Friday, November 14, 2014

पहाड़ की फ्यौंलि....



पहाड़ मा जल्‍मिं,
एक नौनी थै,
जैंकु नौं थौ फ्यौंलि,
जब वा ज्‍वान ह्वै,
एक दिन बणि ब्‍योलि...

ब्‍यो का बाद वा,
अपणा स्‍वामी का दगड़ा,
गौं का सामणि,
एक बण मा बैठि,
छ्वीं बात लगौन्‍दि थै,
भारी प्रेम थौ दुयौं मा,
एक दिन, अचाणचक्‍क,
फ्यौंलि भारी बिमार ह्वै,
वींकी बचण की,
क्‍वी आस नि रै,
अंत मा फ्यौंलि का,
पराण उड़िग्‍यन,
वींकू स्‍वामी,
अति ऊदास ह्वै,
गौं का सामणि का,
पहाड़ फर वीं तैं,
दफन करेगे....

वींकू स्‍वामी रोज,
वींकी खाड फर जांदु,
बित्‍यां दिन याद करदु,
एक दिन वेन देखि,
खाड का ऐंच एक डाळि,
उपजिक बड़ी होणी,
वेन वा डाळि,
पाणिन सींची,
कुछ दिन बाद,
वीं डाळि फर एक,
पिंगळु फूल खिलि,
डाळि कू नौं धरेगे,
फ्यौंलि.......
-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
दिनांक: 14.11.2014

Thursday, November 13, 2014

तेरा गौं कू नौं.....


क्‍या छ भुला अर कख छ भुला,
झट्ट बतौं तू मेरा सौं,
टिहरी जिल्‍ला मा छ मेरु,
पराण सी प्‍यारु बागी नौसा गौं....


मैं भी पहाड़ कू मनखि छौं,
जख छन हिंवाळि डांडी कांठी,
मनख्‍यौं मा भारी  प्रेम जख,
तिल की दाणी भी खांदा बांटी...

भुला बतौणु सुणा हे भैजि,
खासपट्टी की एक उंचि धार मा,
पराण सी प्‍यारु  मेरु गौं,
सुबेर उठि चंद्रबदनी मंदिर दिखेन्‍दु,
सच बोन्‍नु छाैं मेरा सौं.....

पछाण्‍ना निछन भैजि तुम,
तुमारी हि जाति कू छौं मैं,
मेरु प्‍यारु गौं छ पबेला,
भारी खुशी होलि मैकु,
जू आप मेरा गौं ऐल्‍या......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
स्‍वरचित कविता एवं सर्वाधिकार सुरक्षित
,
दिनांक: 13.11.14

Tuesday, November 11, 2014

क्‍यौकु लग्‍यां छैं.....

 
हे लग्‍द बग्‍द,
कुछ त सोचा मन मा,
कैकु तुम भलु भि करा,
ये मनखि जन्‍म मा....
धौंकरा फौंकरी जैका खातिर,
हात कू मैल छ यू पैंसा,
क्‍यौकु पड़़्यां घंघतोळ मा,
दिन मा द्वी घड़ी हैंसा....
माटा कू बण्‍युं छ मनखि,
मन मा केकु घमंड,
दुर्दिन औन्‍दा जब छन,
ह्वै जांदु मनखि झंड.....
कवि "जिज्ञासु" की बात हेजि,
समझ मा क्‍या औणि,
या जिन्‍दगी मनखि तैं,
दिन रात रुवौणि....
क्‍यौकु लग्‍यां छैं,
हे लग्‍द बग्‍द,
मन मा होयुं अभिमान,
जै दिन जैल्‍या,
कफन हि मिललु,
क्‍यौकु जोड़ना छैं,
सौ घड़ी कू सामान.....
-कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
16.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित
पढें और अहसास करें।

बग्‍वाळ-2014

बग्‍वाळ आई,
पटाका फोड़़ि क्‍या होन्‍दु,
मंगसीरुन अपणा बुबा जी,
मंग्‍तु तैं बताई.....
मंग्‍तुन बोलि बेटा,
पटाका की आवाज सुणि,
भविष्‍य का भूत,
वर्तमान मा ऐक,
भूतकाल मा चलि जांदा,
कुछ मनखि दारु पीक,
क्‍वी पटाका की आवाज सुणि,
बेहोश ह्वै जांदा,
यनु बतौ तू किलै पूछणि छै.....
मंगसीरुन बताई बुबाजी,
हमारा गौं की,
लंब पुंगड़ि का भूत,
क्‍या बग्‍वाळ फर,
भगि जाला.......
-कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
22.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित
पढ़ा अर अहसास करा भै बंधो, कनि होलि ऐंसु की बग्‍वाळ आपकी।
आपतैं हृदय सी बग्‍वाळि की हार्दिक शुभकामना।

मेरा गौं बिटि....

 
दिखेन्‍दा छन,
पूर्व दिशा मा,
हिंसरियाखाळ,
पश्‍चिम दिशा मा,
जामणीखाळ,
उत्‍तर दिशा मा,
रणसोलीधार,
दक्षिण दिशा मा,
ललोड़ीखाळ...
खाळ मा खाळ,
निछन आज,
रै होलि कबरि,
क्‍या बोन्‍न तब,
मेरा मुल्‍क मा,
धार ही धार,
खाळ ही खाळ,
दिखेन्‍दि छन,
दूर दूर तक,
मेरा गौं,
बागी नौसा बिटि....
-कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
28.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित

दादा अर नाती...


हात मा ह्वक्‍का धरयुं दादा कू,
खुग्‍लि फर बैठ्युं नाती,
साज वैन भ्‍वीं धोळ्यालि,
नाती छ भारी उत्‍पाती....

बोडाजिन झटट साज उठैक,
नाती की मुंडळी फलोसी,
तेरु दोष क्‍या छ रे नाती,
मैं ही छौं भारी दोषी...

खित खित हैंसणु नाती अफुमा,
हबरि कौंताळ मचौणु,
प्रिय नाती का पुळ्याट मा,
दादा खुश छ होणु.....

याद करा ऊ दिन आप भी,
जू दादा जी दगड़ि  बितैन,
दादा जी आज स्‍वर्गवासी,
अहा! कख ऊ दिन गैन....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
स्वरचित कविता, सर्वाधिकार सुरक्षित,
दिनांक 11.11.2014.

Monday, November 3, 2014

पर्वतराज हिमालय...


जिसे निहारा मैंने,
बचपन से,
जब जब गया,
चन्‍द्रकूट पर्वत शिखर पर,
मां चन्‍द्रबदनी मंदिर में,
अहसास किया,
हंसता हैं हिमालय,
हमें निहार कर....

आवाज उठ रही है,
हिमालय बचाओ,
ऐसा क्‍या हो गया?
संवेदनशील हिमालय को,
जो आज आशंकित हैं,
हिमालयी क्षेत्र के लोग....

सुनते हैं,
कीड़ा जड़ी के लिए,
लालची लोग,
ग्‍लेशियर को जबरदस्‍ती,
पिघला रहे हैं,
कहो तो,
संवेदनशील हिमालय को,
सता रहे हैं.....

हिमालयी क्षेत्र के लोग,
हिमालय को,
शिव पार्वती का,
निवास मानकर,
जो है भी,
पूजते हैं,
पास होते हुए भी,
नहीं सताते उसको.....

कौन जाता है,
हिमालय के पास,
पर्यटक बनकर,
मानते हैं,
सबका है हिमालय,
कूड़ा घर है क्‍या,
ऐसा क्‍यों करते हैं?
चिंतन करें,
हिमालय के पास,
एक पेड़ लगाते,
कूड़ा साथ लाते,
मूक हैं सभी,
हिसाब लगता है,
कितने आए,
कितने कमाए,
ये भी तो सोचो,
हंसने वाला हिमालय,
आंसू टपका रहा है.....

पर्वतजन का पहाड़,
सूना है आज,
सूने सूने गांव,
टूटते घर,
बंजर होते खेत,
ऐसा हो गया है,
हिमालयी क्षेत्र में,
कुछ मित्रों ने,
सैकड़ों मील पैदल चलकर,
जानने की कोशिश की,
हिमालय बचाओ,
अभियान के तहत,
पर्वतजन और हिमालय,
क्‍यों हैं संकट में?
भागीदार बनें,
संदेह न करें......

माधो सिंह भण्‍डारी जी के,
पुरातन गांव,
मलेथा  के लोग,
सजग हैं,
और दिखा दिया,
ऐसे ही तो बचाना है,
पहाड़ और हिमालय के,
अस्‍तित्‍व को......

पर्वतराज हिमालय,
अस्‍तित्‍व में रहेगा,
हंसता रहेगा,
हमारा भी,
अस्‍तित्‍व रहेगा,
जागो! जागो!
कहीं अबेर न हो जाए,
हिमालय से बहती,
सदानीरा नदियां,
कहां से दिखेगी्ं?
आने वाली पीढ़ी को......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
  "हिमालय बचाओ अभियान" को समर्पित  मेरी  ये स्‍वरचित कविता सप्रेम भेंट।
  दिनांक 3.10.2014.
 

Thursday, October 30, 2014

अटगा भटगा....

    अटगा भटगा....
    भाग की भताग भुलौं,
    कख कख डबखणा छैं,
    मन मा उदौळि सी ऊठदि,...
    दिन दोफरी भगणा छैं.....

    क्‍या जी होलु भाग मा,
    केकि छौं हम जाग मा,
    पापी पोटगि रण नि देंदि,
    द्वी घड़ी कब्‍बि चैन मा....
    ज्‍युंदा ज्‍यु की स्‍याणि हे,
    मन मनखि तैं भट्कौन्‍दि,
    रण नि देन्‍दि चैन सी,
    सदानि स्‍या अट्कौन्‍दि....
    अटगा भटगा मेरा भुलौं,
    भाग मा छन द्वी नाळी,
    चलि जौला एक दिन,
    क्‍या मिललु हे दिदौ ,
    यी़ं पोटगि सनै पाळी......
    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    30.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित

ऐंसु भी.....

    ऐंसु भी.....
    रगड़ा भगड़ि,
    तैं केदार घाटी मा,
    रड़दा झड़दा पाखा डरौणा,...
    मंदाकिनी का धोरा बस्‍यां,
    उत्‍तराखंडी भै बंधु तैं,
    मंदाकिनी का छाला डरौणा,
    पिछल्‍या साल की तरौं,
    मन सी ऊदास होणा,
    सोचा दौं यनु किलै,
    होणु ऐंसु भी......

    कवि जिज्ञासु की कलम सी
    सर्वाधिकार सुरक्षित, 17.7.14

मधुर मिलन हमारु...

    मधुर मिलन हमारु...
    समीर भैजिन,
    हमतैं नौएडा बुलाई,
    "विद्रोही" जी सी,...
    मुलाकात कराई,
    "आजाद" भैजिन,
    जू आजाद निथा,
    अपणु अमूल्‍य समय,
    हमारा खातिर,
    जुगाड़ करिक,
    एक मुलकात करि,
    मन सी खुश ह्वैन भारी,
    रै होलि किस्‍मत हमारी,
    अतं मा मिल्‍यन,
    मित्र पंचम सिंह कठैत जी,
    अर प्रिय कवि "फरियादि",
    चर्चा ह्वै पहाड़ फर,
    कनुकै गौं बसला,
    हमारा पहाड़ का,
    किलै होणी बरबादी.....

    -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
    द्वी अगस्‍त-2014 कू हमारी नौएडा मा एक यादगार मुलकात ह्वै।
    समय बलवान होंदु, छंद हि यनु ऐगि वे दिन।

नंदा सैसर छ जाणी......

    नंदा सैसर छ जाणी......
    मैतुड़ा छोड़िक नंदा,
    सैसर छ जाणी,
    रोणा छन मैति सब्‍बि,...
    आंख्‍यौं मा छ पाणी.....

    ऊदास छ होयिं नंदा,
    ठंडु मठु जाण्‍ाी,
    मैति मन मा सोचणा,
    भांगल्‍या जवैं यींकू,
    कनि होलि खाणी बाणी......
    खुदेलि लाडी हमारी,
    तैं ऊंचा कैलाश,
    होणी खाणी हो लाडी की,
    सब्‍यौं किछ आस.....
    -जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
    की कलम से मन की बात...21.8.14

बग्वाळ....

    दिपावली: झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना....
    देहरादून। गढ़वाली में जगमोहन सिंह जयाड़ा " जिज्ञासु"की कविता है,
    'जै दिन बानी-बानी का,
    पकवान बणदा छन,...
    वे दिन कु बोल्दा छन,
    रे छोरों आज पड़िगी,
    बल तुमारी बग्वाल।'

    सचमुच ऐसा ही रूप रहा है पहाड़ में बग्वाल का। 'बग्वाल' व 'इगास' संभवत: गढ़वाली में दीपावली के ही पर्यायवाची हैं।
    http://www.jagran.com/spiritual/religion-dipavli-blind-blind-diva-jagi-gaina-10831361.html

समधणि का खोज.....

    समधणि का खोज थौ जयुं,
    भेळ पड़िगि,
    हे दिदौं, हे भुलौं, सोचा दौं,
    भरीं ज्‍वानि मा, स्‍यू बिचारु,
    ज्‍यूंदा ज्‍यु क्‍या करिगि.....
    ...
    -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
    हे कविमन कू कबलाट, 2.9.14

बुढ़ड़ि बोन्‍नि....

    बुढ़ड़ि बोन्‍नि....
    गौं का लोखु सुणा तुम,
    ऐंसु का ह्युंद मण्‍डाण लगावा,
    दिशा बधण करिक तुम,...
    अयाळ बयाळ गौं सी भगावा.......
    कवि जिज्ञासु की कलम से

दिदा मेरा.....

    दिदा मेरा, आज कुजाणि,
    तेरी याद क्यौकु औणि छ,
    खाई थै काखड़ि चोरी,
    वे बसगाळ प्यारा दिदा,
    अंजनीसैण था जबरि,...
    ऐंसु का बसगाळ देखि,
    पापी परदेश मा दिदा,
    बित्यां दिनु की मैकु आज,
    भारी याद औणि छ,
    सेाचणु छौं आज मन मा,
    ऊ दिन कख चलिग्यन .....

    जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
    कविमन कू कबलाट ये बसगाळ
    4.9.2014

निर्भागि होंदि दिदा दारु....

    निर्भागि होंदि दिदा दारु,
    मनखि खुजौंदा,
    पेण का खातिर,
    लोण कू गारु,
    नि छुटदि कतै ना,...
    क्‍वी थेंचु या मारु....

    कवि जिज्ञासु की अनुभूति
    4.9.14

प्‍यारा पहाड़ सी दूर हे......

    प्‍यारा पहाड़ सी दूर हे......
    सारी पृथी डबखणु छौं,
    वा रसाण औणि निछ,
    ज्‍व छ मेरा पहाड़ मा,...
    लौंकदि कुयेड़ि,
    ऊंचि धार,
    हैंस्‍दि हिंवाळि कांठी,
    डांड्यौं की हर्याळि,
    निछ निछ मैंन देख्‍यालि,
    प्‍यारा पहाड़ सी दूर हे......

    -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
    दिनांक: 18.9.2014

अवा लो भात खाण .....

    अवा लो भात खाण .....
    बोडा जी बोन्‍ना,
    अवा लो,
    भात खाण खाण,...
    बरातिन पैटण झटट,
    अपणा सुलार कुर्ता पैरा,
    खास पटटी बिटि बरातिन,
    डिंडला तरी,
    भागीरथी पार जाण,
    छिलकौं की मुटट धरिं छन,
    वन भी रात ह्वै जाण,
    वख हम्‍न टैम फर जाण,
    पौंणख होलि वख भारी,
    दाळी की पकोड़ी,
    घर्या घ्‍यू भी खाण.
    अवा लो भात खाण......

    -जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
    दिनांक: 18.9.2014

उजाळु....

    उजाळु....
    आज कू,
    भलु नि लगणु छ,
    सब्‍बि धाणि ह्वैक भी,...
    टरकणि हि टरकणि...

    ख्‍याल औन्‍दु,
    मन मा जब,
    वा अंधेरी रात ही,
    भलि थै, भलि थै...
    मनख्‍यौं मा मनख्‍वात थै,
    प्‍यार भरी बात थै,
    छल कपट, दूर की बात,
    आज का उजाळा सी,
    भलि वा रात थै......
    -कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" की अनुभूति
    29.9.2014, दूरभाष: 09654972366

मैं दिल्ली हूँ..

    मैं दिल्ली हूँ...!
    मैं दिल्ली हूँ -
    लेकिन दिल कहीं नहीं है..!
    दर्द की दुकानों में-...
    नफरत भरी है.
    मैं दिल्ली हूँ -
    ये मैं नहीं..
    जिज्ञासु कहते हैं,
    दर्द से भरे
    बस आहें भरते हैं.
    ना इंसान है यहाँ-
    न इंसानियत ही है...!
    बेवजह की बस-
    एक भागमभाग है.
    मैं दिल्ली हूँ -
    लालकिला है लेकिन-
    कोई लाल नहीं दिखता
    क़ुतुब मीनार कोई
    छू नहीं सकता
    सुबह शाम की राशन
    का बस एक खेल है-
    मैं दिल्ली हूँ -
    जिज्ञासु के लिए जेल है.
    हाँ भई सच में-
    यहाँ बड़ी झेल है-
    दिल्ली में दिलों का
    बड़ा बेढंगा खेल है.
    मैं दिल्ली हूँ -....?
    अधुरी कल्पना,
    अधूरा मेल है-
    मैं दिल्ली हूँ -
    यहाँ सब सेल है....(मनोज इष्टवाल)

गढ़वाळ का ढुंगौं मा बैठि....

    गढ़वाळ का, ढुंगौं मा बैठि,
    मन खुश होन्‍दु छ भारी,
    मुल्‍क छुटिगी, पोटगि का बाना,
    होयिं छ भारी लाचारी....
    ...
    -कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु" की अनुभूति
    01.10.2014, दूरभाष: 09654972366

जल्‍म्‍युं छौं पहाड़ मा....

    जल्‍म्‍युं छौं पहाड़ मा, वख नि रंदु छौं,
    रिस्‍तौं की डोर सी, वख सी बंध्‍यु छौं....
    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    13.10.2014

जब ह्युंद आलु.....

    जब ह्युंद आलु.....
    ठेणी लगलि,
    घाम तापण पहाड़ जौलु,
    कोदा की करकरी रोठ्ठी दगड़ा,...
    तिल की चटणि खौलु,
    तातु गथ्‍वाणि प्‍यौलु,
    कंडाळि कू साग खौलु
    अपणा मुल्‍क जौलु,
    जब ह्युंद आलु.....

    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    14.10.2014

क्‍यौकु बोल्‍दा....

    तुम क्‍यौकु बोल्‍दा हे भुलौं.......
    गौं का मनखि, सब चलिग्‍यन,
    पंछी पहाड़ का, गौं मा हि रैन,
    कैकु छ पहाड़ प्‍यारु,...
    तुमसि भला ऊ पोथ्‍ला हिछन,
    जौन पहाड़ कतै नि छोड़ी,
    सच मा बोला, मुक्‍क नि मोड़ी,
    पहाड़ का पंछी छन पहाड़ी,
    तुम क्‍यौकु बोल्‍दा हे भुलौं.......

    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    14.10.2014

क्‍यौकु लग्‍यां छैं.....

    क्‍यौकु लग्‍यां छैं.....
    हे लग्‍द बग्‍द,
    कुछ त सोचा मन मा,
    कैकु तुम भलु भि करा,...
    ये मनखि जन्‍म मा....

    धौंकरा फौंकरी जैका खातिर,
    हात कू मैल छ यू पैंसा,
    क्‍यौकु पड़़्यां घंघतोळ मा,
    दिन मा द्वी घड़ी हैंसा....
    माटा कू बण्‍युं छ मनखि,
    मन मा केकु घमंड,
    दुर्दिन औन्‍दा जब छन,
    ह्वै जांदु मनखि झंड.....
    कवि "जिज्ञासु" की बात हेजि,
    समझ मा क्‍या औणि,
    या जिन्‍दगी मनखि तैं,
    दिन रात रुवौणि....
    क्‍यौकु लग्‍यां छैं,
    हे लग्‍द बग्‍द,
    मन मा होयुं अभिमान,
    जै दिन जैल्‍या,
    कफन हि मिललु,
    क्‍यौकु जोड़ना छैं,
    सौ घड़ी कू सामान.....
    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    16.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित
    पढें और अहसास करें।

ऐंसु की बग्‍वाळ

    ऐंसु की बग्‍वाळ भुलौं,
    बौड़िक औणि छ,
    ह्युंद भी ऐगि,
    भारी खुशी होणि छ,
    बग्‍वाळ शुभ हो तुमारी,...
    मेरा मन की आस छ,
    रंगीला त्‍यौहार,
    औन्‍दा अर जांदा,
    पौंन्‍दा होला खुशी तुम,
    मेरु यनु बिस्‍वास छ......

    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    20.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित

बग्‍वाळ मनैन पर.....


यनु सोचिक,
कखि पटाकौं सी,
प्रदूषण त नि होणु छ,...
सिर्फ एक हि पटाकु फोड़्यन,
बच्‍यां पैंसा,
कै गरीब तै देन,
ऊ भि मनालु बग्‍वाळ,
आपकी तरौं.....

-कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
22.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित

बग्वाळ

    बग्‍वाळ आई,
    पटाका फोड़़ि क्‍या होन्‍दु,
    मंगसीरुन अपणा बुबा जी,
    मंग्‍तु तैं बताई.....

    मंग्‍तुन बोलि बेटा,
    पटाका की आवाज सुणि,
    भविष्‍य का भूत,
    वर्तमान मा ऐक,
    भूतकाल मा चलि जांदा,
    कुछ मनखि दारु पीक,
    क्‍वी पटाका की आवाज सुणि,
    बेहोश ह्वै जांदा,
    यनु बतौ तू किलै पूछणि छै.....
    मंगसीरुन बताई बुबाजी,
    हमारा गौं की,
    लंब पुंगड़ि का भूत,
    क्‍या बग्‍वाळ फर,
    भगि जाला.......
    -कवि "जिज्ञासु" का मन का ऊमाळ
    22.10.2014, सर्वाधिकार सुरक्षित

सिमन्‍या बाबा जी


सिमन्‍या बाबा जी,
मैं नौनु तुमारु बोन्‍नु छौं,
नाराज नि ह्वेन तुम,
भिंडी दिनु मा फोन कन्‍नु छौं....

बेटा मेरा  हम राजि खुशी छौं,
सुख का दिन कटेणा,
सैंत्‍यु पाळ्युं छैं रे चुचा,
तेरी खुद मा खुदेणा.....

नि खुदेवा बुबा जी मेरा,
मैं राजि खुशी विदेश मा,
पर वा बात यख निछ,
ज्‍व होन्‍दि मुल्‍क देश मा.....

याद तेरी ऐ जांदि बेटा,
मन ऊदास होन्‍दु छ,
तेरु नौनु याद करदु त्‍वै,
खुद मा तेरी रोन्‍दु छ......

बग्‍वाळ्यौं मा बुबा जी मेरा,
मैं घौर औणु छौं,
गौं मुल्‍क की याद औन्‍दि,
मन अपणु बुझौणु छौं.....

घौर ऐ जांदि बेटा तू,
भैंसि हमारी ब्‍ययिं छ,
छक्‍कि छक्‍कि दूध पी जांदि,
टक्‍क हमारी लगिं छ.....

मां जी मेरी कन्‍नि छन,
कना छन मेरा नौना बाळा,
क्‍या होणु छ गौं फुंड,
कना छन सब्‍ब्‍िा गौं वाळा....

सब्‍बि छन राजि खुशी,
काखड़ि लगिं छन हमारी,
अबरि औन्‍दि खै जांदी,
टक्‍क सी लगिं छ हमारी.....


मां चंद्रबदनी दैणु होलि,
झटट हि औलु मैं घौर,
मेरी मां जी कू बोल्‍यन,
मेरी चिंता कतै न कर......

ठीक छ बुबा जी अब  ,
मैं डयूटी फर  जांदु,
टैम भी यथ्‍गा नि रंदु,
भौत बिजि ह्वै जांदु......


जुगराजि रै बेटा तू,
बुढेन्‍दा कू छैं सारु,
जब जब तू फोन करदि,
मन खुश ह्वै जांदु हमारु.......

-जगमोहन सिंह जयाडा जिज्ञासु
30.10.2014 श्री हरीश पटवाल जी के अनुरोध पर रचित

Wednesday, August 20, 2014

बिंग्‍युं चैंदु हमतैं...

अपणु मुल्‍क रौै रिवाज,
सोचा क्‍या छ होणु आज,
कैका मन मा दुख छ,
बदल्‍यां छन क्‍यौकु मिजाज,
नयुं जमानु भलु छ,
मोळ माटु होयुं नि चैंदु,
बिंग्‍यु चैंदु हमतै आज......
-कवि जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु की कलम सी
कविमन की बात, 16.6.14
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चौक मा निछन......

चौक मा निछन गोरु भैंसा,
आज होयुं पैंसा पैंसा......

घ्‍यु की माणी बेची बेची,
जू छोरा पढैन,
ज्‍वान ह्वैक ऊ बिचारा,
परदेश जुग्‍ता ह्रवैन....

ब्‍वे बाब बिचारा,
बाटु हेरदु रैन,
लग्‍यां रैन सास,
मन मरि आस मरि,
र्स्‍वगवासी ह्रवैन,....

-कवि जिज्ञासु की कलम से 20.6.14

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