Thursday, September 27, 2012

निराला उत्तराखण्ड


दिखलाता है झलक हमें,
जैसे दर्पण में है दिखता,
कवि अपनी जन्मभूमि का,
वर्णन कविता में है लिखता,
स्वर्ग से सुन्दर जन्मभूमि,
कहते जिसे केदारखण्ड,
श्रद्धाजंलि उन शहीदों को,
दिलवाया हमें उत्तराखण्ड.....

हर पहाड़ के शिखर पर,
जहाँ हँसते हैं लाल बुरांश,
वृक्षों पर चहकते पंछी,
गीत गाते घुघती हिल्वांस,
हँसता हुआ हिमालय है,
उसके दिल से निकलती,
पवित्र सदानीरा नदियाँ
अलकनन्दा, भागीरथी,
गंगा, यमुना ,
सागर को चूमने बह रही,
बीत गई कई सदियाँ....

देवताओं के धाम जहाँ,
गंगोत्री, यमनोत्री, बद्री-केदार,
फूलों से आच्छादित घाटियाँ,
बांज बुरांश वन सदाबहार,
पर्वत शिखरों पर झूमते,
कैल, चीड़ और देवदार,
पर्वतजन को पहाड़ पर,
गर्व होता है अपार......
वीर भड़ों की भूमि है,
मान बढाया उसका,
बड़े प्यार से चूमी है,
माधो सिंह भंडारी जी ने,
पहाड़ पर छेन्डा बनाकर,
पुत्र का दिया बलिदान,
कालजयी कूल बनाकर,
मलेथा को यौवन दिया,
उन महान वीर भड़ पर,
हर उत्तराखंडी को,
होता है आज अभिमान...

ऐसी जन्मभूमि तुम्हारी,
युगों युगों तक बताना,
जन्मभूमि को भूल न जाना,
हो सके तो मान बढ़ाना,
कला, साहित्य, संस्कृति की,
गीत, संगीत, प्रकृति की,
अतीत की झलक दिखलाना,
कामना कवि "जिज्ञासु" की,
पर्वतजन के सरोकारों के,
प्रिय समाचार पत्र,
"निराला उत्तराखण्ड",
उत्तराखण्ड निराला है,
पर्वतजन को राह दिखाना.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम:बागी-नौसा, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड.
दूरभाष: ०९६५४९७२३६६
27.9.2012

Wednesday, September 26, 2012

"पैसे पेड़ पर नहीं उगते"


बचपन में पिताजी ने,
एक बार कहा था,
पैसे पेड़ पर नहीं उगते,
तब मैं मासूम था,
कुछ समझ नहीं आया.....

विद्या अध्ययन के बाद,
जब मैं नौकरी करने लगा,
तब समझ में आया,
पैसे कमाने से उगते हैं,
पैसे पेड़ पर नहीं उगते,
ऐसा कोई जिम्मेदार कहे,
तो बात सच है......

वैसे कहते हैं,
ईमान बेच लो,
पैसा ही पैसा,
पर किस लिए?
दुनिया के अंतिम स्टेशन,
जाते समय,
क्या साथ जायेगा,
या साथ निभाएगा,
नहीं नहीं सिर्फ जीने तक,
पापी पेट के लिए,
बाद में कोई और खायेगा,
मौज उड़ाएगा....
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित एवं प्रकाशित,
२६.९.२०१२
 

Friday, September 21, 2012

"बचपन"



बसंत जैसा होता है,
हर इंसान की जिंदगी में,
जहाँ स्वछंद होता है इंसान,
कोई भेद भाव नहीं मन में,
चिंताओं का नहीं जहाँ स्थान...

माता पिता की गोद में,
खाना-पीना खूब हँसना,
फिर विद्यालय जाना,
अक्षर ज्ञान में मन लगाना,
रात्रि में दादा दादी जी से,
कथा कहानी सुनते हुए,
बेसुध हो सो जाना.....

माता पिता जी के संग,
कुदाली लेकर खेतों में जाना,
गाँव के जंगल में,
बेडु तिम्ला के पेड़ पर चढ़,
चाव से फल खाना,
हिमालय को निहारना,
साथियों के संग,
शरारत करने लग जाना,
खेल में इतना डूब जाना,
अरे! कहाँ था दिन भर,
फिर बहाना बनाना....

माता पिता की डाँट फटकार,
हद कर दी ज्यादा तो,
पहाड़ की कँडाली की मार,
खूब खा लेना दोस्तों के संग,
चुराकर नारंगी, काखड़ी, अखरोट,
देख लिया किसी ने तो,
भागते हुए लग जाती चोट...

संस्कार सीखना,
कौथिग देखने जाना ,
कभी जाना देव स्थान,
मन में अनुभूति होना,
यहाँ विराज रहे भगवान,
कौतुहल से निहारना,
जहाँ लग रहा मँडाण,
अवतरित हो रहे देवता,
ग्रामवासियों पर,
क्या हो रहा है,
जिससे बिलकुल अज्ञान...

जब आती थी ऋतु बसंत,
खिलते थे फूल पहाड़ पर,
फ्योंली और बुरांश के,
जिन्हें निहारते निहारते,
उनमें खो जाना,
आज अहसास होता है,
बसंत जैसा ही होता है,
पहाड़ पर बीता बचपन,
सच ही कहते हैं,
मासूम होता है "बचपन",
जो फिर लौटकर नहीं आता....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,

"शब्द दूत" साप्ताहिक समाचार पत्र द्वारा बचपन पर आमन्त्रित कविता(Published)
21.9.2012
 

Monday, September 17, 2012

"वो भयानक रात"


उत्तराखंड के ऊखीमठ,
जनपद रुद्रप्रयाग,
चुन्नी, मंगोली, बामण खोली,
किमाणा, गिरिया मनूसना गाँव,
जहाँ १३ सितम्बर-२०१२ को,
बरसात की अँधेरी रात में,
बेखबर सोये वहां के लोग,
जिन्हें कुछ पता नहीं था,
कुदरत आज कैसा कहर,
ढाने वाली है उन पर,
बेरहम बेदर्द होकर.......
 
विनाश लीला का तांडव हुआ,
आकाश से गिरते पनगोलों ने,
पैदा की एक भयंकर आवाज,
बह चला मलवा और पत्थर,
तबाही का सैलाब लेकर,
इन गांवों की तरफ,
लीलता हुआ इंसानों का जीवन,
जो जी रहे थे जिंदगी,
क्या होने वाला है,
उससे बेखबर,
जिंदगी से जंग करते हुए
सुन्दर सपने संजोये हुए.....

जो बच गए,
उस भयानक मंजर से,
घायल और त्रस्त होकर,
खौफ उन्हें अब भी,
सताता होगा,
शैतान की तरह,
कभी नहीं भूलेंगे,
प्रकृति के रौद्र रूप को......

जो देख रहे होंगे,
प्रकृति की विनाश लीला,
आ रहे होंगे,
दुःख का इजहार करने,
उन्हें दिख रहा होगा,
प्रभावित लोंगों की आँखों में,
जिंदगी कैसे जिएगें अब?
वो दुःखद वक्त तो गुजर गया,
लेकिन कभी नहीं भूल सकते,
"वो भयानक रात"......

Poet-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित ब्लॉग पर प्रकाशित
18.9.2012
 

Friday, September 14, 2012

  माँ तेरी याद औन्दि छ
 
जिंदगी का हर मोड़ फर,
तेरा बिगर आज,
अहसास होन्दु यकुलि छौं,
तेरु साया जबसि उठि,
सदानि मन उदास मेरु,
कना था ऊ बचपन का दिन,
तेरी खुग्ली मा पळि बढ्यौं,
तेरा स्वर्ग जाण का बाद,
मैकु अहसास होण लग्युं,
माँ बेटा कू पवित्र रिश्ता,
तन मन सी गहराई कू,
आज याद तेरी सतौन्दि छ,
माँ तेरी याद औन्दि छ....
 
मन मा बसिं मेरा आज,
तेरी कुछ बात छन,
जब जब औन्दि याद मैकु,
व्यथित होंदु कविमन,
बड़ा प्यार सी बचपन मा,
मुण्ड मा हाथ फलोसिक,
नह्वै धुवैक लत्ता कपड़ा,
मेरा बदन मा पैरैक,
अपणा हातुन करदि थै,
मेरा तन कू सृंगार,
मेरा खातिर अथाह प्यार,
माँ की ममता,
औलाद का खातिर,
सदा अनोखी होन्दि छ,
माँ तेरी याद औन्दि छ....
 
तेरा बिना आज यनु लगदु,
जन ह्वै जान्दु मनखि अनाथ,
जीवन मरण सदा सच छ,
पुनर्जन्म मा मिलु फेर साथ,
शत शत नमन, हे माँ त्वैकु,
"जिज्ञासु" का कविमन मा,
हर पल ऊभरदी तेरी तस्वीर,
अब पित्र छैं कृपा रखि,
अनुभूति यनि होन्दि छ,
माँ तेरी याद औन्दि छ....
प्यारी माँ को समर्पित स्वरचित रचना
-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्लॉग पर प्रकाशित
14.9.20012

Thursday, September 13, 2012

"कुछ लगावा छ्वीं"

प्यारा पहाड़ की,
रौंत्याळा पहाड़ की,
अपणि प्यारी जन्मभूमि,
देवतौं का देश की,
गंगा जी का  मैत की....
 
जख औन्दि जान्दी छन ऋतु,
ह्युंद, मौळ्यार, रूड़ी, बस्गाळ,
बण मा बाँदर, बाग़, रीक्क,
भौं कखि मारदा फाळ,
हमारा प्यारा कुमाऊं गढ़वाळ.....
 
जख धार ऐंच बगदु बथौं,
धौळ्यौं कू छाळु पाणी,
सर सर बग्दु जाणी,
रौंत्याळि मसूरी जख,
प्यारा पहाड़ की राणी,
हेरी हेरी खुश होंदु,
मनख्यौं कू मन पराणी.....
 
जख रीत छन रसाण  छन,
मनख्यौं का मयाळु  मन,
"कुछ लगावा छ्वीं",
वे पहाड़ की,
रौंत्याळा पहाड़ की,
अपणि प्यारी जन्मभूमि,
देवतौं का देश की,
गंगा जी का  मैत की....
रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित ब्लॉग पर प्रकाशित
13.9.2012

Tuesday, September 11, 2012

"पंछी छौं पहाड़ कू"

लखि बखि बण बिटि,
भारी दूर उड़िक,
जन पोथ्लु उड़ान्दु,
जै मुल्क पौंछिगि,
जन भी हो फेर,
वखि कू ह्वै जान्दु.....
 
पहाड़ कू मनखि भी,
वे पंछी की तरौं,
रोजगार का खातिर,
दूर चलि जान्दु,
जै सैर मा रंदु फेर,
सुखि दुखि जन भी हो,
परदेसी ह्वै जान्दु...
 
फेर भी वैका मन मा,
कवि "जिज्ञासु" की तरौं,
"पंछी छौं पहाड़ कू"
यनु भाव औन्दु,
प्यारा पहाड़ की याद,
प्रवास की पीड़ा,
सदानि झेळ्दु झेळ्दु,
मन अपणु बुथ्यौंदु.....
कवि की कल्पना: 
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
सर्वाधिकार सुरक्षित,
११.९.२०१२  

Friday, September 7, 2012

"भूत भट्याई"


एक दिन मैकु, हमारा गौं का न्यौड़ु,
धौण घुमाई पिछ्नै, देखि मैन एक घोड़ु.
क्या बोन्न हे दगड़्यौं, फेर त क्या थौ,
मेरी ज्युकड़ी, धक् धक् धक्क्द्याई,
पढण लग्यौं हनुमान चालीसा,
अगनै कदम बढाई.......

भूत भग्यान फेर मेरा अगनै,
स्याळ बणिक आई,
भारी डौर लगि तब मैकु,
निर्भागिन भारी खिंख्याट मचाई....

ज्युन्दा ज्यू मेरु, रांगु माटु बणिगी,
फेर एक चिलांगु सी भभताई,
क्या बोन्न हे दगड़्यौं,
वीं विपदा की घड़ी मा,
कुलदेवता मैन पुकारी,
तब  कठुड़ कू नरसिंग हमारू,
जोगी का भेष मा आई,
हाथ मा जौंका टेमरू कू लठ्ठा,
मैकु बात बताई,
ना डर तू हे मेरा भगत, 
मैं छौं तेरा दगड़ा,
भोळ चढै तू रोट प्रसाद,
मेरा मंडुला मू अैक,
बात बतै या तू,
अपणा घौर मू जैक.....

बात छ या  मेरा बचपन की,
आज भि याद छ औणि,
रात अँधेरी भौत थै वे दिन,
जब मैकु "भूत भट्याई".......
गढ़वाळि कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा(जिज्ञासु) 
7.9.2012

Monday, September 3, 2012

"यीं दुनियां कू सच"

लोभी होंदु छ मनखि,
लोभ का कारण,
भ्रम मा पड़िक,
डोळ्दु रंदु छ,
मैं कथगा खौं,
मेरु कथगा हो,
दुनियां मा सबसि ज्यादा.... 

अंत समय तक,
लग्युं रंदु वैकु मन,
जमीन जैजाद फर,
पैंसा टक्का फर,
लंगी संग्यौं फर,
जौँ सनै अपणु माण्दु..

जै दिन मनखि कू,
ज्यू पराण छुटि जान्दु,
तब लंगी संग्यौं कू,
ज्यु पराण भी,
लालच मा ऐ जान्दु,
अब त यु चलिगि,
काया छोड़िक,
तब देख्दा छन,
वैकु किस्सा टटोळिक,
कखि पैंसा टक्का,
त निछन रख्यां,
बदन मा क्वी,
सोना चाँदी की चीज....

मनखि का दगड़ा,
कुछ नि जान्दु,
जांदी छ भलाई बुराई,
क्या आपतैं,
यीं दुनियां कू सच,
समझ मा नि आई?
-जगमोहन सिंह जयाड़ा(जिज्ञासु)
सर्वाधिकार सुरक्षित
३.९.२०१२  
Bhishma Kukreti जयारा जी नराज नि हुंयाँ
आपन गढ़वाल प्रकृति पर भौत लेखी आल
अब समौ आई गे कि आप भौं विषयूँ पर बि कविता रचो
इन लगणु च आपकी कविता अब कखिम थमी सी गेन

मलेेथा की कूल