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(24.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७
  

"पहाड़ी गाँव"


प्रकृति का आवरण ओढे,
सर्वत्र हरियाली ही हरियाली,
प्रदूषण से कोसों दूर,
कृषक हैं जिसके माली.

पक्षियों के विचरते झुण्ड,
धारे का पवित्र पानी,
वृक्षों पर बैठकर,
निकालते सुन्दर वानी.

घुगती घने वृक्ष के बीच बैठकर,
दिन दोफरी घुर घुर घुराती,
सारी के बीच काम करती,
नवविवाहिता को मैत की याद आती.

सीढीनुमा घुमावदार खेत,
भीमळ और खड़ीक की डाळी,
सरसों के फूलों का पीला रंग,
गेहूं, जौ की हरियाली.

पहाड़ की पठाळ से ढके घर,
पुराणी तिबारी अर् डि़न्डाळि,
चौक में गोरु बाछरु की हल चल,
कहीं सुरक भागती बिराळि.

आज देखने भी नहीं जा पाते,
लेकिन, आगे बढ़ते हैं पाँव,
कल्पना में दिखते हैं प्रवास में,
अपने प्यारे "पहाड़ी गाँव"


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(23.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७ 

"गर्मी में दून घाटी"

गर्मी का रिकार्ड टूटा,
गर्म हो गई दून घाटी,
ग्लोबल वार्मिंग का असर है,
या बदल गई है माटी.

उत्तराखंड के मनमोहक,
पहाड़, जंगल और नदियाँ,
गर्मियौं में रहती ठंडक,
दिखती सुन्दर घाटियाँ.

विकास के बढ़ते कदम,
या कारण घटता हरित आवरण,
कारक ये दोनों ही हैं,
बदला पहाड़ का पर्यावरण.

जैसे जीवन शैली बदली,
प्रकृति का भी बदला मिजाज,
तभी तो बहुत गर्म हो रही है,
देखो, दून घाटी आज.


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(1.5.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७     

"आसमान से बरसी "आग"

अपने शहर में आजकल,
बरस रही, आसमान से आग,
कह रहा है मन ये अपना,
हो सके, दूर यहाँ से भाग.

सोचा रहा हूँ  अब, दूर कहाँ को जाऊं,
पहाड़ भये परदेशी, यहाँ कहाँ से लाऊं.

तन हुआ जड़मति अपना, मन गया गढ़वाल,
पहाड़ में एक छान अन्दर बैठा, कर रहा है सवाल?

निकट ही एक धारा है, जिसमें बह रहा ठंडा पानी,
हे कवि "जिग्यांसू" तूने,  इसकी कदर कभी न जानी.

क्योँ दूर गया तू दिल्ली में, छोड़कर पहाड़ का पानी,
बेहाल हो गया जब गर्मी से, तब ही कदर है जानी.

मेरा तो स्वभाव चंचल है, जहाँ भी मैं जाऊं,
बेहाल हो बरसती आग में, तुझे क्या समझाऊँ.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(30.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७         

"गर्मी से बेहाल"


तेज झुलसती गर्मी में, तन मन हुआ बेहाल,
अब याद आ रहा है, अपना कुमायूं और गढ़वाल.

जल्दी जाकर किसी गाड में, ठंडे पानी से नहायें,
हिंसर, किन्गोड़ और काफल, छक-छक्क कर खायें.

बांज, बुरांश और देवदार के, जंगल जहाँ दिख जायें,
कल कल बहता पानी पीकर, बेफिक्र होकर सो जायें.

सर सर बहती हवा में, किसी धार के ऊपर बैठ जायें,
देखें धरती उत्तराखंड की, व्यथित मन को बहलायें.

याद आ रहा है बचपन, उत्तराखंड में जो दिन बिताये,
ठण्ड में चूल्हे की आग सेकी, गर्मी में धारे पे नहाये.

कौन सा बँधन बाँधे हमको, जन्मभूमि, देवभूमि से दूर,
पूछ रहा "जिग्यांसू" आपसे, कितने खुश हो या मजबूर?

समझ में तो है आ रहा, भला नहीं होता प्रवास,
भुगतो सुख दुःख सारे, यही समझना है खास.

तेज झुलसती गर्मी में,  अपना कुमायूं और गढ़वाल.
जाते हैं घुमक्कड़ पहाड़ पर घूमनें, जब गर्मी से बेहाल.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(30.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७  
       

"बुराँश"



चंद्रकूट पर्वत शिखर पर,
चन्द्रबदनी मंदिर की ओर,
जाते पथ के दोनों तरफ,
चैत्र या बैशाख माह की अष्टमी को,
खिल जाते हैं बुराँश के फूल,
जिन्हें देखकर यात्रीगण,
हो जाते हैं हर्षित,
माँ के दर्शनों से पूर्व.

बुराँश अपनी लाली बिखेरता,
देखता है हँसते हुए,
चन्द्रबदनी से,
गढ़वाल हिमालय को,
जैसे कर रहा हो संवाद.

हिंवाळि काँठी दिखती हैं,
दाँतों की पंक्ति की तरह,
जैसे वो भी बिखरे बुराँशों से,
हँस कर कर रही हों संवाद.

बुराँश एक ऐसा पुष्प है,
जो गंधहीन होता है,
फिर भी हर उत्तराखंडी के मन में,
पहाड़ के इस प्रिय पुष्प को,
देखने की रहती है लालसा.

उत्तराखण्ड में हर साल आते हैं बुराँश,
पहाडों को निहारने,
हम तो नहीं जाते,
बुराँशों की तरह,
न जाने क्यौं?


सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास:संगम विहार,नई दिल्ली
(29.4.2009 को रचित)
दूरभाष: ९८६८७९५१८७       

"पहाड़ प्यारा उत्तराखंड"

जनमत दिया पहाड़ ने, छिपी है कुछ बात,
वक्त भी यही कहता है, मिल जाये सौगात.

उत्तराखंड में जो सरकार है, लगती खाली हाथ,
करना कुछ वे चाहते, नहीं मिलता है साथ.

अब देखना उत्तराखंड में, होगा सत्ता का खेल,
विकास भी जरूर होगा, और चलेगी रेल.

सड़कें हैं बन रही, सर्वत्र हो रहा है विकास,
धैर्य धरो हे उत्तराखंडी, रखना मन में आस.

बिक रहा है उत्तराखंड, ये है सच्ची बात,
प्रवास हैं हम भुगत रहे, क्या है हमारे हाथ.

चर्चाओं में है छाया है, उत्तराखंड की राजधानी,
वहीँ रहेगी सच है, जहाँ होगी बिजली पानी.

राजनीति भी बाधक है, कैसे हो पहाड़ का विकास?
जल खत्म, जंगल जल रहे, संस्कृति का हो रहा है नाश.

पहाड़ पर बिक रहा है पानी, सर्वत्र छाई है शराब,
कुछ लोग चर्चा करते हैं, समाज के लिए है ख़राब.

सब कुछ है बदल रहा, नहीं बदले पक्षिओं के बोल,
डाल डाल पर चहक रहे, जिन पर हैं उनके घोल.

आज भी लग रहा है, देवताओं का दोष,
बाक्की जब बोलता है, उड़ जातें है होश.

पहाड़ घूमने गया था, ये हैं आखों देखे हाल,
उत्तराखंड राजी रहे, तेरी जय हो बद्रीविशाल.

सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिग्यांसु"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
20.५.2009

"लील गया पहाड़"

पहाड़ को गुस्सा क्योँ आता है?
गुस्से में सब कुछ लील जाता है,
जैसे पिथौरागढ़ के,
ला, पनलिया तोक और रुनीतोला तोक के,
बेसुध सोते लोगों पर टूटा पहाड़,
क्या कसूर था उनका?
यही कि वे पहाड़ से प्रेम करते थे,
और अपनी आजीविका चलाते थे,
सुन्दर होते हुए भी, क्योँ बना काल,
पहाड़, क्या वे आपसे नफरत करते थे?

बादल ही तो फटा था,
क्रोधित होकर पहाड़ तेरे ऊपर,
रोक लेता,
और बचा देता उन लोगों को,
जो रहते थे तेरी गोद में,
सदियौं से जीने कि आस में.

उन्हें क्या पता,
लेकिन जो जा रहे हैं,
वहां पर राहत कार्य के लिए,
देखेंगे मौत का मंजर,
छायाकार ऊतारंगे तस्वीरें,
लोगों को दिखाने के लिए,
पत्रकार भेजेंगे आँखों देखी रिपोर्ट,
देखो, पहाड़ ने कैसे लील दिया,
बेरहम होकर अपनों को.

बद्रीविशाल ऐसा कभी न हो,
जो घटित हुआ,
ला, पनलिया तोक और रुनीतोला तोक के,
हँसते-खाते-खेलते-सीधे-साधे,
पर्वतजनों के साथ सुबह ८.८.०९ को,
जो पहाड़ से प्यार करते थे,
कवि "जिज्ञासू" कि तरह

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
10.8.2009

"जै मुल्क"

बग्दु बथौं छोयों कू पांणी, जै मुल्क यू सब्बि धाणी,
बिंगा मन्ख्यौं टक्क लगैक, तुमन अजौं तक नि जाणी,
बतौंणु छौं सुणा हे चुचौं....
छबीलो कुमाऊँ अर् रंगीलो गढ़वाळ....
जख छन फूलू की घाटी, पांणी का भरयां ताल.

चौक अर् सैलि सगोड़ी, राम्दी छन भैन्सि गौड़ी,
दूध घ्यू की कनि रसाण, छांछ छोल्दा परेड़ा रौड़ी,
बिंगा मन्ख्यौं टक्क लगैक ,बतौंणु छौं सुणा हे चुचौं....
छबीलो कुमाऊँ अर् रंगीलो गढ़वाळ....
जख खिल्दा छन फूल, बुरांश अर् गुर्याळ.

प्यारी-प्यारी हिंवाळि काँठी, मुंड मा जन सफ़ेद ठान्टी,
चौखम्बा अर्  त्रिशूली,  नन्दा घूंटी अर् पन्चाचूली,
बिंगा मन्ख्यौं टक्क लगैक ,बतौंणु छौं सुणा हे चुचौं....
छबीलो कुमाऊँ अर् रंगीलो गढ़वाळ....
हरा भरा डांडा जख भारी भारी भ्याळ.

शिव जी कू जख वास, चार धाम छन खास,
गंगा यमुना बग्दि जख, देवतों कू जख निवास,
बिंगा मन्ख्यौं टक्क लगैक ,बतौंणु छौं सुणा हे चुचौं....
छबीलो कुमाऊँ अर् रंगीलो गढ़वाळ....
बाग़ रीक्क मरदा जख, धारु धारू फाळ.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
7.8.2009       
 

"रक्षा बंधन और बहिना"



बाँध दो बहिना बड़े प्यार से,
आज मुझे तुम राखी,
भाई बहिन के प्यार का प्रतीक,
क्या है दुनिया में बाकी.

बचपन बीता तुम संग बहिना,
खाया खूब हँसाया,
बाँध दो बहिना राखी मुझको,
आज रक्षा बंधन है आया.

कर कामना राजी ख़ुशी की,
आज ख़ुशी है छाई,
लग रहा है स्वर्ग से सुन्दर,
मेरे घर प्यारी बहिना आई.

बांधी राखी आज बहिना ने,
रक्षा कवच है राखी,
भाई बहिन के प्यार का प्रतीक,
क्या है दुनिया में बाकी.

रक्षा करे तेरी माँ चन्द्रबदनी,
तू है मेरी प्यारी बहना,
कहता है कवि "जिग्यांसू"
बहिन तुम सदा सुखी रहना.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
5.8.2009     
 

"चोटी पर चढ़कर"

पहाड़ की चोटी पर चढ़कर,
मन में एक ख्याल आया,
क्योँ न छू लूँ आकाश को,
हाथ को ऊपर उठाया.

आकाश की अनंत ऊँचाई,
लेकिन मन की है चाहत,
छू न सका तो क्या हुआ,
चंचल मन नहीं हुआ आहत.

पहाड़ी का मन पहाड़ पर,
प्रफुल्ल हो सर्वदा मंडराए,
क्या अनुभूति होती पहाड़ पर,
यथार्थ पर्वतवासी ही बताए.

पहाड़ प्रकृति को समेटे,
जब बहुरंगी रूप दिखाए,
देखता जब कोई दर्शक,
मोहित हो सब कुछ भूल जाए.

पहाड़ की चोटी पर चढ़कर,
तभी तो मन में ख्याल आया,
कवि "जिज्ञासु" की ये अनूभूति,
आपको विस्तार से बताया.

Copyright@Jagmohan Singh Jayara"Zigyansu"......28.8.09
E-Mail: j_jayara@yahoo.com, (M)9868795187 
 

"अंग्रेजी का आकर्षण"


एक पुत्र पिता के पास,
भागता हुआ आया,
झट से अपना अंक पत्र,
उनके हाथ में थमाया.

पिता ने अंक पत्र देखा,
तुंरत पुत्र को बताया,
दुःख की बात है बेटा,
सबसे ज्यादा अंक हिंदी में लाया.

पुत्र पिता से से बोला,
इसमें दुःख की क्या बात है,
हमारा देश आज़ाद करने में,
हिंदी का बड़ा हाथ है.

रहा होगा, आज नहीं,
अब तो अंग्रेजी का बोलबाला है,
नेता, अफसर, प्रधानमंत्री,
कोई भी हिंदी में बोलने वाला है.

पुत्र बोला, पापा भूल गए,
बाजपेई जी तो हिंदी में बोलते थे,
बोलते हुए एक एक शब्द को,
पहले ह्रदय में तोलते थे.

बोलते होंगे, लेकिन तू अंग्रेजी में,
हिंदी से कम अंक है लाया,
लगवा देता अंग्रेजी का ट्यूशन,
तूने मुझे नहीं बताया.

देख बेटा, अंग्रेजी के अच्छे ज्ञान के बिना,
तू एक सम्मानित व्यक्ति नहीं बन पायेगा,
मान ले मेरी बात, नहीं तो २१वीं सदी में,
तू सबसे पीछे रह जायेगा.

Copyright@Jagmohan Singh Jayara"Zigyansu"......25.8.09
E-Mail: j_jayara@yahoo.com, (M)9868795187

"पहाड़ में रोजगार"



कोई भी उत्तराखंडी कभी, नहीं रह सकता है बेरोजगार,
सिर्फ, समझ की कमी है हमारी, जो है जीवन का आधार.

आपको लग रहा होगा अटपटा, सोच करती है कमाल,
क्या कमी है उत्तराखंड में, जहाँ है कुमायूं और गढ़वाल.

अगर, बाहर के व्यक्ति वहां, काम करके हो रहे मालामाल,
तुम हो नौकरी की तलाश में, चाहे हो जाएँ अपने फटे हाल.

लिखना पढना ज्ञान के लिए, हर इंसान के लिए है जरूरी,
दूर करो अज्ञान के परदे को, सोचो, फिर क्या है मजबूरी?

पहाड़ पर पर्यटक हर साल, लाखों की संख्या में घूमने आते,
पहाड़ के पारंपरिक उत्पादों को बेचकर, उनसे पैसा क्योँ नहीं कमाते?

पहाड़ पर जब आता है पर्यटक, बहुराष्टीय कम्पनी के उत्पाद खाता पीता,
पहाड़ की वादियों में फाइव स्टार संस्कृति पर, पैसा लुटाकर लौटता रीता.

लुप्त होते पहाड़ के कुटीर उत्पादों का, तकनीकी ज्ञान लेकर उद्योग लगाओ,
कर्महीन नहीं, ईमानदार और मेहनती बनो, जीवनयापन के लिए पैसा कमाओ.

नौकरी कभी नहीं होती भली, क्योँ कसिस भरा जीवन अपनाओ,
कहता है कवि "जिज्ञासु" आपको, स्वरोजगार करो और कमाओ.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू" (दूरभास:9868795187)
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली

"पहाड़"


पहाड़, याने मुसबतों का भंडार,
उनके लिए, जो ऐसा सोचते हैं,
क्या है उस पहाड़ में?
ऐसा भी बोलते हैं,
लेकिन! फिर भी जाते हैं,
घूमने, अपनी गाड़ी लेकर,
पहाड़ पर प्रदूषण फैलाने.

पहाड़ में पहाड़ियों के,
प्राण बसते हैं,
देवभूमि से दूर रहने पर भी,
जन्मभूमि को याद करते हैं.
क्योँ न करें?
पहाडों की गोद में,
बचपन बिताया,
वहां के अध्यापकों ने,
लिखाया पढाया.
ऊंचे पहाड़ों को निहार कर,
बड़ा बनने का संकल्प लिया,
फिर पहाड़ वासियौं ने,
देश और विश्व स्तर पर,
पहाड़ का नाम रोशन किया.

पहाड़ पर प्रकृति का भंडार है,
गाद,गदेरे,जीवनदायिनी नदियाँ,
डांडी, हिंवालि काँठी,बुरांश,देवदार,
पहाडों के सृंगार हैं.

फ्योंली,पय्याँ,आरू,घिंगारू,
जब फूलते हैं पहाड़ पर,
लगता है क्या सृंगार किया है,
पहाड़ों की सुरम्य वादियौं ने,
हरी भरी डांडयौं ने,
देखकर मन मोहित जाता है,
और कहता है,
पहाड़, हमारी जन्मभूमि,
देवताओं की प्रिय भूमि,
अतीत में वीर भडों ने चूमी,
धन्य हैं हम, जो है हमारी,
प्राणो से प्यारी,
पवित्र उत्तराखंड भूमि.

कहता कवि "जिज्ञासु"
पहाड़, प्रेरणा के पहाड़ हैं,
मुसीबतों के नहीं,
जो देते हैं हमको,
नहीं मिल सकता है,
और कहीं.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
२४.८.२००९, दूरभास:9868795187

"अपणि संस्कृति त्यागिक"



तिबारि कू खम्ब तोड़ी,
वे पहाड़ से मुख मोड़ी,
लग्यां छौं हम बाट,
खोजणा छौं दूर देश मा,
बौळ्या की तरौं,
अपणी संस्कृति त्यागिक,
आयाश जिंदगी का ठाट.

लिप्सा भलि नि होन्दि,
साक्यौं पुराणी संस्कृति हमारी,
सबसी प्यारी छ,
करा मान सम्मान,
वीं धरती अर् पहाड़ कू,
ज्व जन्मभूमि हमारी छ.

परदेशी लोगु का दगड़ा,
जिंदगी जीणु आसान निछ,
अपणी संस्कृति छोड़ा,
बणि जावा मोळ माटु,
ऊंका दगड़ा,
लगदु यू ही छ.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
20.8.2009 दूरभास:9868795187

"गितांग का गीतुन"



गितांग दिदा का, गीतु सुणिक,
लगि मैकु कुत्ग्याळि,
याद आई मैकु, मेरा मुल्क की,
जाण छ मैं सोच्यालि.......

बिराणा मुल्क, सदानी रन्दिन,
सब्बि धाणी की स्याणी,
बांज बुरांश की, डाळी नि छन,
छोया ढ़ुंग्यौं की पाणी......

घौर बिटि चिठ्ठी, अयिं छ ब्वै की,
कैन हौळ लगाण,
ऐजा बेटा तू, घौर बोड़िक,
मेरु खुदयुं छ पराण.......

ब्यो करि त्वैकु, ब्वारि भि ल्हयौं,
भागिगी बौग मारिक
अब सोचणु छौं, क्या पाई मैन,
त्वै नौना पाळिक......

गितांग दिदा का, गीतु मा छन,
बानी बानी की गाणी,
कुत्ग्याळि सी, लगणी छ मन मा,
आज कू सच बताणी....

गितांग दिदा का गीतु सुणिक,
लगि मैकु कुत्ग्याळि,
मन मा ऊमाळ, ऐगि मेरा,
जाण  छ मैन सोच्यालि....


Copyright@Jagmohan Singh Jayara"Zigyansu"......6.9.09
E-Mail: j_jayara@yahoo.com, (M)9868795187

"गैरसैण..गैरसैण"



 
बैरा नि छौं सुण्यालि,
दीक्षित साबन देखा,
कनु बुरु करयालि,
आँख्यौं मा.. ऊंका भी,
लोण मर्च धोळ्यालि,
गैरसैण कतै ना,
यनु भी देखा..बोल्यालि.

चर्चा होंणि धार खाळ,
मन मा औणा छन ऊमाळ,
उत्तराखंड की राजधानी,
गैरसैण..गैरसैण...
छबीला गढ़वाल अर्,
रंगीला कुमाऊँ मा,
यनु बोन्ना छन लोग,
उत्तराखंड की राजधानी,
गैरसैण..गैरसैण...

Copyright@Jagmohan Singh Jayara"Zigyansu"......4.9.09
E-Mail: j_jayara@yahoo.com, (M)9868795187

"कंडाळी-सिस्यूण"

कंडाळी प्यारा पहाड़ मा प्रसिद्ध छ.  कंडाळी कू त्यौहार भी होन्दु छ पहाड़ मा.  कंडाळी कू साग....जू नि खै सकलु...यनु बिंगा...नि छन वैका बड़ा भाग... वीर भड़ुन...हमारा पित्रुन भी खाई छकिक......भूत भौत डरदु छ कंडाळी देखिक....
 
प्यारा उत्तराखंड मा, झर-झरी कंडाळी की डाळी,
गौं का न्यौड़ु पुन्गड़ौं मा, होन्दि छ झपन्याळी.

वीर भड़ुन भी खाई, झंगोरा मा राळि-राळि.
भूत भगौण मा काम औन्दि, झर-झरी कंडाळी.

ब्वै बाब डरौंदा दिखैक, छोरों तैं झर-झरी कंडाळी,
ऊछाद नि कन्नु मेरा बेटा, देख त्वैन बिंग्याली.

कथगा सवादि होन्दु छ,  झर-झरी कंडाळी कू साग,
खालु क्वी भग्यान छकिक, जैका होला बड़ा भाग.

पित्रुन खाई काफलु बणैक, आस औलाद भी पाळी,
उत्तराखंडी भै बन्धु, बड़ा काम की चीज छ कंडाळी.

झूठा अर् चोर मन्खि फर, जब लगौन्दा छन कंडाळी,
वैका मुख सी छूटि जान्दु सच, देन्दु सारा राज ऊबाळी.

जुग-जुग राजि रै पहाड़ मा, बड़ा काम की हे कंडाळी,
फलि फूली प्यारा पहाड़, सदानि रै हरी भरी झपन्याळी.
     

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
निवास: संगम विहार, नई दिल्ली
16.9.2009, दूरभास:9868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com 
 

"उत्तराखंडी कवि सम्मलेन"

क बार कखि उत्तराखंडी कवि सम्मलेन कू आयोजन ह्वै.  आयोजनकर्ताओंन विषय रखि "पर्वतीय नारी"...सब्बि कव्यौन  सोचि...अपणी धर्मपत्नी भि त पर्वतीय नारी छ, किलै न ऊंका बारा मा ही कविता बोले जौ हास्य रूप मा.


एक कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
ब्याळि वींन मै फर,
स्यूं सग्त,
कर्छुलै की मारी,
खाँदा छैं त खैल्या,
निखाणि होलि तुमारी,
मैकु होयुं छ मुन्डारु,
आज अति भारी.

दूसरा  कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
भग्यान छ भारी,
छोड़दि निछ डिसाणि,
ज्व छ वींकी लाचारी,
कब बणाला चाय मैकु,
करदी छ इंतजारी,
बात माणा जू,
रन्दि खुश भारी.

तीसरा कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
मिजाज वींका भारी,
वींकी नजर मा,
फुन्ड धोल्युं छौं मैं,
ज्व छ मेरी लाचारी,
कैमा नि बोल्यन,
कन्डाळिन भि,
सपोड़्यु छौं.

चौथा कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
वीं सनै पसन्द छ,
आलु कू थिन्च्वाणि,
हमारा घौर आऊ क्वी,
नि पिलौण्यां पाणी,
द्वी रोठी ज्यादा खौलु,
मन मा रन्दि,
भारी कणताणी.

पांचवां कवि:

हमारी पर्वतीय नारी,
क्या बोन्न,
प्रचंड वीन्कु रूप छ,
हाथ ध्वैक भूक छ
सैडा गौं का लोखु तैं,
वींकी भारी डौर छ,
मैन क्या बोन्न,
बिराळु बण्युं,
नर्क अपन्णु घौर छ.

(सर्वाधिकार सुरक्षित,उद्धरण, प्रकाशन के लिए कवि,लेखक की अनुमति लेना वांछनीय है)
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासू"
ग्राम: बागी नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल-२४९१२२
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17.9.२००९, दूरभास:9868795187
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

मलेेथा की कूल