Friday, September 20, 2013

"धार ऐंच बैठि"

सोचणु बौडा,
जैका गोरु बाखरा,
चन्‍न लग्‍यां,
डांड्यौं मा बथौं,
फर्र फर्र बगणु,
सेळि सी पड़्नि,
जैका तन मन मा....

बहत्‍तर बग्‍वाळ,
खैगि बौडा,
सोचणु अजौं,
हे कथगा खौलु,
कुजाणि कब आलु,
ऊ निर्भाभि दिन,
यीं धरती तै,
छोड़िक जौलु....

चलि भि जौलु,
भग्‍यान ह्वै जौलु,
कलजुग छ यू,
लंबी उम्र भी,
भलि नि होंदि,
धार ऐंच बैठि
सोचणु बौडा......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
20.9.2013

Friday, September 13, 2013

"पतब्‍येड़ु"

पेन्‍दा था गौं का,
दाना सयाणा,
एक स्‍वर्गवासी,
दादा जी जबरि,
गौं का बण फुंड,
गोरु चरौंदा था....

बोल्‍दा था दादा जी,
अरे ल्‍हवा तुंगला का,
बड़ा बड़ा पत्‍ता,
फेर पत्‍तैां तैं मोड़िक,
एक सेण्‍किन जोड़दा,
हातन तमाखु मिलैक,
पतब्‍येड़ु भरदा...

घंघतीर कू गारु मंगैक,
वे फर कबासि लगैक,
झाड़दा था अगेलु,
धरदा था जग्‍दि कबासि,
पतब्‍येड़ा का ऐंच,
फेर मादा सोड़ि,
छोड़दा धुवां गिच्‍चा बिटि...

बोल्‍दा था ग्‍वैर छोरा,
उंड दी दादा तै पतब्‍येड़ा,
एक सोड़ा हम भी मारदौं,
कनु होंदु पतब्‍येड़ा कू,
तुमारा हात कू भर्युं तमाखु.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित
13.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com
माननीय भीष्‍म कुकरेती जी द्वारा पतब्‍येड़ी पर लिखे लेख से प्रेरित होकर मैंने यह कविता लिखी।

Friday, September 6, 2013

"कीड़ू की ब्‍वैन"


अपणि जिंदगि मा,
सदानि खौरि खैन,
सोरा भारा सदानि वींका,
भारी बैरि रैन...

पेट मुळया छ,
कीड़ू बिचारु,
वेकु बाबा जितारु,
ढाकर बिटि औन्‍दि दां,
बीच बाटा मा मरि,
कीड़ू मुळयान,
सदानि गौरु चरैन,
दगड़ि का दगड़्या,
वेका सब्‍बि स्‍कूल गैन....

कीड़ू की ब्‍वैन,
लोगु का छाकला करि,
ध्‍याड़ी मजूरी करि,
पाळी कीड़ू, दिन बितैन,
जब ज्‍वान ह्वै वींकू कीड़ू,
होन्‍दा खांदा दिन भि ऐन...

कीड़ू की ब्‍वैन, हे राम दा,
बुढेन्‍दि बग्‍त,
बुरा दिन बितैन,
लाठी का सारा हिटदि थै,
बिचारि रग रग रगर्यांदि,
गौं फुंड औन्‍दि जान्‍दी,
टोटगि कमर, नजर कम,
भट्यान्‍दि रन्‍दि थै,
हे मेरा कीड़ू, मरिग्‍यौं बेटा,
आज मेरु शरील खूब निछ...

एक दिन यनु आयी,
कीड़ू की ब्‍वै स्‍वर्ग चलिगि,
गौं का लोग आज,
भौत याद करदा छन,
हे राम दा, कनि भग्‍यान थै,
बिचारि कीड़ू की ब्‍वै......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित

5.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com

“रम की ब्‍वारि”

रम की ब्‍वारि ह्विस्‍की की,
होयिं भारी हाम- होयिं भारी हाम,
क्‍वी खुशी मौका हो, चाहे ब्‍यो बरात,
रम की ब्‍वारि ह्विस्‍की बिना,
क्‍वी नि होंदा काम- क्‍वी नि होंदा काम,
कनु जमानु ऐगि हे भुलौं,
ह्विस्‍की होयिं बांद- ह्विस्‍कि होयिं बांद,
जैं देखिक कथगौं की, जीब लबल्‍यांद,
हे ह्विस्‍की, हाय ह्विस्‍की,
तू छैं भारी बांद- तू छैं भारी बांद......

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित
5.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com

 

 

"सुण हे भुला"

टक्‍क लगैक,
तेरु कूड़ू तेरा गौं मा,
टूटि फूटिक टपराणु,
त्‍वैकु तेरा सौं छन भुला,
क्‍यौकु तू अपणा,
गौं मुल्‍क नि जाणु...

तेरा कूड़ा कू धुर्पळु टूट्युं,
जख झूमणा कंडाळि का टैर,
चौक मा ऊखल्‍यारि टपराणि,
बिराळा घुमणा भीतर भैर....

जांदरि छ झक्‍क होयिं,
सिलोटि छ सेयीं,
द्वार फर ताळु लग्‍युं,
ओबरा बिराळि ब्‍यैयीं.....

पित्र तेरा कूड़ा हेरिक,
दुर्गति देखि रोणा,
विरासत की बर्बादि देखि,
सुण हे भुला
मन मा दुखि होणा...

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित
6.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com

"धरती मां"

हम तुम तैं,
छक्‍कि छक्‍किक देणी छ,
लोभ हमारु यथगा छ,
धीत नि भरेणि छ....
छाती मा वींकी,
धम्‍मद्याणा छौं,
सतै सतै खाणा छौं,
खराब कर्रयालि हवा पाणी,
धरती मां का ऊपहार की,
कदर कतै भि नि जाणी,
सोचा जैं धरती मा,
हमारी गुजर बसर होणि,
मोहमाया का वश ह्वैक
लोभ हमारु यथगा छ,
धीत नि भरेणि छ....

धरती हमारी मां छ,
जथगा ह्वै सकु श्रृंगार करा,
जंगळ, जल, जमीन कू,
मन सी अपणा मान करा,
रुठि जाली धरती मां,
सोचा दौं तब क्‍या होलु,
वींकी भौणि कुछ भि करा,
मनखि एक दिन रोलु....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षति एवं प्रकाशित
6.9.2013, E-Mail: jjayara@yahoo.com

Tuesday, September 3, 2013

भूत की ब्‍यथा...


द्वी भूत जौन आपस मा,
दुआ सलाम करि,
पर मन सी दुखी होयुं,
एक भूत बोन्‍नु, तू त भाई,
दिन मा भांग की गोळी खैक,
फंसोरिक से जांदु,
पर मैं भौत दुखी छौं...

शमशाण मा दिन मा,
जू मर्युं मुर्दा ल्‍हौन्‍दा,
घौर मा नि मर्दु उंकू मुर्दा,
खूब उत्‍पात मचौन्‍दा,
तब मेरी निंद मा,
भारी खलल पड़ि जांदु,
क्‍या ह्रवै ब्‍याळि,
त्‍वैकु विस्‍तार सी बतौन्‍दु......

चार भायौं की मां मरी,
अर वीं सनै शमशाण मा,
अंतिम क्रिया का खातिर,
ऊंका लंगि संगि ल्‍हेन,
चारी भाई लड़न लग्‍यन,
ब्‍वै का ईलाज फर होयां,
खर्चा की पातड़ी खोलि,
पिरपिरा होण लग्‍यन,
अर गति मा बैठण कू,
क्‍वी नि ह्रवै राजि.....

ऊंका गौं का एक,
धन सिंह काका तैं,
भौत गुस्‍सा आई,
मरि जैला माच्‍द तुम,
यथगा बोलिक चिता फर,
वैन आग लगाई,
अपणु मुंड मुंडाई,
मै बैठलु गति मा,
जब तुम यना,
नौ धरौण्‍या ह्रवैग्‍यें.....

सुण दगड़या फेर,
चार भाई अपणा,
मर्रयां बुबा तैं ल्‍हेक,
शमशाण मा ऐन,
सब्‍बि बुबा की गति मा,
बैठण कू लड़न लगिग्‍यन,
किलैकि बुबा जी की,
अंतिम इच्‍छा यनि थै,
जू मेरी गति मा बैठलु,
वे सनै गौं का न्‍योड़ु कू,
एक खारी कू सेरु मिललु....

चारी भायौं मा भारी,
घमसाण मचिगि,
क्‍या बोन्‍न उत्‍पात मचिगि,
ऊंका गौं का एक,
मन्‍खिन पुलिस बुलाई,
खूब करिक ह्रवै,
चारी भायौं की तब,
डंडान शमशाण मा धुनाई,
उ बिचारा हवालात मा गैन,
ऊंका गौं का घन्‍ना काकान,
ऊंका बुबा जी की,
अंतिम क्रिया करिक,
गति मा बैठण की,
ईच्‍छा मन सी जताई,
तौंकु निसाब अब,
अदालत मा हि होलु,
या बग्‍त की मार छ......

देख भुला भूत तू,
मन्‍ख्‍यौं का प्रपंच सी,
मैं अति परेशान छौं,
ये शहरी शमशाण छोड़िक,
चल भुला भूत,
अब कखि गंवाड़या,
शमशाण मा जौला,
वख त चैन सी रौला.....

-जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं ब्‍लाग पर प्रकाशित
2.9.2013
माननीय भीष्‍म कुकरेती जी की भूतूं ब्यथा-कथा फर आधारित मेरी या कविता छ।
चबोड़्या -चखन्यौर्या -भीष्म कुकरेती 

 
 https://www.facebook.com/groups/merapahadforum.uttarakhand/permalink/644450495580169/

मलेेथा की कूल