Wednesday, December 28, 2011

(बाग,रीक्क, बांदर अर सुंगर)

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु)
हे राम! क्या बोन्न तब?
आज हमारा उत्तराखंड मा,
यूंकू राज होयुं छ.....

बाग कुजाणि घर बण फुंड,
क्यौकु डुक्कन्न लग्यां छन,
खौंबाग भी होयां छन,
गौं फुंड जू मनखि रयां छन,
डन्न लग्युं छ ऊंकू मन....

कूड़ा की पठाळ,
बांदर हलकौणा छन,
चौक मा लगिं चचेंन्डी,
काखड़ी,मुंगरी दनकौणा छन...

रीक्क बण बूट मा,
मनख्यौं बग्दौणा छन,
हॉस्पिटल मा लोग तब,
इलाज का खातिर औणा छन.....

सुंगर आबाद अर बांजा पुंगडौं,
लोट पोट ह्वैक, उत्पात कन्ना छन,
क्या बोण, क्या लौण फसल पात?
बल हताश होयां छन,
नेतौं की बात क्या बोन्न,
ऊ बिना बोयां लौण लग्यां छन....
(सर्वाधिकार सुरक्षित अवं प्रकाशित २९.१२.२०११)
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"पहाड़ की पोथली"

जू करदि छन चुंच्याट,
दिन भर डाळ्यौं मा बैठिक,
फुर्र यथैं वथैं उड़ी उड़िक,
जान्दी छन झपन्याळि डाळ्यौं मा,
जन भीमळ, खड़ीक, बांज, बुरांश की,
अर पैदा करदि छन,
चुंच्याट मचैक मनभावन,
कर्ण प्रिय गीत संगीत.......

पहाड़ की की प्यारी घुघती,
जब घुरान्दी छ,
तब खुदेड़ भौत खुदेन्दा छन,
पोथली अर इंसान कू रिश्ता,
कथगा मार्मिक छ,
पोथल्यौं का प्रति प्रेम करा,
दगड़्या छन हमारी,
"पहाड़ की पोथली"......
रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २८.१२.२०११
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Tuesday, December 27, 2011

"ढाक के वही तीन पात"

सोचा था ऊजाला होगा,
खुशहाल होंगे खेत खलिहान,
जन्म हुआ था उत्तराखंड का,
मन में था बहुत अभिमान...

आबाद नहीं बेघर हुए,
पहाड़ के लिए आज भी रात,
गावों में ख़ामोशी पसरी,
जैसी थी वैसी है बात.....

पर्वतजन मनन करो,
हमारे उत्तराखंड में अब चुनाव,
वक्त है सतर्क हो जाओ,
मूछों पर अब दे दो ताव.....

बकरी नहीं बाघ बनो,
ढंग से करो प्रतिनिधि का चुनाव,
जो सपने साकार करे,
फिर न हो, मन में पछताव.....

कवि "जिज्ञासु" दुविधा में,
देखो बहुत दुःख की बात,
पहाड़ आज खाली हो गया,
पर्वतजन है खाली हाथ,
निराश है देवभूमि भी,
उत्तराखंड बनाने के बाद,
ढाक के वही तीन पात....

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: बागी-नौसा, पट्टी-चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७.१२.२०११)

Monday, December 26, 2011

पराणु सी प्यारू पहाड़

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
हमर पहाड़, म्यर पहाड़,
हमारू पहाड़, मेरु पहाड़,
देवतौं कू प्यारू पहाड़,
ब्वै बाबू कू प्यारू पहाड़,
मन मा बस्युं प्यारू पहाड़,
पर्वतजन कू प्यारू पहाड़,
दुनिया मा न्यारू पहाड़,
जू भी बोला,
पराणु सी प्यारू पहाड़...
देवतौं कू वास जख,
बद्री-केदार जख,
शिवजी कू कैलाश जख,
गंगा माँ कू, नन्दा माँ कू,
प्यारू छ मैत जख,
मुल हैंस्दु बुरांश जख,
हिंवाळि कांठ्यौं तैं हेरी,
गर्व होन्दु छ मन मा,
जन्म-भूमि ज्व छ मेरी,
पराणु सी प्यारू पहाड़...पहाड़ का रंग प्यारा,
पय्याँ,फ्योंली अर बुरांश,
दिख्दा छन जख न्यारा,
बांज, बुरांश, देवदार, कैल,
कुळैं की डाळी कू छैल,
जख धोंदी गंगा माँ,
मनख्यौं का तन मन कू मैल,
सदानि जुगराजि रान,
पराणु सी प्यारू पहाड़...(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २७.१२.२०११)
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Friday, December 23, 2011

"चिठ्ठी वींका नौं"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मैं यख राजि ख़ुशी छौं,
तू तख होलि,
मेरा नौना नौनी का दगड़ा,
यानि प्यारा बाल बच्चों दगड़ि...

तू लिखणी छैं, सैडा गौं की ब्वारी,
बाल बच्चों समेत प्रदेश चलिग्यन,
गौं छोड़िक, अपणा ऊं दगड़ि,
अबरी दां जब मैं घौर औलु,
त्वे भी ल्ह्यौलु अपणा दगड़ा,
तू जग्वाळ मा रै, निराश न ह्वै....

प्यारी ब्वै कू क्या होलु?
ब्वैन त बोन्न,
मैं नि औन्दु तुमारा दगड़ा,
मेरु त ज्यू नि लगदु,
परदेश मा, भक्कु भी भौत लगदु,
अपणा ज्युन्दा ज्यू,
नि छोड़ी सकदु घर बार,
प्यारू मुल्क, प्यारा मैत जनु....

तू निराश न ह्वै, जग्वाळ मा रै,
मेरु भी मन नि लगदु यख,
अब घर गौं त छोडण ही पड़लु,
या बग्त की बात छ......
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.१२.२०११)
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Tuesday, December 20, 2011

"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज"

(जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
मेरु बचपन कू एक दगड्या,
अपणा प्यारा मुल्क पहाड़ मा,
चन्द्रबदनी मंदिर का मेळा मा,
ऊँचि धार ऐंच मैकु मिलि.

ऊ अर मैं,
शहर की जिंदगी सी दूर,
बेखबर खड़ा था होयां था,
ओडा का डांडा बिटि,
ठण्डु बथौं फर फर औणु थौ,
कखि दूर हैन्स्दु हिमालय,
दूध जनु सफ़ेद अर प्यारू,
बांज बुरांश कू मुल्क हमारू,
हमारा मन मा ऊलार पैदा कन्नु थौ.

बचपन की छ्वीं बात लगिन,
कख कख छन दगड्या प्यारा,
घर अर परिवार की बात,
कुतग्याळि सी लग्यन मन मा,
बित्याँ दिनु की बात याद करिक,
समय कू पता नि लगि,
कथगा देर बैठ्याँ रैग्यौं,
समय सामणि खड़ु थौ,
वैन बोलि, जवा अब घौर जवा,
मिन्न कू अब बगत ख़त्म ह्वैगी,
दगड्या अर मैं अपणा बाटा हिट्यौं,
हमारा मुख सी छुटि,
"कथगा दिनु मा मिल्यौं आज".
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २१.१२.२०११)
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http://jagmohansinghjayarajigyansu.blogspot.com/

Monday, December 19, 2011

"कथगा खैल्यु"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
भिन्डी त नि बोल्दौं मैं,
पर जथगा मेरा भाग मा होलु,
राळी राळिक अपणा हाथन,
बड़ा बड़ा गफ्फा मारिक,
अर सपोड़िक जरूर खौलु,
तुमारु नि खौलु, कैकु नि खौलु,
अपणा हाथुन मेहनत की खौलु...

पूछा वे सनै, जू फ़ोकट की,
लूट औताळि की, बिराणी पीठी मा,
सदानि खांदु, बेदर्द ह्वैक,
पिचास की तरौं, मनखि ह्वैक भी,
तब्बित पूछि नेगीदान,
अपणा गढ़वाली गीत का द्वारा,
हे तू "कथगा खैल्यु" हराम की,
चुचा मेहनत की खा.
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २०.१२.११)
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Sunday, December 18, 2011

"वीं भग्यानन कुछ नि बोलि"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
जिंदगी मा, मैन जू भि करि,
दारू पीक दरोळु बण्यौं,
गौं की गुजारी मा, पड़्युं रयौं,
खै पीक बेहोश होयौं,
जनकैक छोरा छारा, घौर ल्हेन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....

वींमा मैन झूट भि बोलि,
दुनियान मैकु झूट्टू बोलि,
पर अपणा मन की गेड़,
मैन वींमा कब्बि नि खोलि,
क्या बोन्न हे दुनिया वाळौं,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....

सारी जिंदगी वींका दगड़ा बिताई,
पर वींकू ख्याल कम ही आई,
जिंदगी भर दुनिया देखि,
वींका हाल फर मैकु,
तरस कब्बि नि आई,
खूब सेवा करि वींन मेरी,
क्या बोन्न कर्म मेरा यना रैन,
पर वीं भग्यानन कुछ नि बोलि.....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १९.१२.२०११)
www.pahariforum.net

Wednesday, December 14, 2011

"कविमन की बात"

आज भी याद है मुझे,
वो दिन,
जब ढोल दमौं बजा,
मुश्क्या बाजा भी,
पौणौ की लंगट्यार लगी,
बारात सजी,
और दूल्हा बनकर,
पालकी में बैठा,
क्या तुम्हे भी याद आती है,
अपनी शादी की?
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११

जब नहीं मिलेंगे सन्देश मेरे,
समझना दाल में कुछ काला है,
मेरे बाद आपको,
कौन कुछ बताने वाला है,
मन में तमन्ना है,
जब तक आपके बीच रहेंगे,
कविमन से कुछ तो कहेंगे,
पहाड़ और पहाड़ की संस्कृति पर,
प्यारी गढ़वाली कविताओं के द्वारा,
चाहत है कविमन में मेरी,
आपकी दुआएं मिलती रहें...
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११
E-mail: j_jayara@yahoo.com

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)

क्यों किया था प्यार आपने,
फिर कैसे जुदा हो गये,
इंतज़ार आज भी है मुझे,
कब मिलोगे आप,
इस धरा से जाने से पहले.
(जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु, 13.12.11)

क्या बोन्न बात उत्तराखंड का ढोल की,
वैका प्यारा बोल की,
जुग राजी रै, तू सदानि,
मेरा कविमन की कामना छ....
उत्तराखंडी भाई बंधो...
ढोल कू त्रिस्कार न करा,
ब्यो बारात मा,
ढोल की शान बढ़ावा.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाडा "जिज्ञासु" 12.11011

"कविमन की बात"

आज भी याद है मुझे,
वो दिन,
जब ढोल दमौं बजा,
मुश्क्या बाजा भी,
पौणौ की लंगट्यार लगी,
बारात सजी,
और दूल्हा बनकर,
पालकी में बैठा,
क्या तुम्हे भी याद आती है,
अपनी शादी की?
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११

जब नहीं मिलेंगे सन्देश मेरे,
समझना दाल में कुछ काला है,
मेरे बाद आपको,
कौन कुछ बताने वाला है,
मन में तमन्ना है,
जब तक आपके बीच रहेंगे,
कविमन से कुछ तो कहेंगे,
पहाड़ और पहाड़ की संस्कृति पर,
प्यारी गढ़वाली कविताओं के द्वारा,
चाहत है कविमन में मेरी,
आपकी दुआएं मिलती रहें...
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
१४.१२.२०११
E-mail: j_jayara@yahoo.com

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)

क्यों किया था प्यार आपने,
फिर कैसे जुदा हो गये,
इंतज़ार आज भी है मुझे,
कब मिलोगे आप,
इस धरा से जाने से पहले.
(जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु, 13.12.11)

क्या बोन्न बात उत्तराखंड का ढोल की,
वैका प्यारा बोल की,
जुग राजी रै, तू सदानि,
मेरा कविमन की कामना छ....
उत्तराखंडी भाई बंधो...
ढोल कू त्रिस्कार न करा,
ब्यो बारात मा,
ढोल की शान बढ़ावा.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाडा "जिज्ञासु" 12.11011

Monday, December 12, 2011

"दस्तक"

(रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" )
मैं छान का भितर,
सेयुं थौ फंसोरिक,
कै दगड़्यान दस्तक दिनि,
हे चुचा, क्या छैं तू आज सेयुं,
भैर देख घाम ऐगी, ऊजाळु ह्वैगी,
बौग न मार, मेरु बोल्युं सुण,
अपणा मन मा गुण,
भोळ न बोलि मैकु,
बग्त की कदर कर,
फिर बौड़िक नि आलु,
त्वैन भौत पछ्ताण,
फंसोरिक न स्यो,
मैं "दस्तक" देणु छौं आज....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १३.१२.२०११)
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"हे! हम बौळ्या नि छौं"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हात जोड़ै छ आपसी, प्यारा उत्तराखंडी भै बंधो,
तुम यनु नि सोच्यन, हम बौळ्या छौं.....

अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
हमारा प्यारा गितांग भैजिन,
वे प्यारा उत्तराखंड की शुर्मा,
द्वी गति बैशाख मेळा मा बुलाई,
कुतग्याळि लगौण वाळा गीत लगैक,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
अपणि प्यारी बोली भाषा कू प्रेम जगाई...

हमारू भि प्रयास यु हिछ,
वे प्यारा उत्तराखंड कू मान बढौला,
आज आयां छौं हम यख,
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
भलि भलि छ्वीं बात लगौला,
जब जब जौला मुल्क अपणा,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
घर्या घ्यू अर कंडाळि खौला.....

मान सम्मान बोली भाषा कू,
प्यारा पहाड़ की संस्कृति कू,
आवा मिलि बैठिक आज,
बिंगला अर बिंगौला.......

मुल्क हमारू कथगा प्यारू,
जख फ्योंली, बुरांश, आरू, घिंगारू,
हमारा तुमारा मन मा बस्युं,
क्या बतौण कथगा प्यारू......

हात जोड़ै छ आपसी,
क्या बतौण कवि मन छ हमारू,
यी मन का ऊमाळ कवि "जिज्ञासु" का,
तुम यनु न सोच्यन, यू बौळ्या छ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १०.११.११ को रचित)
फरीदाबाद मा "अन्ज्वाळ" द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन का खातिर रचिं या मेरी कविता जैन्कू पठन दिनांक ११.१२.११ कू मैन मंच फर मौजूद श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी, श्री हीरा सिंह राणा जी, गणेश खुगशाल "गाणि" जी, डा. मनोज उप्रेती जी अर अन्य कवि मित्रों का समक्ष करि.
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"हे! हम बौळ्या नि छौं"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
हात जोड़ै छ आपसी, प्यारा उत्तराखंडी भै बंधो,
तुम यनु नि सोच्यन, हम बौळ्या छौं.....

अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
हमारा प्यारा गितांग भैजिन,
वे प्यारा उत्तराखंड की शुर्मा,
द्वी गति बैशाख मेळा मा बुलाई,
कुतग्याळि लगौण वाळा गीत लगैक,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
अपणि प्यारी बोली भाषा कू प्रेम जगाई...

हमारू भि प्रयास यु हिछ,
वे प्यारा उत्तराखंड कू मान बढौला,
आज आयां छौं हम यख,
अपणि प्यारी बोली भाषा मा,
भलि भलि छ्वीं बात लगौला,
जब जब जौला मुल्क अपणा,
कोदा की रोठ्ठी का दगड़ा,
घर्या घ्यू अर कंडाळि खौला.....

मान सम्मान बोली भाषा कू,
प्यारा पहाड़ की संस्कृति कू,
आवा मिलि बैठिक आज,
बिंगला अर बिंगौला.......

मुल्क हमारू कथगा प्यारू,
जख फ्योंली, बुरांश, आरू, घिंगारू,
हमारा तुमारा मन मा बस्युं,
क्या बतौण कथगा प्यारू......

हात जोड़ै छ आपसी,
क्या बतौण कवि मन छ हमारू,
यी मन का ऊमाळ कवि "जिज्ञासु" का,
तुम यनु न सोच्यन, यू बौळ्या छ....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित १०.११.११ को रचित)
फरीदाबाद मा "अन्ज्वाळ" द्वारा आयोजित कवि सम्मलेन का खातिर रचिं या मेरी कविता जैन्कू पठन दिनांक ११.१२.११ कू मैन मंच फर मौजूद श्री नरेंद्र सिंह नेगी जी, श्री हीरा सिंह राणा जी, गणेश खुगशाल "गाणि" जी, डा. मनोज उप्रेती जी अर अन्य कवि मित्रों का समक्ष करि.

Thursday, December 8, 2011

"तौं डाँड्यौं का पोर"

(रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
रौंत्याळु मुल्क छ, बल हे! हमारू,
जख गौं का न्यौड़ु, पाणी कू धारू,
देव्तौं का मंडुला, हरीं भरीं रौंत्याळि सार,
बण बूट प्यारा, रंगीला त्यौहार,
ज्यू करदु झट्ट चला, अपणा प्यारा मुल्क,
जख फुन्ड घुघति, दनकदि सुरक सुरक,
प्यारा बुरांश फ्योंलि कू, जू छ बल मुल्क,
डांडा, धार, गाड, गदना, जख पुंगड़ा प्यारा,
बांज, देवदार, कैल, रंसुळा, बगवान न्यारा,
शिवजी कू कैलास, पार्वती जी कू मैत,
देव्तौं की भूमि, कनु भाग हमारू,
जन्म भूमि छ हमारी तुमारी,
कवि "जिज्ञासु" की "तौं डाँड्यौं का पोर"...
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाश्ति)
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Wednesday, December 7, 2011

"माटु छ मनखि"

(रचनाकार:जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु")
जरा मन मा सोचा,
क्या सच छ?
फिर किलै अपणा मन मा,
हम तुम यनु नि सोच्दा,
एक दिन यनु आलु, जब हम तुम,
माटा मा मिलिक, माटु बणि जौला,
कुजाणि फिर यीं धरती मा,
कब माटा कू मनखि बणिक,
पुनर्जन्म धरिक औला...

सच जू भि छ मनखि कू,
पर जन्म-भूमि बोली भाषा कू,
ब्वे-बाब, नाता रिश्तों कू,
संस्कृति कू मान सम्मान करा,
अभिमान अपणा मन मा,
जिंदगी मा भला काम फर करा,
याद रखा "माटु छ मनखि".....
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित ८.११.२०११ )
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मलेेथा की कूल