जहाँ ऊंचे शिखरों से,
उतरती हैं जल धाराएँ,
घाटियौं की ओर,
और बहती हुई,
परिवर्तित हो जाती हैं,
नदियों में,
जैसे अलकनंदा, भागीरथी,
भिलंगना, मन्दाकिनी, पिंडर,
गंगा और यमुना के रूप में,
और करती हैं सृंगार,
देवभूमि उत्तराखंड का.
जहाँ मनमोहक सदाबहार,
बांज बुरांश के सघन वन,
झूमते हैं हवा के झोंको से,
जिन्हें निहारकर होता है,
तन मन को सुखद अहसास,
और बसंत में बुरांश,
लाल सुर्ख होकर,
बिखेरता है अपनी छटा,
जिसे देखकर उत्तराखंड हिमालय,
मुस्कराता है मन ही मन.
देवभूमि भी कहलाता है,
जहाँ देवताओं के धाम,
आये थे अतीत में,
सेम मुखेम में श्रीकृष्ण,
देवप्रयाग में भगवान श्रीराम,
जगह जगह जहाँ,
भगवान शिवशंकर के मंदिर,
पंच हैं प्रयाग,
गंगोत्री, यमनोत्री, बद्री-केदार,
माँ नंदा जी का मैत,
माँ गंगा यमुना का मैत,
देखो कितना प्यारा है,
पर्वतजन का "पहाड़".
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २८.२.२०१२
www.pahariforum.net
गढ़वाळि कवि छौं, गढ़वाळि कविता लिख्दु छौं अर उत्तराखण्ड कू समय समय फर भ्रमण कर्दु छौं। अथाह जिज्ञासा का कारण म्येरु कवि नौं "जिज्ञासू" छ।दर्द भरी दिल्ली म्येरु 12 मार्च, 1982 बिटि प्रवास छ। गढ़वाळि भाषा पिरेम म्येरा मन मा बस्युं छ। 1460 सी ज्यादा गढ़वाळि कवितौं कू मैंन पाड़ अर भाषा पिरेम मा सृजन कर्यालि। म्येरी मन इच्छा छ, जीवन का अंतिम दिन देवभूमि उत्तराखण्ड मा बितौं अर कुछ डाळि रोपिक यीं धर्ति सी जौं।
Tuesday, February 28, 2012
Monday, February 27, 2012
"यथगा भलु नि छौं मैं"
जनु सोचण्या होल्या तुम,
क्या बतौण?
या बग्त की बात छ,
भलु बुरू हे चुचौं,
हमारा तुमारा हाथ छ....
दुनियां का दिनु देखिक,
मैं यनु होयुं छौं,
पैलि भारी भलु थौ,
हे! सच मा तुमारा सौं....
यीं दुनियां मा,
देखा, गोरा मनखी,
बल मन का काळा,
लोभ लालच अति भारी,
बण्यां छन धन जग्वाळा,
तौं जनु होण पड़दु,
नितर, जिंदगी जीणु हराम,
करि नि सकदा क्वी काम,
क्या कन्न हे श्रीराम,
कारण यु हिछ,
"यथगा भलु नि छौं मैं"......
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २८.२.२०१२
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क्या बतौण?
या बग्त की बात छ,
भलु बुरू हे चुचौं,
हमारा तुमारा हाथ छ....
दुनियां का दिनु देखिक,
मैं यनु होयुं छौं,
पैलि भारी भलु थौ,
हे! सच मा तुमारा सौं....
यीं दुनियां मा,
देखा, गोरा मनखी,
बल मन का काळा,
लोभ लालच अति भारी,
बण्यां छन धन जग्वाळा,
तौं जनु होण पड़दु,
नितर, जिंदगी जीणु हराम,
करि नि सकदा क्वी काम,
क्या कन्न हे श्रीराम,
कारण यु हिछ,
"यथगा भलु नि छौं मैं"......
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: २८.२.२०१२
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Friday, February 10, 2012
"खबर सार"
प्यारा उत्तराखंड की,
जब मिल्दि छ,
गौं मुल्क बिटि अयाँ,
कै भै बन्ध, लंगि संगि सी,
भलु लगदु छ,
दूर परदेश मा......
जन, पहाड़ मा ऐंसु,
खूब बरखा होणी छ,
ह्यूं भि खूब पड़ी,
बुरांश खूब खिल्याँ छन,
डांडौं मा,
फ्योंलि का फूल,
खूब खिल्याँ छन,
पाख्यौं मा,
रौंत्याळु छ लगणु,
हमारू पहाड़.......
जन, गौं मा ऐंसु,
खूब फसल पात छ,
गौं तक सड़क बणिगी,
बिजली भि पौन्छिगी,
पंड्वार्त होणी छ,
गौं का सामणी,
ऊँचि धार ऐंच,
कुल देवता कू,
नयुं मंदिर बणनु छ.....
मन भारी खुश ह्वै जान्दु,
जब मिल्दि छ,
उत्तराखंड की "खबर सार",
भलु लगदु छ,
दूर परदेश मा......
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: नौसा-बागी, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल.
१०.२.२०१२
प्रवास: नई दिल्ली
www.pahariforum.net
जब मिल्दि छ,
गौं मुल्क बिटि अयाँ,
कै भै बन्ध, लंगि संगि सी,
भलु लगदु छ,
दूर परदेश मा......
जन, पहाड़ मा ऐंसु,
खूब बरखा होणी छ,
ह्यूं भि खूब पड़ी,
बुरांश खूब खिल्याँ छन,
डांडौं मा,
फ्योंलि का फूल,
खूब खिल्याँ छन,
पाख्यौं मा,
रौंत्याळु छ लगणु,
हमारू पहाड़.......
जन, गौं मा ऐंसु,
खूब फसल पात छ,
गौं तक सड़क बणिगी,
बिजली भि पौन्छिगी,
पंड्वार्त होणी छ,
गौं का सामणी,
ऊँचि धार ऐंच,
कुल देवता कू,
नयुं मंदिर बणनु छ.....
मन भारी खुश ह्वै जान्दु,
जब मिल्दि छ,
उत्तराखंड की "खबर सार",
भलु लगदु छ,
दूर परदेश मा......
जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
ग्राम: नौसा-बागी, पट्टी. चन्द्रबदनी,
टेहरी गढ़वाल.
१०.२.२०१२
प्रवास: नई दिल्ली
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Wednesday, February 8, 2012
हे पहाड़ी
पहाड़ तैं पछाण,
जू हमारू छ पराण,
जै फर हम सनै छ,
भारी अभिमान,
कथगा प्यारू,
दुनिया मा न्यारू,
उत्तराखंड्यौं की शान,
देवभूमि,
जख देवतों का थान,
स्वर्ग का सामान,
जख हैंस्दु छ हिमालय,
प्यारा बुरांश तैं हेरी,
हे पहाड़ी,
ज्व जन्मभूमि छ,
तेरी अर मेरी.
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ९.२.२०१२
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
इ-मेल: j_jayara@yahoo.com
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जू हमारू छ पराण,
जै फर हम सनै छ,
भारी अभिमान,
कथगा प्यारू,
दुनिया मा न्यारू,
उत्तराखंड्यौं की शान,
देवभूमि,
जख देवतों का थान,
स्वर्ग का सामान,
जख हैंस्दु छ हिमालय,
प्यारा बुरांश तैं हेरी,
हे पहाड़ी,
ज्व जन्मभूमि छ,
तेरी अर मेरी.
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
दिनांक: ९.२.२०१२
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
इ-मेल: j_jayara@yahoo.com
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Friday, February 3, 2012
"पहाड़"
मैदान से डरता है,
नदियों के द्वारा,
बहुमूल्य गाद भेजकर
मैदान का सृजन,
करता है,
अपने आँचल से,
निकलने वाली नदियों से,
मैदान को सींचता है....
मैदान से जुदा होकर,
पहाड़ उत्तराखण्ड बना,
फिर भी डरता है,
अपना ही मैदानी भाग,
उसका भाग्य,
आज भी निर्धारित करता है....
जैसे पहाड़ को राजधानी,
जरूरी सतत्त विकास,
पलायन पर रोक,
प्राकृतिक संसाधनों का,
समायोजित लाभ,
खेत खलिहान में समृधि,
क्योँ नहीं मिला?
पहाड़ को आज भी.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
(सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित)
दिनांक: ३.२.२०१२
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नदियों के द्वारा,
बहुमूल्य गाद भेजकर
मैदान का सृजन,
करता है,
अपने आँचल से,
निकलने वाली नदियों से,
मैदान को सींचता है....
मैदान से जुदा होकर,
पहाड़ उत्तराखण्ड बना,
फिर भी डरता है,
अपना ही मैदानी भाग,
उसका भाग्य,
आज भी निर्धारित करता है....
जैसे पहाड़ को राजधानी,
जरूरी सतत्त विकास,
पलायन पर रोक,
प्राकृतिक संसाधनों का,
समायोजित लाभ,
खेत खलिहान में समृधि,
क्योँ नहीं मिला?
पहाड़ को आज भी.....
कवि: जगमोहन सिंह जयाड़ा "जिज्ञासु"
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दिनांक: ३.२.२०१२
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