Monday, February 28, 2011

"पहाड़ का गांधी"

स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी,
आपन कनु करि कमाल,
उत्तराखण्ड आन्दोलन की,
प्रज्वलित करि मशाल.

जन्म २४ दिसम्बर, १९२५,
टिहरी, जखोली, अखोड़ी ग्राम,
उत्तराखण्ड का इतिहास मा,
दर्ज करि अपणु नाम.

आज धन्य होयिं छ,
आपकी जन्मभूमि अखोड़ी,
उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति सी पैलि,
जीवन यात्रा करिक छोड़ी.

उत्तराखण्ड राज्य कू सुपिनु,
आज होयुं छ साकार,
उत्तराखण्ड की जनता फर,
आपकु छ भारी ऊपकार.

अहिंसक उत्तराखण्ड आन्दोलन,
जैका आप था सूत्रधार,
आपकु अथक संघर्ष अर प्रयास,
पहाड़ फर छ परोपकार.

पहाड़ कू विकास कनु हो,
कनु हो संस्कृति कू सृंगार,
राज्य प्राप्ति कू सुपिनु,
आपकी कल्पना सी ह्वै साकार.

पहाड़ का खातिर समर्पित जीवन,
प्रमुख था वैका सरोकार,
संकल्प पहाड़ कू चहुंमुखी विकास,
जन-जन की आस अर आधार.

उत्तराखण्ड आन्दोलन का अग्रदूत,
"पहाड़ का गांधी"आपतैं शत शत नमन,
भागीरथ प्रयास साकार आपकु,
प्रगति पथ फर अग्रसर पर्वतजन.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 27.2.2011
मैन अखोड़ी निवासी श्री बी.यस. रावत जी का अनुरोध फर या कविता स्व. इन्द्रमणि बडोनी जी फर लिखि. आशा छ पाठक पसंद करला.
http://www.pahariforum.net/forum/index.php/topic,37.105.html

Friday, February 25, 2011

"ऋतु बसंत मा"

देखा हे प्यारा भै बन्धु,
हमारा मुल्क प्यारा पहाड़,
कामदेव कू पुत्र बसंत,
जख छन प्यारी डांडी-काँठी,
खुदेड़ ऋतु बसंत मा,
सब जगा आज छयुं छ.
बुराँश बणाँग लगौण लग्युं,
फ्योंलि तैं सतौण लग्युं,
मेरु रूप त्वैसी सी न्यारू,
शिवशंकर भोला तैं प्यारू,
ऊँचा डाँडौं घणा बणु मा,
मुल-मुल हैंसण लग्युं छ.

ऋतु बसंत जब-जब औन्दि,
सब्बि उत्तराखंड्यौं तैं,
जन्मभूमि रैबार छ देन्दी,
मैमु आवा ऋतु बसंत मा,
हर उत्तराखंडी का मन मा,
कुतग्याळि सी लगौन्दी.

हैंसणा होला फ्योंलि,बुराँश,
गौं का न्योड़ु फुल्याँ लयाड़ा,
अनुभूति व्यक्त कन्न लग्युं,
कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा,
किलैकि मेरा कवि मन मा,
खुदेड़ ऋतु बसंत छयुं छ,
मन पँछी अजग्याल मेरु,
प्यारा उत्तराखंड गयुं छ.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 24.2.2011

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Thursday, February 24, 2011

"बुरांश"

बौळ्या बणै देन्दु छ,
जब औन्दि छ बयार,
ऋतु बसंत की,
हैंसदु छ हिमालय देखि,
बाँज का बण का बीच,
ललेंगु मनमोहक ह्वैक,
पैदा होन्दु ऊलार,
हेरि हेरिक मन मा,
हे बुरांश,
तेरु प्यारू रंग रूप.
पहाड़ का मनखी,
याद करदा छन त्वै,
सुखि-दुखि जख भी,
रन्दा छन त्वैसी दूर,
कसक पैदा होन्दि छ,
सब्यौं का मन मा,
किलैकि तू,
पहाड़ की पछाण छैं,
पहाड़ कू पराण छैं,
भोलेनाथ तैं प्यारू,
आंछरी भी हेरदि होलि त्वै,
प्यारा गढ़वाळ अर कुमाऊँ,
हमारा मुल्क कू,
रंगीलु "बुरांश" छैं.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: १३.२.२०११

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"जन्मभूमि"

कविमन मन मा आज किलै,
कुतग्याळि सी लगणि छन,
तेरी याद आज औणि छ,
तेरी गोद मा बित्याँ दिनु की,
मन मा बसिं याद,
आज भौत सतौणि छ.....

हम मनखी ह्वैक त्वैसी दूर,
बुरांश, फ्योंलि का बड़ा भाग छन,
मुल-मुल होला त्वैमु हैंसणा,
ऊदास होन्दु हमारू मयाळु मन.

जिंदगी ज्यू जिबाळ सी,
अयुं होलु त्वैमु बाळु बसंत,
कनु छुटि प्यारू साथ तेरु,
दूर परदेश मा रैबार न रंत.

खुद भी लगदी तेरी सब्यौं,
जू दूर देश त्वैसी छन,
जन्मभूमि छैं प्यारी हमारी,
ऊदास "जिज्ञासु" कू कवि मन.

रचनाकार: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित २३.२.२०११)

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Tuesday, February 22, 2011

"देवभूमि तेरू दर्द"

(मेरी हिंदी में लिखी "देवभूमि तेरा दर्द" कविता का प्रिय पाठकों के लिए गढ़वाली अनुवाद)

तिस्वाळा छन गौं का धारा,
धौळी छन पर तिस्वाळा लोग,
कनुकै बुझली पर्वतजन की तीस?
देखा कनु छ संयोग.

प्राकृतिक संसाधन भौत छन,
मनमोहक प्रकृति कू सृंगार,
पलायन करिक चलिगिन पर्वतजन,
जख मिलि ऊँ तैं रोजगार.

रंग बिरंगा फूल खिल्दा
जंगळु मा पोथला करदा किब्लाट,
वीरानी छाणी छ गौं मा,
अब नि होन्दु मनख्यौं कू खिगचाट.

जंगळ जू मंगलमय छन,
बणांग सी भस्म होन्दा हर साल,
कथगा बण का जीव मरी जाँदा,
आज छ देखा एक सवाल.

पुंगड़ा पाटळा बंजेण लग्यां छन,
कैन लगौण अब ऊँ फर हौळ,
हळ्या अब खोजिक नि मिल्दा,
मन मा छ अब एक ही झौळ.

पशुधन आज पहाड़ कू,
होण लग्युं छ आज दुर्लभ,
छाँछ, नौण खोजिक नि मिल्दी,
घर्या घ्यू नि मिल्दु अब.

ढोल दमौं खामोश छन,
ढोली किलै बजौ वे आज,
परिवार कू पेट कनुकै पाळु,
त्रिस्कार कनु पर्वतीय समाज.

धौळी बाँध बणैक बाँध्याल्यन,
गाय माता आज दियालिन खोल,
देवभूमि की परंपरा निछ,
हे मनख्यौं कनु कर्याली मोळ.

हे पर्वतजन अब चिंतन करा,
राज्य अपणु अपणि छ सरकार ,
"देवभूमि तेरू दर्द" बढदु ही जाणु
सुपिना सबका नि ह्वेन साकार.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

"देवभूमि तेरा दर्द"

तिस्वाळे हैं गाँवों के धारे,
नदियाँ हैं तो प्यासे लोग,
कैसे बुझेगी पर्वतजनों की तीस?
देखो कैसा हैं संयोग.

प्राकृतिक संसाधन बहुत हैं,
मनमोहक प्रकृति का सृंगार,
पलायन कर गए पर्वतजन,
जहाँ मिला उन्हें रोजगार.

रंग बिरंगे फूल खिलते हैं,
जंगलों में पक्षी करते करवल,
वीरानी छा रही गावों में,
कम है मनख्यौं की हलचल.

जंगल जो मंगलमय हैं,
हर साल जल जाते हैं,
कितने ही वन्य जीव,
अग्नि में मर जाते हैं.

पुंगड़े हैं बंजर हो रहे,
कौन लगाएगा उन पर हल?
हळ्या अब मिलते नहीं,
बैल भी हो गए अब दुर्लभ.

पशुधन अब पहाड़ का,
लगभग हो रहा है गायब,
छाँछ, नौण भी दुर्लभ,
घर्या घ्यू नहीं मिलता अब.

ढोल दमाऊँ खामोश हैं,
ढोली क्यों उसे बजाए,
हो रहा है त्रिस्कार उसका,
परिजनों को क्या खिलाए.

नदियों को है बाँध दिया,
गायों को है खोल दिया,
देवभूमि की परंपरा नहीं,
हे मानव ऐसा क्यों किया?

हे पर्वतजनों चिंतन करो,
सरकार अपनी राज्य है अपना,
"देवभूमि तेरा दर्द" बढ़ता ही गया,
साकार नहीं सबका सपना.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरा पहाड़, यंग उत्तराखंड पर प्रकाशित)
(१६.८.२०१०)दूरभास: 09868795187
जन्मभूमि: बागी-नौसा, चन्द्रबदनी, टिहरी गढ़वाल

Thursday, February 17, 2011

"मैं दगड़ि"

जिन्दगी मा,
एक हादसा ह्वै,
कवि सम्मलेन मा,
एक कवि मित्रजिन,
गढवाळि कविता सुणाई,
सुणौन्दि बग्त ऊँ सनै,
कविता की पात्र,
जीवन संगिनी की याद आई.

ससुराड़ी बिटि,
जब मेरी बारात पैटी ,
मैं पालिंग मा बैठ्युं थौ,
वा डोला मा बैठिक,
क्या बोन्न वे दिन,
जोर-जोर करिक लराई,
मैकु वीं फर वे दिन,
दया बिल्कुल नि आई.

कविता पाठ जब,
थोड़ा अग्वाड़ि बढि,
बल वा वे दिन बिटि,
सदानि हैंसणी छ,
जिन्दगी भर मैकु,
सेळु का लप्पा की तरौं,
मेरु बर्गबान करिक,
दिन रात बटणी छ.

सुपिनु थौ मेरु,
ब्यो का बाद,
सदानि सुखि रौलु,
भग्यानि का हाथ की,
नखरी भलि खौलु,
पर आज यनु लगणु छ,
हादसा ह्वै,
वे दिन "मैं दगड़ि",
आज भोगणु छौं.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ११.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

"बसंत" (मौळ्यार)

अयुं होलु हमारा मुल्क,
बौळ्या बणिक,
छयुं होलु डाँडी-काँठ्यौं मा,
होलि ब्वै बाटु हेन्नि,
कब आलु नौनु मेरु,
खेल कौथिग आला,
फ्योंलि, बुरांश का फूल,
वैका मयाळु मन तैं,
मुल-मुल हैंसिक रिझाला.

बौळ्या बसंत की बयार,
हेरि-हेरिक मन मा,
पैदा होन्दु छ,
मुल्क का मनख्यौं का,
मयाळु मन मा ऊलार.

पय्याँ-आरू होला फूल्याँ,
पाख्यौं मा होलि हैंसणि,
फ्योंलि मुल-मुल,
डाँडी-काँठ्यौं की होलि,
मुंड मा पैरीं,
ह्यूं अर हर्याळि,
होलि ब्वै बैठीं छज्जा मा,
हमारी प्यारी डिंडाळि,
खुदेड़ ऋतु "बसंत" मा

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: १६.२.२०११
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)

Tuesday, February 1, 2011

"तड़-तड़ी ऊकाळ"

जनि कटार चोट की,
बगड्वाळधार का नजिक,
त्यूंसा की,
रौडधार का नजिक,
ज्वान्याँ की,
पौड़ीखाळ का नजिक,
चन्द्रबदनी मंदिर का ओर पोर,
टिहरी गढ़वाळ मा,
जख फुन्ड हिटदा था,
प्यारा मुल्क का मनखी,
गौं-गौळौं, मैत-सैसर,
औन्दि जान्दी बग्त,
लम्बा लैंजा लगैक,
छ्वीं बात्त लगौंदु-लगौंदु,
पता नि लगदु थौ,
कब हिटि होला,
"तड़-तड़ी ऊकाळ",
अपणा मुल्क धमा-धम.

रचना: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक:१.२.११
सर्वाधिकार सुरक्षित यंग उत्तराखंड, पहाड़ी फोरम पर प्रकाशित"

मलेेथा की कूल