Tuesday, December 28, 2010

"अलविदा-२०१०"

कहते हैं अब हम ,
पूरा हो रहा काल,
इंतज़ार है सबको,
आएगा नयाँ साल.

कामना है मन में,
प्यार का पैगाम लाएगा,
साल-२०१० यादें अपनी,
छोड़कर चला जाएगा.

जनकवि "गिर्दा" जी का जाना,
उत्तराखंड साहित्य जगत में,
मायूसी का छा जाना,
बसगाळ-२०१० का,
देवभूमि उत्तराखंड में,
अपना रौद्र रूप दिखना,
पर्वतजनों को सताना,
इस रूप में याद रहेगा,
लेकिन! "अलविदा-२०१०".

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: २८.१२.२०१०
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Thursday, December 23, 2010

"जुन्याळि रात की बात"

कथाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"


बचपन की बात छ, उबरि रात मा दादी जी का दगड़ा, रात मा सेण कू मजा कुछ हौर ही होन्दु थौ. नाती नतणा ओर-पोर अर प्यारी दादी जी बीच मा. बचपन मा जब पीठि मा खाज ऊठ्दि थै त दादी जी कु बोल्दा था, दादी-दादी जरा खाज कन्येदि. दादी बड़ा प्यार सी सब्बि नाती नतणौ की पीठी की खाज कन्यौन्दि थै. दादी जी जब अपणा हाथन खाज कन्यौन्दु- कन्यौन्दु तंग ह्वैगि त ऊँका मन मा एक बात आई. दादी जी एक मुंगरी कू मुंगरेठु अपणा दगड़ा रखण लगि, जनि सब्बि नाती नतणौ की पीठी मा खाज ऊठदि त मुंगरेठान प्यारी दादी जी सब्यौं की खाज कन्यौन्दि थै. ह्युन्द का मैना दादी जी सी कथा सुणदा अर कथा सुणदु-सुणदु से जाँदा था. सुबेर जब बिज्दा त ख्याल औन्दु थौ कि ब्याळि ब्याखना दादी जी की कथा पूरी नि सुणि, फेर हैक्का दिन रात मा दादी जी की कथा, जथगा रै जान्दि थै सुणदा था. आज बग्त बद्लिगी, दादी की कथा अब क्वी नि सुणदु. लोग टेलीविजन देखदा छन, जू वेमा दिखेंदु छ, देखदा छन. आज आपस मा संवाद हीनता पैदा ह्वैगि, पर स्वर्गवासी दादी जी का मुख सी सुणि रोचक कथा अजौं तक मन मा कालजयी ह्वैक बसिं छन.

ह्युंद पूस का मैना कि बात छ, ऊँचि डाँडी-काँठ्यौं मा ह्यूँ पड़्युं थौ अर ठँड का मारा कंपकंपी छुटण लगिं थै. रात मा जब सब्बि नाती-नतणा दादी जी का ओर पोर सेण पड़्यन, दादी जी कू सब्यौन बोलि, दादी-दादी आज एक भूतू की कथा सुणैदि. नाती नतणौ कि फर्मेश फर दादीजिन कथा सुणौणु शुरू करि अर सब्बि टक्क लगैक सुण्न लग्यन. असूज का मैना "जुन्याळि रात की बात" छ, धाण काज की भारी राड़ धाड़ होयिं थै. उबरि लोग सुबेर राति ऊठिक पुंगड़ौं चलि जान्दा था अर काम कन्न मा बिळम्यां रन्दा था. एक दिन रात मा हम जनु ही सेण पड़्यौं, झट सी हम तैं निंद ऐगी. तुमारा दादा जी, वीं रात कू थोड़ी देर ही स्ये होला, अचाणचक्क उंकी निंद टूटिगी. उबरी आज की तरौं घड़ी नि होन्दि थै, पता कनुकै लगण थौ रात कथगा ह्वैगी. तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे भाई! खड़ु उठ साट्टी मांडण जौला", मैन भी समझि, रात खुन्न वाळि होलि. तुमारा दादा जी अर मैं झट-पट्ट लाठी, सुप्पू, मांदरी लीक बर्ताखुण्ड की सारी गौं का ऐंच साट्टी मांडण चलिग्यौं. जुन्याळि रात का ऊजाळा मा दूर-दूर तक दिख्दा डाँडा शांत अर सेयाँ सी लगण लग्याँ था. हम्न बर्ताखुन्ड की सारी पौन्छिक पैलि पुंगड़ा मा मांदरी बिछाई अर कोंड्गा बिटि साट्टी निकाळिक मंड्वार्त कन्न लग्यौं. तुमारा दादा जी "स्वर्ग तारा जुन्याळि रात" गीत गुण-मुण अफुमा गुमणाण लग्याँ था.

मंड्वार्त करदु-करदु कुछ देर ह्वै होलि, तुमारा दादा जी की नजर दूर बाटा फर पड़ि. बाटा फुन्ड भूतू की बारात लंगट्यार लगैक गाजा-बाजौं समेत औणि थै. ऊ भूत गीत लगान्दु-लगान्दु गाजा-बाजौं समेत हाथ मा जगदा राँका अर काँधी मा एक पालिंग लीक औण लग्याँ था. तुमारा ददाजिन मैकु सरक मा बोलि, "हे देख! भूतू की बारात औणि छ". मैं त डौर का मारा कौंपण लग्यौं. तुमारा दादाजिन बोलि, "चल हे! कोंड्गा पेट लुकि जौला फटाफट्ट". तुमारा दादाजी अर मैं फटाफट्ट कोंड्गा का पेट लुकिग्यौं अर भूतू की चाल देखण लग्यौं. मेरा ज्युकड़ा मा धक्कदयाट होण लगि अर बदन मा कंपनारू छुटिगी. दादी जी की यथगा कथा सुणिक सब्बि नाती नतणा ढिक्याण का पेट डन्न लगिन.

कुछ देर बाद सब्बि भूत पालिंग भ्वीं मा धरिक नजिक ही एक पुंगड़ा मा अपणा सरदार का ओर पोर बैठिग्यन. हम डौर का मारा हबरी कौम्पण लग्यौं अर कोंडगा पेट न्यूँ च्यूँ ह्वैग्यौं. तुमारा दादा जी सरक मा बोन्न बैठ्यन "आज कुजाणि क्या ह्वै मेरी मति मा", "जू मेरी निंद टूटिगी अर त्वै सने भी परेशान कर दिनि". "रात अजौं भौत छ", "यनु छ मैकु लगणु पर क्वी बात निछ", "देख आज तू भि भूतू कू तामाशु ". कुछ भूत-भूतणि झुंगटा मारिक गीत लगौण लगिन, कुछ ऊचड़ी ऊचड़िक कौंताळ मचौण लग्यन. कथगा प्यारा गीत था ऊ लगौणा, क्या बोन्न. कुछ भूत चुल्ला लगै अर जगैक भाडौं फर खाणौं बणौण लग्यन. भूतू कू सरदार बीच मा बैठिक ह्वक्का पेण लग्युं थौ अर हबरि कुछ बोन्न लग्युं थौ.

सब्बि नाती-नतणौन दादी जी सी पूछि, दादी-दादी फेर क्या ह्वै अगनै? ददिजिन बताई, अरे! मेरा नाती-नतणौ क्या बोन्न, जब भूतू कू नाच ख़त्म ह्वे, ऊ सब्बि गोळ घेरा बणैक बैठिग्यन. खाणौं बणौण वाळौंन अपणा हाथुन खाणौं का हार लगैन. भूतू का सरदारन द्वी भूत बुलैन अर हम जथैं शान करिक कुछ बोलि. हमारी त दशा ख़राब ह्वैगि, हम्न सोचि आज हमारू काल ऐगी, ऊ भूतू कू सरदार हम जथैं किलै छ शान कन्नु? थोड़ी देर मा द्वी भूत हाथु मा द्वी हार लीक हमारी तरफ औण लग्यन. तुमारा दादाजिन मैकु बोलि, "हे आँखा बन्द कर, ऊ हमारी तरफ छन औणा". हम्न अपणा आँखा बन्द कर्यन पर थोड़ी देर जब ह्वैगि त हम्न देखि, द्वी भूत वापस चलिगे था. रात मा दूर धार ऐंच रतबेणु औण ही वाळु थौ, खाणौं खाण का बाद भूतू की बारात पैटि अर गाजा-बजा बजौंदु जै बाटा बिटि ऐ थै वापिस लौटिगी. थोड़ी देर बाद धार ऐंच रतबेणु चमकण लगिगि अर हम्न चैन की सांस लिनि. जब सुबेर ह्वै पोथला बासण लगिन अर हम्न पुंगड़ा मा देखि, द्वी हार भूत जू हमारा खातिर ल्हे था, ऊँ फर पिंगळी खिचड़ी रखिं थै, जै हेरिक हम हक्क-बक्क ह्वैग्यौं. हम्न सैडु कोंड्गु साट्यौं कू माण्डी अर फेर घौर अयौं. घौर पौन्छिक हम्न वीं "जुन्याळि रात की बात" अपणा घौर अर गौं-गौळा वाळौं तैं बताई. सब्बि लोग हमारी बात सुणिक हक्क-बक्क रैगिन. आज भी मेरा मन मा वा "जुन्याळि रात की बात" बसिं छ.


पता: ग्राम-बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी, टेहरी गढ़वाळ,उत्तराखंड.
पत्रव्यवहार: एफ.आई.सी.सी.,८वीं मंजिल, सेवा भवन, आर.के.पुरम, नई दिल्ली-६६.
दिनांक: २०.१२.२०१०
दूरभास: 09868795187
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, मेरा पहाड़ और यंग उत्तराखंड, चिठ्ठी-पत्री पत्रिका)
E-Mail: j_jayara@yahoo.com

Tuesday, December 21, 2010

"ब्वै बोन्नि छ"

सुण हे बेटा टक्क लगैक,
मेरा मन की बात,
ज्यु कन्नु छ आज मेरु,
खलैदि जरादूध भात...

तू छैं मेरा मन कू प्यारू,
ब्वारि देन्दि गाळी,
आज सोच्दु छौं मैं,
कनुकै मैंन तू पाळी.....

वे जमाना होन्दि थै बेटा,
मेरी भारी कुहालि,
टरकणि थै सब्बि धाणी की,
खान्दा था कौणी कडाँळी.....

बुढेन्दि बग्त बेटा,
कर तू मेरी सेवा,
होणि-खाणि भलि होलि,
मिलला त्वैकु मेवा.....

दरद्याळु होन्दु छ,
ब्वै कू पापी पराण,
मन सी सेवा करिं चैन्दि,
वींकू मन नि दुखौण......

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २१.१२.२०१०
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/board,3.0.html

Sunday, December 5, 2010

"पहाड़ की ऊँचाई"

प्रेरणा प्रदान करती है,
उसको लाँघ जाने की,
उससे ऊपर उठने की,
जो करते हैं प्रयास,
मन में कठिन डगर,
संकल्प अगर साथ हो,
मन में हो एक आस,
रंग लाता है प्रयास.

रही बात पार करने की,
सच में आसान नहीं होता,
जीवन के सच को,
सहज स्वीकार करना,
आसान नहीं होता.

जीत जाते हैं जीवन में जो,
उनके लिए "पहाड़ की ऊँचाई",
पार करके लाँघ जाना,
जीवन के सच को,
सहर्स स्वीकार कर जाना,
कठिन जीवन के भेद को,
बहादुरी से भेद जाना,
आसान लगता होगा,
जीवन में जीत जाने के बाद.
रचनाकर: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, दिनांक: ६.१२.२०१०)
श्रीमती मंजरी कैल्खुरा जी की रचना पर रचित मेरी रचना
"जिस तरह पहाड की ऊचाई को,
पार करना इतना आसान नहीं होता,
उसी तरह जीवन के सच को,
स्वीकार करना भी आसान नहीं होता"

Wednesday, December 1, 2010

"तेरी मुखड़ि"

बतौणि छ हाल तेरा दिल का,
कुजाणि क्या ह्वै होलु यन,
उखड़ीं-उखड़ी सी "तेरी मुखड़ि",
खोयुं-खोयुं सी तेरु मन....

क्या त्वैकु कैन कुछ बोलि?
खोल दी अपणा मन की गेड़,
घमटैयुं सी भलु नि होन्दु,
जिंदगी मा ढेस अर बेड़....

बकळि ज्युकड़ि भलि निछ,
बतौ अपणा मन की बात,
कुछ त बोल चुप किलै?
होलु कुछ तेरा मेरा हाथ....

बात यनि कुछ भि निछ,
कुजाणि मन मेरु किलै ख्वै,
मुखड़ि मेरी उखड़िं-उखड़िं,
आज उदास क्यौकु ह्वै.....

मुखड़ि बतौंन्दि छ,
सच मा मन का हाल,
चा पोंछ्युं हो दूर कखि,
जख प्यारू कुमौं-गढ़वाल.

कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "ज़िज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित- "तेरी मुखड़ि" १२.५.२०१०)
(मेरा पहाड़ और यंग उत्तराखण्ड पर प्रकाशित) ReplyQuoteNotify

मलेेथा की कूल