Wednesday, June 26, 2013

“बेजुबान पहाड़”

जो आह! तक नहीं करते,
जब इंसान उनको,
अपने स्‍वार्थ के लिए,
काटता है, सताता है,
उन पर घाव करता है...

ब्‍यापारी बनकर,
लालची इंसान,
पहाड़ के संसाधनों का,
निर्ममता से दोहन,
लालच के वश हो,
अंधा बनकर करता है...

जबकि प्रकृति,
इंसान की जरुरत,
पूरी करती है,
कौन करेगा,
उसकी रक्षा?
और श्रृंगार,
पहाड़ को उसने,
खूबसूरत बनाया है,
हमें भी खूबसूरत,
इतने लगते हैं,
हर कोई जाता है,
उनके पास,
होता है फिर,
सुखद अहसास....

कुछ नहीं कहते,
बेजुबान पहाड़,
लेकिन! उनका गुस्‍सा,
सबने देखा,
प्रलय के रुप में,
देवभूमि उत्‍तराखण्‍ड की,
पावन धरती पर,
जहां विराजते हैं,
साक्षात भगवान......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
27.6.2013
उत्‍तराखण्‍ड में 16-17 जून-2013 को पहाड़ पर केदारनाथ धाम पर पैदा हुई जल प्रलय पर रचित मेरी कविता।

Thursday, June 20, 2013

देवताओं के धाम....

गए थे तीर्थ यात्री,
भारत के राज्‍यों से,
देवभूमि उत्‍तराखण्‍ड,
जहां विराजते हैं,
बद्री और केदार.....

हर किसी के मन में,
एक तमन्‍ना होती है,
जीवन में जरुर जांऊ,
पुरखे भी तो गए थे,
जब देखते हैं,
उनके नाम पोथी में,
और अपना नाम भी,
लिखवाते हैं,
अगली पीढ़ी में,
जब कोई आएगा,
देखेगा हमारा नाम....

केदारनाथ जी में,
जो काल के मुंह में,
समा गए,
अन्‍य जगहों पर भी,
जो आपदा में घिर गए,
जिनकी कोई खबर नहीं,
परेशान उनके परिजन,
जिनके मन में कहीं,
भगवान के प्रति,
मन में क्‍या भाव,
पैदा हो रहा होगा?


प्रकृति का रौद्र रुप,
भला कौन रोक सका,
बेबस इंसान को,
सबक लेना होगा,
पहाड़ पर आपदाएं,
अतीत से आती हैं,
इंसान को समझाती हैं,
फिर भी नहीं समझता,
अब भी समझो,
नदी तट से दूर रहना,
न जाने कब उग्र हो,
तबाही का सैलाब,
तटों तक ले आए...

क्‍या भविष्‍य में,
फिर नहीं आएगें,
तीर्थाटन के लिए श्रद्धालु?
आएगें फिर भी,
उनकी आस्‍था जो ठहरी,
देवताओं के धाम में,
पर्यटन पहाड़ के लिए,
अभिशाप है,
कहीं प्रकृति का कोप,
इसके प्रति तो नहीं?

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित, 20.6.2013
उत्‍तराखण्‍ड में 16 जून-2013 को नदियों में आई विनाशकारी बाढ़ और उसके प्रभाव पर मेरी स्‍वरचित हिन्‍दी कविता.    

Tuesday, June 18, 2013

“सबक सीखा “

पहाड़ मा प्रलय,
पैलि बार नि आई,
फर्क यथगा छ,
पहाड़ का पाणी कू,
विनाशकारी मिजाज,
आज तक कैकि,
समझ मा नि आई....
उत्‍तरकाशी, श्रीनगर,
उजड़दु गैन बसदु गैन,
बिरही गंगा की बाढ,
सतपुली नयार की बाढ़,
कंडोलियागाड की बाढ़,
अतीत का गवाह छन,
केदारनाथ प्रलय हवैगि,
लामबगड़ कख समैगी,
रड़दा पाखा उजड़दा कूड़ा,
पंच प्रयाग मा प्रलय,
फेर भी मनखि,
वास करला,
उत्‍तराखण्‍ड की,
धैाळयौं का धेारा....

किलै हवै होलु यनु?
यत पहाड़ मा पाप्‍यौं कू,
भार बढिगी,
जन कि यात्रा मार्ग मा,
आफत मा पड़यां,
तीर्थ यात्रियौं की मदद,
कन्‍न का बजाय,
लोग उंकी जेब काटणा छन,
यू ही संदेश जालु,
देवभूमि का मनखि,
देव्‍ता समान न हवैक,
रागस छन,
पर यनि बात भिछ,
कुछ लोगुन मदद भी करि,
बिना कुछ लिन्‍या,
पहाड़ का मैमानु की....

भविष्‍य मा,
जख तक धौळयौं का,
पाणिन प्रलय मचाई,
वख तक बस्‍ती बसौणु,
बिल्‍कुल बंद हो,
जख तक संभव हो,
सड़क मार्ग निर्माण नदी का,
बिल्‍कुल पास न हो,
नदी घाटी क्षेत्र,
पारिस्‍थितिकीय दृष्टि सी,
संवेदनशील क्षेत्र घोषित हो,
ग्‍त आज बतौणु छ,
अब भी सबक सीखा .....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
उत्‍तराखण्‍ड में आयी बरसाती आपदा, जिसमें केदारनाथ और लामबगड़़ तबाह हो गया बरसाती आपदा पर रचित मेरी गढवाली कविता
19.6.13

“ठेकेदारु की मौज”

बिमार करा वे सनै,
फेर करा ईलाज जी,
गुस्‍सा त वै आलु हि,
कनुकै भला हवै सकदन,
तब वैका मिजाज जी....

कैकि बात कन्‍नु छौं,
समझ मा नि आई,
तुम हि सोचा?
ठेकेदारुन तुमारु पहाड़,
ठोकी अर ठक्‍कठयाई,
घत्‍त लगि कब्‍ज्‍याई,
गंगा जी छालौं फुंड,
रेत बजरी हत्‍याई......

पैंसा बल पाणी की तरौं,
तौंका खातिर बग्‍दु,
पहाड़ मा सड़क,
सरकारी भवन,
डाम भी,
जौंकी योजना बणैक,
सरकारी अफसर,
अफु अर तौं तैं,
मालामाल करदु.....

गंगा जी मा,
अथाह पाणी आज,
उत्‍पात मचौणु छ,
नई बात निछ या,
पैलि भी यनु हवै,
जब नि चेति इंसान,
क्‍या करि सकदु,
वक्‍त अर भगवान...
 
मोळ माटु तब,
होलु फेर अब,
टूट्रयां पुळ सड़क,
आपदा सी राहत,
यी सब काम होला,
फेर होलि,
ठेकेदारु की मौज....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
उत्‍तराखण्‍ड में आयी बरसाती आपदा पर रचित
18.6.13

Thursday, June 6, 2013

बारिश की बौछारें....

जब सुनता हूं,
पड़ रही हैं आजकल,
अपने पहाड़ पर,
मन कल्‍पना में,
भीगने लगता है,
दिल्ली की भयंकर,
झुलसाने वाली गर्मी में....

जून माह की गर्मी,
न जाने क्‍यों,
इतना सता रही है,
तुझे तेरा पहाड़,
बहुत याद आता है,
चला क्‍यों नहीं जाता?
जालिम बता रही है।

इंतजार है,
कब पड़ेगीं दिल्‍ली में,
बारिश की बौछारें,
भीगेगा तन मन,
हर्षित होगा फिर,
कवि जिज्ञासु का मन।

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
6.6.13

Wednesday, June 5, 2013

अपणु मुल्‍क अपणु हि होन्‍दु.....


मुंड मा तुमारी टोपलि धरिं,
जोंखि छन बल काळी करिं,
बुढेन्‍दा की स्‍याणि,
सुणा जीजा जी,
होण लग्‍यां तुम,
भारी मिजाजी.......

चला वे पहाड़ जौला,
कोदु झंगोरु भि खौला,
पहाड़ की जिन्‍दगी भारी भलि,
सुखि दुखि वख जन भि रौला,
अपणु मुल्‍क अपणु हि होन्‍दु.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
6.6.13

 

Monday, June 3, 2013

कनु भग्‍यान भाग हे......

कनु नहेंणु छै,
उत्‍तराखण्‍ड की धौळि मा,
खुश हवैक मन सी,
माछु सी तबलाणु छैं.........

यख त बुरी बितण लगिं,
तीसन उबाणि गौळि,
तुमारा भाग छन हे,
उत्‍तराखण्‍ड की धौळि......

भक्‍कु जब भारी लग्‍दु,
मन मा औन्‍दि छन उदौळि,
तड़फदु छ ज्‍यू पराण,
याद औन्‍दि उत्‍तराखण्‍डी धौळि.....

मांगी थैा मुल्‍क प्‍यारु,
जख भागीरथी अलकनन्‍दा,
सोचि नि थौ रौला वख,
जख जिन्‍दगी होयिं छ फन्‍दा...

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु,
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
3.6.13

मलेेथा की कूल